नज़्म : जंग

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शायर - निदा फ़ाज़ल ी

सरहदों पर फ़तह का ऎलान हो जाने के बाद,
जंग
बे-घर, बे-सहारा,
सर्द ख़ामोशी की आंधी में बिखर के
ज़र्रा-ज़र्रा फैलती है,
तेल,
घी,
आटा
खनकती-----चूड़ियों का रूप भर कर
बस्ती-बस्ती डोलती है,
दिन दहाड़े
हर गली कूंचे में घुस कर
बंद दरवाज़ों की सांकल खोलती है,
मुद्दतों तक
जंग घर-घर बोलती है,
सरहदों पर फ़तह का ऎलान हो जाने के बाद
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