वैश्य त्र्यम्बक मंत्र से तथा वनवासी अघोर मंत्र से तथा सन्यासी प्रणव मंत्र से भस्म का त्रिपुण्ड लगावें।
अतिवर्णामी और योगी लोग ईशान मंत्र से भस्म लगावें।
शूद्र संकर जाति सधवा, विधवा स्त्री-बालक, ब्रह्मचारी, गृहस्थी, व्रती आदि सब भस्म धारण कर सकते हैं।
भस्मधारी भक्त शिव रूप हो जाता है। पवित्र रहता है। यज्ञ, होम, जप, वैश्वदेव, देवार्चन, संध्या आदि में विभूति के द्वारा त्रिपुंड लगाने से मनुष्य पवित्र रहता है। मृत्यु को जीत लेता है। सब तीर्थों में स्नान का पुण्य फल प्राप्त कर लेता है।
शिव को प्रसन्न करने के लिए गाए गए श्री शिवमहिम्न स्तोत्र में भी उन्हें चिता की भस्म लेपने वाले कहा गया है।
भस्म शरीर पर रक्षा कवच का काम करती है। इसका दार्शनिक और वैज्ञानिक महत्व है।
शैव संप्रदाय के सन्यासियों में भस्म का विशेष महत्व है।
हमें शिव के सभी मंत्रों, श्लोकों और स्त्रोतों में भस्म का वर्णन पढ़ने को मिल जाता है।
जैसे आदिशंकराचार्य ने शिवपञ्चाक्षर स्तोत्र में कहा है श्चिताभस्मालेप: सृगपि नृकरोटिपरिकर: या 'भस्मांगराकाय महेश्वराय'।
शिव का शरीर पर भस्म लपेटने का दार्शनिक अर्थ यही है कि यह शरीर जिस पर हम घमंड करते हैं, जिसकी सुविधा और रक्षा के लिए ना जाने क्या-क्या करते हैं एक दिन इसी भस्म के समान हो जाएगा। शरीर क्षणभंगुर है और आत्मा अनंत।
कई संन्यासी तथा नागा साधु पूरे शरीर पर भस्म लगाते हैं। यह भस्म उनके शरीर की कीटाणुओं से तो रक्षा करती ही है तथा सब रोम कूपों को ढंककर ठंड और गर्मी से भी राहत दिलाती है।
रोम कूपों के ढंक जाने से शरीर की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती इससे शीत का अहसास नहीं होता और गर्मी में शरीर की नमी बाहर नहीं होती। इससे गर्मी से रक्षा होती है। मच्छर, खटमल आदि जीव भी भस्म रमे शरीर से दूर रहते हैं।