हिंदू 'प्रलय' की धारणा कितनी सच?

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
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प्रलय शब्द का जिक्र लगभग हर धर्म के ग्रंथों में मिलता है। सभी धर्मों की प्रलय संबंधी धारणाएं अलग-अलग है। इन धारणाओं में कितनी सच्चाई है यह हम नहीं जानते। यहां प्रस्तुत है हिंदू धर्म अनुसार प्रलय की धारणा ।

प्रलय का अर्थ होता है संसार का अपने मूल कारण प्रकृति में सर्वथा लीन हो जाना। प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं। हिन्दू शास्त्रों में प्रलय के चार प्रकार बताए गए हैं- नित्य, नैमित्तिक, द्विपार्थ और प्राकृत। एक अन्य पौराणिक गणना अनुसार यह क्रम है नित्य, नैमित्तक आत्यन्तिक और प्राकृतिक प्रलय।

प्रत्येक कल्प के अंत में एक प्रलय होता है, जबकि धरती पर से जीवन समाप्त हो जाता है। अब तक एक कल्प बीत चुका है- जिसे ब्रह्म कल्प कहा गया है। यह वाराह कल्प का प्रथम चरण चल रहा है। इसके बाद पद्म कल्प शुरू होगा।

एक कल्प को चार अरब बत्तीस करोड़ मानव वर्षों के बराबर का माना गया है। यह ब्रह्मा के एक दिवस या एक सहस्र महायुग (चार युगों के अनेक चक्र) के बराबर होता है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने ब्रह्मांड की आयु अनुमानत: तेरह अरब वर्ष बताई है। चार अरब वर्ष पूर्व जीवन की उत्पत्ति मानी गई है।

दो कल्पों को मिलाकर ब्रह्मा की एक दिवस और रात्रि मानी गई है। यानी 259,200,000,000 वर्ष। ब्रह्मा के बारह मास से उनका एक वर्ष बनता है और सौ वर्ष ब्रह्मा की आयु होती है।

इस तरह ब्रह्मा के 15 वर्ष व्यतीत होने पर एक नैमित्तिक प्रलय होता है- फिर ब्रह्मा के 100 वर्ष व्यतीत होने पर तीसरा प्रलय होता है- जिसे द्विपार्थ कहा गया है। ब्रह्मा के 50 वर्ष को एक परार्ध कहा गया है। इस तरह दो परार्ध यानी एक महाकल्प। ब्रह्मा का एक कल्प पूरा होने पर प्रकृति, शिव और विष्णु की एक पलक गिर जाती है। अर्थात उनका एक क्षण पूरा हुआ, तब तीसरे प्रलय द्विपार्थ में मृत्युलोक में प्रलय शुरू हो जाता है।

फिर जब प्रकृति, विष्णु, शिव आदि की एक सहस्रबार पलकें गिर जाती हैं तब एक दंड पूरा माना गया है। ऐसे सौ दंडों का एक दिन 'प्रकृति' का एक दिन माना जाता है- तब चौथा प्रलय 'प्राकृत प्रलय' होता है- जब प्रकृति उस ईश्वर (ब्रह्म) में लीन हो जाती है।

अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड भस्म होकर पुन: पूर्व की अवस्था में हो जाता है, जबकि सिर्फ ईश्वर ही विद्यमान रह जाते हैं। न ग्रह होते हैं, न नक्षत्र, न अग्नि, न जल, न वायु, न आकाश और न जीवन। अनंत काल के बाद पुन: सृष्टि प्रारंभ होती है।

जो जन्मा है वह मरेगा- पेड़, पौधे, प्राणी, मनुष्य, पितर और देवताओं की आयु नियुक्त है, उसी तरह समूचे ब्रह्मांड की भी आयु है। इस धरती, सूर्य, चंद्र सभी की आयु है।

छोटी-मोटी प्रलय और उत्पत्ति तो चलती ही रहती है। किंतु जब महाप्रलय होता है तो सम्पूर्ण ब्रह्मांड वायु की शक्ति से एक ही जगह खिंचाकर एकत्रित हो भस्मीभूत हो जाता है। तब प्रकृति अणु वाली हो जाती है अर्थात सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणुरूप में बदल जाती है।

1. नित्य प्रलय : वेंदांत के अनुसार जीवों की नित्य होती रहने वाली मृत्यु को नित्य प्रलय कहते हैं। जो जन्म लेते हैं उनकी प्रति दिन की मृत्यु अर्थात प्रतिपल सृष्टी में जन्म और मृत्य का चक्र चलता रहता है।

2. आत्यन्तिक प्रलय : आत्यन्तिक प्रलय योगीजनों के ज्ञान के द्वारा ब्रह्म में लीन हो जाने को कहते हैं। अर्थात मोक्ष प्राप्त कर उत्पत्ति और प्रलय चक्र से बाहर निकल जाना ही आत्यन्तिक प्रलय है।

3. नैमित्तिक प्रलय : वेदांत के अनुसार प्रत्येक कल्प के अंत में होने वाला तीनों लोकों का क्षय या पूर्ण विनाश हो जाना नैमित्तिक प्रलय कहलाता है। पुराणों अनुसार जब ब्रह्मा का एक दिन समाप्त होता है, तब विश्व का नाश हो जाता है। चार हजार युगों का एक कल्प होता है। ये ब्रह्मा का एक दिन माना जाता है। इसी प्रलय में धरती या अन्य ग्रहों से जीवन नष्ट हो जाता है।

नैमत्तिक प्रलयकाल के दौरान कल्प के अंत में आकाश से सूर्य की आग बरसती है। इनकी भयंकर तपन से सम्पूर्ण जलराशि सूख जाती है। समस्त जगत जलकर नष्ट हो जाता है। इसके बाद संवर्तक नाम का मेघ अन्य मेघों के साथ सौ वर्षों तक बरसता है। वायु अत्यन्त तेज गति से सौ वर्ष तक चलती है।

4. प्राकृत प्रलय : ब्राह्मांड के सभी भूखण्ड या ब्रह्माण्ड का मिट जाना, नष्ट हो जाना या भस्मरूप हो जाना प्राकृत प्रलय कहलाता है। वेदांत के अनुसार प्राकृत प्रलय अर्थात प्रलय का वह उग्र रूप जिसमें तीनों लोकों सहित महतत्त्व अर्थात प्रकृति के पहले और मूल विकार तक का विनाश हो जाता है और प्रकृति भी ब्रह्म में लीन हो जाती है अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड शून्यावस्था में हो जाता है। न जल होता है, न वायु, न अग्नि होती है और न आकाश और ना अन्य कुछ।

पुराणों अनुसार प्राकृतिक प्रलय ब्रह्मा के सौ वर्ष बीतने पर अर्थात ब्रह्मा की आयु पूर्ण होते ही सब जल में लय हो जाता है। कुछ भी शेष नहीं रहता। जीवों को आधार देने वाली ये धरती भी उस अगाध जलराशि में डूबकर जलरूप हो जाती है। उस समय जल अग्नि में, अग्नि वायु में, वायु आकाश में और आकाश महतत्व में प्रविष्ट हो जाता है। महतत्व प्रकृति में, प्रकृति पुरुष में लीन हो जाती है।

उक्त चार प्रलयों में से नैमित्तिक एवं प्राकृतिक महाप्रलय ब्रह्माण्डों से सम्बन्धित होते हैं तथा शेष दो प्रलय देहधारियों से सम्बन्धित हैं।

हिंदू धारणा यह है कि संपूर्ण ब्रह्मांड में निरंतर कहीं न कहीं नित्य या नैमित्तिक प्रलय चलता रहता है, इस दौरान अनेक धरतियाँ जन्मती और काल के गर्त में समा जाती हैं। जिस तरह प्रलय होता रहता है, उसी तरह नए-नए ब्रह्मांड भी सृजित होते रहे हैं ।

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श्रीमद्भागवत की मान्यता : हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि प्रलय का वक्त आने पर सौ साल तक बारिश नहीं होती। अन्न और पानी न होने से अकाल पड़ जाता है। सूर्य की भीषण गर्मी समुद्र, प्राणियों और पृथ्वी का रस सोख लेती है। इसे ही प्रतीक रूप में संकषर्ण भगवान के मुंह से निकलने वाली आग की लपटें बताया गया है। हवा के कारण यह आकाश से लेकर पाताल तक फैलती हैं।

इस प्रचण्ड ताप और गर्मी से पृथ्वी सहित पूरा ब्रह्माण्ड ही दहकने लगता है। इसके बाद गर्म हवा अनेक सालों तक चलती है। पूरे आसमान में धुंआ और धूल छा जाते हैं। जिसके बाद बने बादल आकाश में मण्डराते हुए फट पड़ते हैं। कई सालों तक भारी बारिश होती है।

इससे ब्रह्माण्ड में समाया सारा संसार जल में डूब जाता है। इस तरह पृथ्वी के गुण, गंध जल में मिल जाते हैं और पृथ्वी तबाह होकर अंत में जल में ही मिलकर जल रूप हो जाती है। इस तरह जल, पृथ्वी सहित पंचभूत तत्व जो इस जगत का कारण माने गए हैं, एक-दूसरे में समा जाते हैं और मात्र प्रकृति ही शेष रह जाती है।

महाभारत : महाभारत में कलियुग के अंत में प्रलय होने का जिक्र है, लेकिन यह किसी जल प्रलय से नहीं बल्कि धरती पर लगातार बढ़ रही गर्मी से होगा। महाभारत के वनपर्व में उल्लेख मिलता है कि सूर्य का तेज इतना बढ़ जाएगा कि सातों समुद्र और नदियां सूख जाएगी। संवर्तक नाम की अग्रि धरती को पाताल तक भस्म कर देगी। वर्षा पूरी तरह बंद हो जाएगी। सब कुछ जल जाएगा, इसके बाद फिर बारह वर्षों तक लगातार बारिश होगी। जिससे सारी धरती जलमग्र हो जाएगी। अनंत काल के बाद पुन: जीवन की शुरुआत होगी।

सात लोक की पौराणिक धारणा : पुराणों अनुसार सात लोक को मूलत: दो लोक में विभाजित किया गया हैं- 1कृतक लोक और 2.अकृतक लोक। कृतक लोक में ही प्रलय और उत्पत्ति का चक्र चलता रहता है अकृतक लोक समय और स्थान शून्य है।

सप्त लोक का वर्णन : सात लोक हैं जिसमें से तीन लोक 1.भू लोक (धरती), 2.भुवर्लोक (आकाश), 3.स्वर्लोक (अंतरिक्ष) में ही प्रयल होता है, जबकि 4.महर्लोक, 5.जनलोक, 6.तपलोक और 7.सत्यलोक- उक्त 4 लोक प्रलय से अछूते रहते हैं।

इनमें भी जो 'महर्लोक' हैं वह जनशून्य अवस्था में रहता है जहा आत्माएं स्थिर रहती हैं, यहीं पर महाप्रलय के दौरान सृष्टि भस्म के रूप में विद्यमान रहती है। यह लोग त्रैलोक्य और ब्रह्मलोक के बीच स्थित है।

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ब्राह्मांड का स्वरूप : यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी दस ‍गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से ‍आच्छादित है और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है।

वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहाँ तक प्रकाशित होता है वहाँ से यह दस गुना ज्यादा 'तामस अंधकार' से घिरा हुआ है और यह तामस अंधकार भी अपने से दस गुना ज्यादा महत्तत्व से घिरा हुआ है जो असीमित, अपरिमेय और अनंत है। उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है।

इसे इस तरह समझें : अनंत महत्तत्व से घिरा 'तामस अंधकार' और उससे ही घिरे 'आकाश' को स्थान और समय कहा गया है। इससे ही दूरी और समय का ज्ञान होता है। आकाश से ही वायुतत्व की उत्पत्ति होती है। वायु से ही तेज अर्थात अग्नि की और अग्नि से जल, जल से पृथ्‍वी की सृष्टि हुई। इस धरती पर जो जीवन है वह खुद धरती और आकाश का है।

सृष्टि का विभाजन या भेद :

( A) कृतक लोक :
कृतक त्रैलोक्य जिसे त्रिभुवन या मृत्युलोक भी कहते हैं। इसके बारे में पुराणों की धारणा है कि यह नश्वर है, कृष्ण इसे परिवर्तनशील मानते हैं। इसकी एक निश्‍चित आयु है। उक्त त्रैलोक्य के नाम हैं- भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक। यही लोक पाँच तत्वों से निर्मित है- आकाश, अग्नि, वायु, जल और जड़। इन्हीं पाँच तत्वों को वेद क्रमश: जड़, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय कोष कहते हैं।

(1) भूलोक : जितनी दूर तक सूर्य, चंद्रमा आदि का प्रकाश जाता है, वह पृथ्वी लोक कहलाता है, लेकिन भूलोक से तात्पर्य जिस भी ग्रह पर पैदल चला जा सकता है।

(2) भुवर्लोक : पृथ्वी और सूर्य के बीच के स्थान को भुवर्लोक कहते हैं। इसमें सभी ग्रह-नक्षत्रों का मंडल है।

(3) स्वर्गलोक : सूर्य और ध्रुव के बीच जो चौदह लाख योजन का अन्तर है, उसे स्वर्गलोक कहते हैं। इसी के बीच में सप्तर्षि का मंडल है।

( B) अकृतक लोक :
जन, तप और सत्य लोक तीनों अकृतक लोक कहलाते हैं। अकृतक त्रैलोक्य अर्थात जो नश्वर नहीं है अनश्वर है। जिसे मनुष्य स्वयं के सद्‍कर्मों से ही अर्जित कर सकता है। कृतक और अकृतक लोक के बीच स्थित है 'महर्लोक' जो कल्प के अंत के प्रलय में केवल जनशून्य हो जाता है, लेकिन नष्ट नहीं होता। इसीलिए इसे कृतकाकृतक लोक कहते हैं।

(4) महर्लोक : ध्रुवलोक से एक करोड़ योजन ऊपर महर्लोक है।
(5) जनलोक : महर्लोक से बीस करोड़ योजन ऊपर जनलोक है।
(6) तपलोक : जनलोक से आठ करोड़ योजन ऊपर तपलोक है।
(7) सत्यलोक : तपलोक से बारह करोड़ योजन ऊपर सत्यलोक है।

पुराण मानते हैं कि ईश्वर परायण आत्मा को प्रलय काल में संताप और दु:ख नहीं होता। पुराण कहते हैं कि इस परमेश्वर की सृष्टि में लाने वाला ब्रह्मा, पालने वाला विष्णु और ले जाने वाला शिव है। प्रलयकाल में सभी को शिव के समक्ष उपस्थित होना है।

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