जन्मपत्री दिखाकर ही धारण करें हीरा-2

अशुभ हीरे के लक्षण

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- पंडित बृजेश कुमार राय

( गतांक से आगे)
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ग्रहजन्य पीड़ा से भी मुक्ति दिलाने में हीरा सिद्ध प्रयोग है। यद्यपि ग्रहजन्य पीड़ा भी हीरा रासायनिक परिवर्तनों के द्वारा ही दूर करता है किन्तु यह पीड़ा दैविक होती है अतएव इसे दूसरी कोटि में रखा गया है। यदि जन्मपत्री में शुक्र छठे, आठवें या बारहवें अरिष्टकारी हों तो समानुपातिक त्रिकोणीय हीरा धारण करना चाहिए। यदि तृतीय एकादश में अरिष्टकारी हो तो शंक्वाकार हीरा धारण करना चाहिए।

यदि शुक्र ग्रह युद्ध में पराजित, पाप पीड़ित हो तो आयताकार किन्तु उत्तल हीरा धारण करने से आशातीत लाभ होता है। यदि शुक्र ग्रहयोग गत, भावसंधि गत होकर अनिष्ट कर रहा हो, तो हीरा एक तरफ अवतल और दूसरी तरफ उभरा हुआ गोल होना चाहिए। इसी प्रकार यदि शुक्र अष्टमेष, द्वादशेष या षष्ठेशयुक्त होकर पीड़ित हो तो इसके लिए निर्धारित रंग का हीरा धारण करना चाहिए। ये विविध प्रकार के हीरे मूल रूप में ही ऐसे मिलते हैं।

ध्यान रहे, वर्तमान समय में प्रचलन के अनुरूप व्यावसायिक तौर पर हीरे को तराशकर सौन्दर्य प्रसाधन के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है। और यदि इस प्रकार का हीरा 0.5 कैरेट का हुआ तो 'मंदभेसंक्रमणकाले' अर्थात्‌ लगभग तीन वर्ष में ही परिवार क्षय प्रारम्भ हो जाता है। यह प्रत्यक्ष होते देखा गया है। अतएव सर्वदा ही केवल स्वच्छ किया हुआ प्राकृतिक हीरा ही धारण करना चाहिए। शुभ हीरे के लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं-

' सर्वद्रव्याभेद्यः लध्वम्भसि तरति रश्मिवत्‌ सिनगधम्‌। तडिदनलषक्रचापोपमं च वज्रं हितायोक्तम्‌'। अर्थात्‌ जो हीरा किसी भी औजार से न काटा जा सके, हाथ में उठाने पर भारी व देखने में हलका (फैलाव वाला) महसूस हो, जल में उत्तम, उठी हुई किरणों से तैरता-सा प्रतीत हो, चमक हो, बिजली, अग्नि या इन्द्रधनुषी रंगत वाली झलक दिखती हो तो वह हीरा उत्तम होता है।

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इसी प्रकार अशुभ हीरे के लक्षण को भी निम्न प्रकार बताया गया है- हीरे के भीतर काक पद अर्थात कौए के पंजे के समान कई रेखाएँ हों, मक्खी जैसी आकृति हो, बाल (रेशा) हो, भीतर मिट्टी या किसी अन्य विजातीय पदार्थ का कण हो, पीछे बताए गए कोणों से दुगुने कोण हों, जला हुआ-सा प्रतीत हो, मैला लगे, कान्तिहीन (त्रस्त) व जर्जर लगे तो वह अशुभ होता है। जिस हीरे में बुलबुले हों, कोने टूटे या दरके हुए हों, चपटा हो, वासी के फल के समान लम्बोतरे हों तो उनका मूल्य पूर्वोक्त मूल्य (प्रभाव) से 1/8 भाग कम हो जाता है। अतएव सर्वदा हीरा मूल रूप में शुद्ध ही धारण करना चाहिए। ये विविध स्थानों पर विविध रूप-रंग में मूल रूप में ही प्राप्त होते हैं।

' वेणातटे विशुद्धं शिरीषकुसुमप्रभं च कौशलकम्‌। सौराष्ट्रकमाताम्रं कृष्णं सौर्पारकं वज्रम्‌।
ईषत्ताम्रं हिमवति मतंगजं वल्लपुष्पसंकाषम्‌। अपीतं च कलिंगे श्यामं पौण्ड्रेषु सम्भूतम्‌।'
अर्थात वेणा नदी (गोदावरी की सहायक वेण गंगा) के किनारे पर शुद्ध हीरे मिलते हैं। कोशल देश में पाया जाने वाला हीरा कुछ पीलापन लिए होता है। सौराष्ट्र का हीरा कुछ ताँबे के रंग का होता है। सौपरि देश के हीरे काले एवं हिमालय क्षेत्र के मामूली रक्तता के रंग वाले होते हैं। मतंग देश के हीरे कुछ क्रीम रंगत वाले, कलिंग के हीरे पीले तथा पौण्ड्र देश के हीरे साँवले होते हैं।

आचार्य वराह ने विविध आकार के हीरों की उपयोगिता निम्न प्रकार बताई है- सफेद, षटकोण हीरे के देवता इन्द्र हैं। काली रंगत वाले व सर्पमुख की आकृति वाले के यम देवता हैं। केले के तने की रंगत वाले हीरे के देवता विष्णु हैं। विष्णु दैवत हीरा सब दृष्टि से सुघड़ होता है। तिकोना-सा, स्त्री की भगना-सा के समान आकार वाला हीरा, वरुण देवता वाला है।

तिकोना, कनेर के फूल की रंगत वाला, बाघ की आँखों के समान रंग वाला हीरा अग्नि देव का है। जौ की आकृति वाला, अशोक के फूल के समान रंग वाला हीरा वायु देवता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि हर देवता के लिए पृथक-पृथक रंग एवं आकृति के हीरों को धारण करने के लिए बताया गया है। और इसके अनुपालन से अवश्य ही ग्रहजनित पीड़ा से मुक्ति मिल सकती है। 'युक्ति कल्पतरु' में यही बात बताई गयी है- ' ते ते यथापूर्वमतिप्रशस्ताः सौभाग्यसम्पत्तिविधानदायकाः'

इस प्रकार हम देखते हैं कि यदि प्रकृति ने अवांछित विविध विकार उत्पन्न किया है तो उनके निवारणार्थ उसने विविध उपाय एवं संसाधन भी उपलब्ध कराया है। इन संसाधनों में रत्न धारण एक विशेष महत्वपूर्ण उपाय है। किन्तु यहाँ यह बात निरन्तर ध्यान देने योग्य है कि रत्न हमेशा प्राकृतिक रूप में होने चाहिए।

तराशे हुए रत्न सौन्दर्य प्रसाधन की सामग्री तो हो सकते हैं, बाधा, विघ्न, अरिष्ट या विकार निवारण के काम नहीं आ सकते हैं। इसके विपरीत यदि उचित निदान किए बिना इनको धारण किया जाता है तो ये विविध कष्ट अवश्य उत्पन्न कर सकते हैं। नीलम, हीरा आदि अत्यन्त उग्र रेडियोधर्मी तथा अति संवेदनशील रत्न तो अति भयंकर उत्पात खड़े कर देते हैं। ( समाप्त)

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