विवाह के कुछ शास्त्रीय नियम

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गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिए प्रमुख संस्कार विवाह संस्कार है। इसे हमारे नीतिक ग्रंथों में संस्कार की संज्ञा दी गई है जिसका मुख्य उद्देश्य जीवन को संयमित बनाकर संतानोत्पत्ति करके जीवन के सभी ऋणों से उऋण होकर मोक्ष के लिए कर्म करें। इसलिए विवाह में ये नियम निर्धारित किए गए हैं।

* वर-वधू दोनों सगोत्रीय अर्थात एक गोत्र के नहीं होने चाहिए।

* वधू का गोत्र एवं वर ननिहाल पक्ष का गोत्र एक ही नहीं होना चाहिए।

* दो सगी बहनों का विवाह दो सगे भाइयों से करना भी शास्त्रों में निषिद्ध है।

* दो भाइयों का, दो बहनों का अथवा भाई-बहनों के विवाह में 6 मास का अंतर होना चाहिए।
  गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिए प्रमुख संस्कार विवाह संस्कार है। इसे हमारे नीतिक ग्रंथों में संस्कार की संज्ञा दी गई है जिसका मुख्य उद्देश्य जीवन को संयमित बनाकर संतानोत्पत्ति करके जीवन के सभी ऋणों से उऋण होकर मोक्ष के लिए कर्म करें।      


* कुल में विवाह होने के 6 माह के भीतर मुंडन, यज्ञोपवीत (जनेऊ संस्कार) चूड़ा आदि मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए। किंतु 6 मास के भीतर ही यदि संवत्सर बदल जाता है तो ये कार्य किए जा सकते हैं।

* वैवाहिक अथवा अन्य मांगलिक कार्यों के मध्य श्राद्ध आदि अशुभ कार्य करना भी शास्त्रों में वर्जित है।

* वर, कन्या के विवाह के लिए गणेश पूजन हो जाने के पश्चात यदि दोनों में से किसी के भी कुल में कोई मृत्यु हो जाती है तो वर, कन्या तथा उनके माता-पिता को सूतक नहीं लगता है तथा निश्चित तिथि पर विवाह कार्य किया जा सकता है।

* वाग्दान अथवा लगन चढ़ जाने के पश्चात परिवार में कोई मृत्यु होने पर सूतक समाप्त होने अथवा सवा माह के पश्चात विवाह करने में कोई दोष नहीं लगता है।

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