इश़्क पे ज़ोर नहीं

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नुक्ताचीं हैं ग़मे-दिल उसको सुनाये न बने
क्या बने बात, जहाँ बात बनाये न बने

मैं बुलाता तो हूँ उसको, मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल
उस पे बन जाये कुछ ऐसी कि बिन आये न बने

खेल समझा है, कहीं छोड़ न दे, भूल न जाये
काश यूँ भी हो कि बिन मेरे सताये न बने

ग़ैर फिरता है लिये यूँ तेरे ख़थ को कि अगर
कोई पूछे कि ये क्या है, तो छिपाये न बने

इस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले हैं, तो क्या
हाथ आयें, तो उन्हें हाथ लगाये न बने

कह सके ‍कौन कि ये जलवागरी किसकी है
परदा छोड़ा है वो उसने कि उठाये न बने

मौत की राह न देखूँ कि बिन आये न रहे
तुम को चाहूँ कि न आओ, तो बुलाये न बने

इश़्क पे ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
कि लगाये न लगे और बुझाये न बने
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