श्रीमद्भागवत की मान्यता : हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि प्रलय का वक्त आने पर सौ साल तक बारिश नहीं होती। अन्न और पानी न होने से अकाल पड़ जाता है। सूर्य की भीषण गर्मी समुद्र, प्राणियों और पृथ्वी का रस सोख लेती है। इसे ही प्रतीक रूप में संकषर्ण भगवान के मुंह से निकलने वाली आग की लपटें बताया गया है। हवा के कारण यह आकाश से लेकर पाताल तक फैलती हैं।
इस प्रचण्ड ताप और गर्मी से पृथ्वी सहित पूरा ब्रह्माण्ड ही दहकने लगता है। इसके बाद गर्म हवा अनेक सालों तक चलती है। पूरे आसमान में धुंआ और धूल छा जाते हैं। जिसके बाद बने बादल आकाश में मण्डराते हुए फट पड़ते हैं। कई सालों तक भारी बारिश होती है।
इससे ब्रह्माण्ड में समाया सारा संसार जल में डूब जाता है। इस तरह पृथ्वी के गुण, गंध जल में मिल जाते हैं और पृथ्वी तबाह होकर अंत में जल में ही मिलकर जल रूप हो जाती है। इस तरह जल, पृथ्वी सहित पंचभूत तत्व जो इस जगत का कारण माने गए हैं, एक-दूसरे में समा जाते हैं और मात्र प्रकृति ही शेष रह जाती है।
महाभारत : महाभारत में कलियुग के अंत में प्रलय होने का जिक्र है, लेकिन यह किसी जल प्रलय से नहीं बल्कि धरती पर लगातार बढ़ रही गर्मी से होगा। महाभारत के वनपर्व में उल्लेख मिलता है कि सूर्य का तेज इतना बढ़ जाएगा कि सातों समुद्र और नदियां सूख जाएगी। संवर्तक नाम की अग्रि धरती को पाताल तक भस्म कर देगी। वर्षा पूरी तरह बंद हो जाएगी। सब कुछ जल जाएगा, इसके बाद फिर बारह वर्षों तक लगातार बारिश होगी। जिससे सारी धरती जलमग्र हो जाएगी। अनंत काल के बाद पुन: जीवन की शुरुआत होगी।
सात लोक की पौराणिक धारणा : पुराणों अनुसार सात लोक को मूलत: दो लोक में विभाजित किया गया हैं- 1कृतक लोक और 2.अकृतक लोक। कृतक लोक में ही प्रलय और उत्पत्ति का चक्र चलता रहता है अकृतक लोक समय और स्थान शून्य है।
सप्त लोक का वर्णन : सात लोक हैं जिसमें से तीन लोक 1.भू लोक (धरती), 2.भुवर्लोक (आकाश), 3.स्वर्लोक (अंतरिक्ष) में ही प्रयल होता है, जबकि 4.महर्लोक, 5.जनलोक, 6.तपलोक और 7.सत्यलोक- उक्त 4 लोक प्रलय से अछूते रहते हैं।
इनमें भी जो 'महर्लोक' हैं वह जनशून्य अवस्था में रहता है जहा आत्माएं स्थिर रहती हैं, यहीं पर महाप्रलय के दौरान सृष्टि भस्म के रूप में विद्यमान रहती है। यह लोग त्रैलोक्य और ब्रह्मलोक के बीच स्थित है।
ब्राह्मांड का स्वरूप : यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी दस गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से आच्छादित है और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है।
वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहाँ तक प्रकाशित होता है वहाँ से यह दस गुना ज्यादा 'तामस अंधकार' से घिरा हुआ है और यह तामस अंधकार भी अपने से दस गुना ज्यादा महत्तत्व से घिरा हुआ है जो असीमित, अपरिमेय और अनंत है। उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है।
इसे इस तरह समझें : अनंत महत्तत्व से घिरा 'तामस अंधकार' और उससे ही घिरे 'आकाश' को स्थान और समय कहा गया है। इससे ही दूरी और समय का ज्ञान होता है। आकाश से ही वायुतत्व की उत्पत्ति होती है। वायु से ही तेज अर्थात अग्नि की और अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की सृष्टि हुई। इस धरती पर जो जीवन है वह खुद धरती और आकाश का है।