फाल्गुन माह लगते ही होली का त्योहार प्रारंभ हो जाता है। यह जहां ऋतु परिवर्तन का माह है वहीं ग्रह परिवर्तन का माह भी होता है। होलाष्टक से ग्रह परिवर्तन होकर उग्र प्रभाव देने वाला हो जाता है। ज्योतिषियों के अनुसार होलाष्टक का प्रभाव तीर्थ क्षेत्र में नहीं मान जाता है, लेकिन इन आठ दिनों में मौसम परिवर्तित हो रहा होता है, व्यक्ति रोग की चपेट में आ सकता है और ऐसे में मन की स्थिति भी अवसाद ग्रस्त रहती है। इसलिए शुभकार्य वर्जित माने गए हैं। होलाष्टक के आठ दिनों को व्रत, पूजन और हवन की दृष्टि से अच्छा समय माना गया है।
ज्योतिष विद्वानों के अनुसार अष्टमी को चंद्रमा, नवमी तिथि को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र और द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध, चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र स्वभाव के हो जाते हैं। इन ग्रहों के निर्बल होने से मनुष्य की निर्णय क्षमता क्षीण हो जाती है। इस कारण मनुष्य अपने स्वभाव के विपरीत फैसले कर लेता है। यही कारण है कि व्यक्ति के मन को रंगों और उत्साह की ओर मोड़ दिया जाता है।
विद्वान ज्योतिषियों का मानना है कि फाल्गुन में पूर्णिमा के दिन, सूर्य कुंभ राशि में पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में होता है जबकि चंद्रमा सिंह राशि में पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में होता है। सूर्य हमारी आत्मा है तो चंद्र मन। इसका दोनों पर ही प्रभाव पड़ता है।
फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन, चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसके स्वामी शुक्र हैं और सूर्य जिस नक्षत्र में है, उसके स्वामी बृहस्पति हैं। शास्त्र कहते हैं कि असुरों के गुरु शुक्राचार्य हैं, जबकि बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं। और इस नक्षत्र में, चंद्रमा की राशि (सांकेतिक अर्थों में एक भक्त के रूप में चिह्नित) सिंहहै, जो अग्नि संकेत है। इसलिए, फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन, चंद्रमा (भक्त), सिंह (अग्नि) के प्रभाव में होने के बाद भी उसे कुछ भी नुकसान नहीं होता है क्योंकि उस पर सूर्य (भगवान) का पूरा प्रकाश पड़ता है। यह जलती चिता में होलिका की गोद में बैठे प्रह्लाद का प्रतीक।
इस दिन, परमात्मा (सूर्य) की ऊर्जा अपने भक्त (चंद्रमा) पर अपना पूरा ध्यान दे रही होती है क्योंकि पूर्णिमा वह दिन है जब पूरा चंद्रमा दिखाई देता है। इसका अर्थ है कि देवता अपने भक्तों पर पूरी कृपादृष्टि से कर रहे हैं और सिंह राशि के प्रभाव से आसुरी ऊर्जा का दहन किया जा रहा है, जबकि भक्त को कोई नुकसान नहीं होता है।