ग़ज़ल - मीर

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उलटी हो गईं सब तदबीरे ं, कुछ न दवा ने काम किय ा
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किय ा

एहद-ए-जवानी रो-रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँ द
यानी रात बहुत थे जाग े, सुबह हुई आराम किय ा

नाहक़ हम मजबूरों पर तोहमत है मुख़तारी क ी
चाहते हैं सो आप करें हैं हमको अबस बदनाम किय ा

किसका काब ा, कैसा कलीस ा, कौन हरम है क्या एहरा म
कूंचे के उसके बाशिंदों न े, सबको यहीं से सलाम किय ा

याँ के सपेद-ओ-स्याह में हमक ो, दख़्ल जो है सो इतना ह ै
रात को रो-रो सुबह किय ा, या दिन को जूँ तूँ शाम किय ा

मीर के दीन-ओ-मज़हब क ो, अब पूछते क्या हो उनने त ो
क़सक़ा खींच देर में बैठ ा, कब का तरक इसलाम किया।
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