नज़्म : 'जाने ग़ज़ल'

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शायर - मेहबूब राही

चाँद चेहरे को तो आँखों को कंवल लिक्खूँगा
जब तेरे हुस्न-ए-सरापा पे ग़ज़ल लिक्खूँगा

ऎ मेरी पैकर-ए-तख़ीईल मेरी जान-ए-ग़ज़ल
मेरा दिल है तेरी चाहत का हसीं ताजमहल
मैं तुझे प्यार से मुमताज़ महल लिक्खूँगा
जब तेरे हुस्न-ए-सरापा पे ग़ज़ल लिक्खूँगा

एक हसीं फूल है तू रश्क-ए-गुलिस्ताँ है तू
हुस्न-ए-नज़्ज़ारा है तू जान-ए-बहाराँ है तू
रूप को तेरे बहारों का बदल लिक्खूँगा
जब तेरे हुस्न-ए-सरापा पे ग़ज़ल लिक्खूँगा

बेरुख़ी को भी मैं समझूँगा इनायत तेरी
तेरी नफ़रत को भी जानूँगा मोहब्बत तेरी
ज़ुल्म को तेरे तेरा हुस्न-ए-अमल लिक्खूँगा
जब तेरे हुस्न-ए-सरापापे ग़ज़ल लिक्खूँगा

तेरी ज़ुल्फ़ों के लिए दूँगा घटाओं की मिसाल
बाद-ए-सरसर को कहूँगा तेरी बहकी हुई चाल
बिजलियों को तेरी पेशानी के बल लिक्खूँगा
जब तेरे हुस्न-ए-सरापा पे ग़ज़ल लिखूँगा

गुलबदन, ग़ुंचा दहन जाने-चमन लिखता हूँ
तुझको रंगीन बहारों की दुल्हन लिखता हूँ
आज जो लिखता हूँ तुझको वहीकल लिक्खूँगा
जब तेरे हुस्न-ए-सरापा पे ग़ज़ल लिक्खूँगा
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