ग़ज़लें : ज़हीर क़ुरैशी

Webdunia
मंगलवार, 20 मई 2008 (12:22 IST)
पेशकश : अज़ीज़ अंसार ी

सब की आँखों में नीर छोड़ गए
जाने वाले शरीर छोड़ गए

राह भी याद रख नहीं पाई
क्या कहाँ राहगीर छोड़ गए

लग रहे हैं सही निशाने पर
वो जो व्यंगों के तीर छोड़ गए

हीर का शील भंग होते ही
रांझे अस्मत पे चीर छोड़ गए

एक रुपया दिया था दाता ने
सौ दुआएं फ़क़ीर छोड़ गए

उस पे क़बज़ा है काले नागों का
दान जो दान-वीर छोड़ गए

हम विरासत न रख सके क़ायम
जो विरासत कबीर छोड़ गए

2. हमारे भय पे पाबंदी लगाते हैं
अंधेरे में भी जुगनू मुस्कुराते हैं

बहुत कम लोग कर पाते हैं ये साहस
चतुर चहरों को आईना दिखाते हैं

जो उड़ना चाहते हैं उड़ नहीं पाते
वो जी भर कर पतंगों को उड़ाते हैं

नहीं माना निकष हमने उन्हें अब तक
मगर वो रोज़ हमको आज़माते हैं

उन्हें भी नाच कर दिखलाना पड़ता है
जो दुनिया भर के लोगों को नचाते हैं

बहुत से पट कभी खुलते नहीं देखे
यूँ उनको लोग अक्सर खटखटाते हैं

हमें वो नींद में सोने नहीं देते
हमारे स्वप्न भी हम को जगाते हैं
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