मजाज़ के मुनफ़रीद अशआर

Webdunia
मंगलवार, 10 जून 2008 (16:29 IST)
हम अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके, कुछ कह न सके कुछ सुन न सके
याँ हमने ज़ुबाँ ही खोली थी, वाँ आँख झुकी शर्मा भी गए

ज़ुबाँ पर बेखुदी में नाम उसका आ ही जाता है
अगर पूछे कोई ये कौन है बतला नहीं सकता

आरिज़-ए-ग़र्म पर वो रंग-ए-शफ़क़ की लेहरें
वो मेरी शोख निगाही का असर आज की रात

हविसकारी है जुर्म-ए-खुदकुशी मेरी शरीअत में
ये हद्द-ए-आखरी है मैं यहाँ तक जा नहीं सकता

हुस्न के चहरे पे है नूर-ए-सदाक़त की दमक
इश्क़ के सर पर कलाह-ए-फ़ख्र-ए-इंसानी है आज

हम दम यही है रह गुज़र-ए-यार-ए-खुशखराम
गुज़रे हैं लाख बार इसी रहगुज़र से हम

कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी खराब होना था

लब गुलरंग-ओ-हसीं, जिस्म गुदाज़-ओ-सीमीं
शोखी-ए-बर्क़ लिए, लरज़िश-ए-सीमाब लिए

फिर किसी के सामने चश्म-ए-तमन्ना झुक गई
शौक़ की शोखी में रंग-ए-एह्तेराम आ ही गया

इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी
फ़ितना-ए-अक़्ल से बेज़ार हूँ मैं

बखशी हैं हम को इश्क़ ने वो जुरअतें मजाज़
डरते नहीं सियासत-ए-एहल-ए-जहाँ से हम

कुछ तुझ को खबर है हम क्या-क्या ऎ गरदिश-ए-दौराँ भूल गए
वो ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ भूल गए, वो दीदा-ए-गिरयाँ भूल गए

इक न इक दर पर जबीन-ए-शौक़ घिसती ही रही
आदमीयत ज़ुल्म की चक्की में पिसती ही रही

तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

अगर खिलवत में तूने सर उठाया भी तो क्या हासिल
भरी महफ़िल में आकर सर झुका लेती तो अच्छा था

जो हो सके हमें पामाल कर के आगे बढ़
न हो सके तो हमार जवाब पैदा कर

तू इंक़िलाब की आमद का इंतिज़ार न कर
जो हो सके तो अभी इंक़िलाब पैदा कर

आओ मिल कर इंक़िलाब-ए-ताज़ातर पैदा करें
देह्र पर इस तरहा छा जाएं कि सब देखा करें

कुछ नहीं तुम, कम से कम ख्वाब-ए-सहर देखा तो है
जिस तरफ़ देखा न था अब तक उधर देखा तो है

अब ये अरमाँ कि बदल जाए जहाँ का दस्तूर
एक इक आँख में हो ऎश-ओ-फ़राग़त का सरूर

वो मुझसे को चाहती है और मुझसे तक आ नहीं सकती
मैं उसको पूजता हूँ और उसको पा नहीं सकता

ये मजबूरी सी मजबूरी है लाचारी सी लाचारी
कि उस के गीत भी जी खोल कर मैं गा नहीं सकता

फिर मेरी आँख हो गई नमनाक
फिर किसी ने मिज़ाज पूछा है

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