ग़ज़ल : बेखुद देहलवी

Webdunia
मंगलवार, 22 जुलाई 2008 (14:40 IST)
* वो सुनकर हूर की तारीफ़, परदे से निकल आए
कहा फिर मुस्कुराकर, हुस्न-ए-ज़ेबा इस को कहते हैं

अजल का नाम दुश्मन दूसरे मानी में लेता है
तुम्हारे चाहने वाले तमन्ना इस को कहते हैं

मेरे मदफ़न पे क्यों रोते हो आशिक़ मर नहीं सकता
ये मरजाना नहीं, सब्र आना इस को कहते हैं

नमक भर कर मेरे ज़ख्मों में तुम क्या मुस्कुराते हो
मेरे ज़ख्मों को देखो मुस्कुराना इस को कहते हैं

ज़माने की अदावत का सबब थी दोस्ती जिनकी
अब उनको दुश्मनी है हम से, दुनिया इसको कहते हैं
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