ग़ज़ल : प्रो. सादिक

Webdunia
मंगलवार, 6 मई 2008 (12:02 IST)
जो रिश्ता पाँच अनासिर का था निभाते रहे
उन्हीं के बल पे चली जब तलक चलाते रहे

ये किस से कहते कि थी डोर उनके हाथ वही
कभी उठाते रहे और कभी गिराते रहे

भंवर की गर्दिशों में वो सुकून दिल को मिला
कि फिर न लौटे किनारे हमें बुलाते रहे

सिवाए लफ़्ज़ों के कुछ और उअन के पास न था
तस्ल्लियाँ ही फ़क़त हाथ में थमाते रहे

ज़मीर ज़िदा था वरना हज़ार दस्त-ए-तमा
हमें भी बारहा अपनी तरफ़ बुलाते रहे

थे नागवार सभी तजरुबात माज़ी के
यही किया कि उन्हें भूलते भुलाते रहे

दिल और दीं के सिवा पास एक जान थी बस
उसी पे खेल के हम आबरू बचाते रहे
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