मीर की गज़लें

Webdunia
शनिवार, 9 अगस्त 2008 (12:49 IST)
1. मुँह तका ही करे है जिस तिस का
हैरती है ये आईना किस का

शाम से कुछ बुझा सा रहता है
दिल हुआ है चिराग़ मुफ़लिस का

फ़ैज़ ऎ अब्र चश्म-ए-तर से उठा
आज दामन वसीअ है उसका

ताब किस को जो हाल-ए-मीर सुने
हाल ही और कुछ है मजलिस

2. कुछ करो फ़िक्र मुझ द ीवाने की
धूम है फिर बहार आने की

वो जो फिरता है मुझ से दूर ही दूर
है ये तरकीब जी के जाने की

तेज़ यूँ ही न थी शब-ए-आतिश-ए-शौक़
थी खबर गर्म उस के आने की

जो है सो पाइमाल-ए-ग़म है मीर
चाल बेडोल है ज़माने की

3. देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है

गोर किस दिल जले की है ये फ़लक
शोला इक सुबह याँ से उठता है

खाना-ए-दिल से ज़ीनहार न था
कोई ऎसे मकाँ से उठता है

बैठने कौन दे है फिर उसको
जो तेरे आस्ताँ से उठता है

यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है

इश्क़ एक मीर भारी पत्थर है
कब ये तुझ नातवाँ से उठता है
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