ख़्याल-ए-वस्ल को अब आरज़ू झूला झुलाती है

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ख़्याल-ए-वस्ल को अब आरज़ू झूला झुलाती है
क़रीब आना दिल-ए-मायूस के फिर दूर हो जाना।------शाद अज़ीमाबादी

हमारी उम्मीद अब इस विचार को झूला झुला रही है। मतलब न पूरी तरह से टूटती है और न पूरी तरह से पक्का विश्वास दिलाती है के उनसे मिलना हो जाएगा।

महबूब से मिलन के विचार को और किसी गाँव के बड़े दरख़्त में बँधे हुए रस्सी के झूले को चलता हुआ, सामने रखिए। दोनों एक समान दिखाई देते हैं। उम्मीद उसी तरह बँधती और टूटती रहती है जिस तरह कभी झूला हमारे पास आता है और कभी दूर चला जाता है।

झूला पास आता है तो ऐसा लगता है मिलन होगा, जल्दी ही झूला दूर चला जाता है, तो ऐसा लगता है मिलन नहीं होगा। और ये क्रम चलता रहता है।
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