क्या आप जानते हैं भद्रा क्या है...?

जानिए भद्रा के शुभाशुभ विचार

पं. अशोक पँवार 'मयंक'
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धर्मशास्त्र के अनुसार जब भी उत्सव-त्योहार या पर्व काल पर चौघड़िए तथा पाप ग्रहों से संबंधित काल की बेला में निषेध समय दिया जाता है, वह समय शुभ कार्य के लिए त्याज्य होता है। पौराणिक मान्यता के आधार पर देखें तो भद्रा का संबंध सूर्य और शनि से है।

मान्यता है कि जब भद्रा का वास किसी पर्व काल में स्पर्श करता है तो उसके समय की पूर्ण अवस्था तक श्रद्धावास माना जाता है। भद्रा का समय 7 से 13 घंटे 20 मिनट माना जाता है, लेकिन बीच में नक्षत्र व तिथि के अनुक्रम तथा पंचक के पूर्वार्द्ध नक्षत्र के मान व गणना से इसके समय में घट-बढ़ होती रहती है।

भद्रायुक्त पर्व काल का वह समय छोड़ देना चाहिए, जिसमें भद्रा के मुख तथा पुच्छ का विचार हो।

भद्राकाल में विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश, रक्षा बंधन आदि मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं। लेकिन भद्राकाल में स्त्री प्रसंग, यज्ञ करना, स्नान करना, अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करना, ऑपरेशन करना, कोर्ट में मुकदमा दायर करना, अग्नि सुलगाना, किसी वस्तु को काटना, भैंस, घोड़ा, ऊंट संबंधी कर्म प्रशस्त माने जाते हैं। जब करण विष्ट‍ि लगता है तो उसे ही भद्रा कहा जाता है।

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भद्रा के बारह नाम : - धान्या, दधि मुखी, भद्रा, महामारी, खरानना, कालरात्रि, महारूद्रा, विष्टिकरण, कुलपुत्रिका, भैरवी, महाकाली, असुरक्षयकारी हैं।

भद्रा दोष निवारण के उपाय : जिस दिन भद्रा हो और परम आवश्यक परिस्थितिवश कोई शुभ कार्य करना ही पड़े तो उस दिन उपवास करना चाहिए।

प्रातः स्नानादि के उपरांत देव, पितृ आदि तर्पण के बाद कुशाओं की भद्रा की मूर्ति बनाएं और पुष्प, धूप, दीप, गंध, नैवेद्य, आदि से उसकी पूजा करें, फिर भद्रा के बारह नामों से हवन में 108 आहुतियां देने के पश्चात तिल और खीरादि सहित ब्राह्मण को भोजन कराकर स्वयं भी मौन होकर तिल मिश्रित कुशरान्न का अल्प भोजन करना चाहिए। फिर पूजन के अंत में इस प्रकार मंत्र द्वारा प्रार्थना करते हुए कल्पित भद्रा कुश को लोहे की पतरी पर स्थापित कर काले वस्त्र का टुकड़ा, पुष्प, गंध आदि से पूजन कर प्रार्थना करें -

' छाया सूर्य सुते देवि विष्टिरिष्टार्थदायिनी।
पूजितासि यथाशक्त्या भदे भद्रप्रदा भव॥'

फिर तिल, तेल, सवत्सा, काली गाय, काला कंबल और यथाशक्ति दक्षिणा के साथ ब्राह्मण को दें। भद्रा मूर्ति को बहते पानी में विसर्जन कर देना चाहिए। इस प्रकार विधिपूर्वक जो भी व्यक्ति भद्रा व्रत का उद्यापन करता है, उसके किसी भी कार्य में विघ्न नहीं पड़ते।

भद्रा व्रत करने वाले व्यक्ति को भूत-प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी तथा ग्रह आदि कष्ट नहीं देते।

भद्रा परिहार - : कुछ आवश्यक स्थिति में भद्रा का परिहार हो जाता है। जैसे- तिथि के पूर्वार्द्ध भाग में प्रारंभ भद्रा अर्थात् तिथि दिवस के पूर्वार्द्ध भाग में प्रारंभ भद्रायादि तिथ्यन्त में रात्रिव्यापिनी हो जाए, तो दोषकारक न होकर सुखदायिनी हो जाती है।

भद्रा वास : मेष, वृषभ, मिथुन, वृश्चिक का जब चंद्रमा हो तब भद्रा स्वर्ग लोक में रहती है। कन्या, तुला, धनु, मकर का चंद्रमा होने से पाताल लोक में, कर्क, सिंह, कुंभ, मीन राशि पर स्थित चंद्रमा होने पर भद्रा मृत्यु लोक में रहती है अर्थात् सम्मुख रहती है। जब भद्रा भू-लोक में रहती है तब अशुभ फलदायिनी एवं वर्जित मानी गई है। इस समय शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। बाकि अन्य लोक में शुभ रहती है।

विशेष :- शुक्ल पक्ष की भद्रा का नाम वृश्चिकी है। कृष्ण पक्ष की भद्रा का नाम सर्पिणी है। कुछ एक मतांतर से दिन की भद्रा सर्पिणी, रात्रि की भद्रा वृश्चिकी है। बिच्छू का विष डंक में तथा सर्प का मुख में होने के कारण वृश्चिकी भद्रा की पुच्छ और सर्पिणी भद्रा का मुख विशेषतः त्याज्य है।

भद्रा दोष :- मंगलवार-शनिवार जनित दोष, व्यतिपात, अष्टम भावस्थ एवं जन्म नक्षत्र दोष, मध्याह्न के पश्चात शुभ कारक मानी जाती है।

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