ग़ज़ल : फ़िराक़ गोरखपुरी

Webdunia
शनिवार, 9 अगस्त 2008 (12:56 IST)
रात भी नींद भी कहानी भी
हाय, क्या चीज़ है जवानी भी

एक पैग़ाम-ए-ज़िन्देगानी भी
आशिक़ी मर्ग-ए-नागहानी भी

इस अदा का तेरी जवाब नहीं
मेहरबानी भी सरगरानी भी

दिल को अपने भी ग़म थे दुनिया में
कुछ बलाएं थीं आसमानी भी

देख दिल के निगारखाने में
ज़ख्म-ए-पिन्हाँ की है निशानी भी

खल्क़ क्या क्या मुझे नहीं कहती
कुछ सुनूँ मैं तेरी ज़ुबानी भी

दिल को आदाब-ए-बन्दगी भी न आए
कर गए लोग हुकमरानी भी

ज़िन्दगी ऎन दीद-ए-यार फ़िराक़
ज़िन्दगी हिज्र की कहानी भी

ग़ज़ल 2.
बहुत पहले से इन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऎ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं

तबीयत अपनी घबराती है अब सुनसान रातों में
हम एसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं

जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरहा मानी जान लेते हैं

तुझे घाटा न होने देंगे कार-ओ-बार-ए-उलफ़त में
हम अपने सर तेरा ऎ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं

रफ़ीक़-ए-ज़िन्दगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आखिर है
तेरा ऎ मौत! हम ये दूसरा एअहसान लेते हैं

ज़माना वारदात-ए-क़्ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर आँखों पर मेरा दीवान लेते हैं

फ़िराक़' अक्सर बदल कर भेस फिरता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं
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