रत्न क्या हैं, उन्हें कैसे करें जागृत?

रत्न, उपरत्न एवं प्रजातियां

Webdunia
- पंडित आर. के राय
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जितने भी रत्न या उपरत्न है वे सब किसी न किसी प्रकार के पत्थर है। चाहे वे पारदर्शी हो, या अपारदर्शी, सघन घनत्व के हो या विरल घनत्व के, रंगीन हो या सादे...। और ये जितने भी पत्थर है वे सब किसी न किसी रासायनिक पदार्थों के किसी आनुपातिक संयोग से बने हैं। विविध भारतीय एवं विदेशी तथा हिन्दू एवं गैर हिन्दू धर्म ग्रंथों में इनका वर्णन मिलता है।

आधुनिक विज्ञान ने अभी तक मात्र शुद्ध एवं एकल 128 तत्वों को पहचानने में सफलता प्राप्त की है। जिसका वर्णन मेंडलीफ की आधुनिक आवर्त सारणी ( Periodic Table) में किया गया है। किन्तु ये एकल तत्व है अर्थात् इनमें किसी दूसरे तत्व या पदार्थ का मिश्रण नहीं प्राप्त होता है। किन्तु एक बात अवश्य है कि इनमें कुछ एक को समस्थानिक ( Isotopes) के नाम से जाना जाता है।

प्राचीन संहिता ग्रंथों में जो उल्लेख मिलता है, उसमें एकल तत्व मात्र 108 ही बताए गए हैं। इनसे बनने वाले यौगिकों एवं पदार्थों की संख्या 39000 से भी ऊपर बताई गई हैं। इनमें कुछ एक आज तक या तो चिह्नित नहीं हो पाए है, या फिर अनुपलब्ध हैं। इनका विवरण, रत्नाकर प्रकाश, तत्वमेरू, रत्न वलय, रत्नगर्भा वसुंधरा, रत्नोदधि आदि उदित एवं अनुदित ग्रंथों में दिया गया है।

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महर्षि पाराशर एवं वराह मिहिर ने भी इसका संक्षिप्त विवरण अपने ग्रंथों में किया है, किन्तु इनकी संख्या असंख्य बताकर संक्षेप में ही उपसंहार कर दिया है।

उदाहरण के लिए हम एक रत्न मूंगा लेते है। इसकी 62 प्रजातियां हैं। किन्तु इनमें मात्र सात ही आज उपलब्ध है। हीरा की 39 प्रजातियां उपलब्ध हैं। नीलम की 65 प्रजातियां उपलब्ध हैं। जबकि इसकी प्रजातियां 400 से भी ऊपर बताई गई हैं। पुखराज की 24 प्रजातियां उपलब्ध है। इसी प्रकार एक-एक रत्नों की अनेक प्रजातियां उपलब्ध है, जो नाम में समान होने के बावजूद भी उनका गुण, प्रकृति, रंग एवं प्रभाव पृथक-पृथक है।

हम उदाहरण के लिए लहसुनिया ( Cat's Eye) को लेते है। इसे वैतालीय संहिता में प्राकद्वीपीय मणि भी कहा गया है। इसके अनेक भेद है। जैसे - अवन्तिका, विदारुक, बरकत, विक्रांत, परिलोमश, द्युतिवृत्तिका, नारवेशी, निपुंजवेलि आदि। प्रायः सीधे शब्दों में लहसुनिया को केतु का रत्न माना गया है। किन्तु ध्यान रहे, यदि केतु किसी अन्य ग्रह के प्रभाव में होगा तो यह लहसुनिया उस ग्रह के संयोग वाला होना चाहिए। कोई भी लहसुनिया हर जगह प्रभावी नहीं हो सकता। बल्कि इसका विपरीत प्रभाव भी सामने आ सकता है।
कज्जलपुंज, रत्नावली, अथर्वप्रकाश, आयुकल्प, रत्नाकर निधान, रत्नलाघव, Oriental Prism, Ancient Digiana तथा Indus Catalog आदि ग्रंथों में भी इसका विषद विवरण उपलब्ध है।

कुछ रत्न बहुत ही उत्कट प्रभाव वाले होते है। कारण यह है कि इनके अंदर उग्र विकिरण क्षमता होती है। अतः इन्हें पहनने से पहले इनका रासायनिक परिक्षण आवश्यक है। जैसे- हीरा, नीलम, लहसुनिया, मकरंद, वज्रनख आदि। यदि यह नग तराश ( cultured) दिए गए हैं, तो इनकी विकिरण क्षमता का नाश हो जाता है। ये प्रतिष्ठापरक वस्तु (स्टेट्‍स सिंबल) या सौंदर्य प्रसाधन की वस्तु बन कर रह जाते हैं। इनका रासायनिक या ज्योतिषीय प्रभाव विनष्ट हो जाता है।

कुछ परिस्थितियों में ये भयंकर हानि का कारण बन जाते हैं। जैसे- यदि तराशा हुआ हीरा किसी ने धारण किया है तथा कुंडली में पांचवें, नौवें या लग्न में गुरु का संबंध किसी भी तरह से राहु से होता है, तो उसकी संतान कुल परंपरा से दूर मान-मर्यादा एवं अपनी वंश-कुल की इज्जत डुबाने वाली व्यभिचारिणी हो जाएगी।

दूसरी बात यह कि किसी भी रत्न को पहनने के पहले उसे जागृत ( Activate) अवश्य कर लेना चाहिए। अन्यथा वह प्राकृत अवस्था में ही पड़ा रह जाता है व निष्क्रिय अवस्था में उसका कोई प्रभाव नहीं हो पाता है।

उदाहरण के लिए पुखराज को लेते हैं। पुखराज को मकोय (एक पौधा), सिसवन, दिथोहरी, अकवना, तुलसी एवं पलोर के पत्तों को पीस कर उसे उनके सामूहिक वजन के तीन गुना पानी में उबालिए। जब पानी लगभग सूख जाए तो उसे आग से नीचे उतारिए। आधे घंटे में उसके पेंदे में थोड़ा पानी एकत्र हो जाएगा। उस पानी को शुद्ध गाय के दूध में मिला दीजिए। जितना पानी उसके लगभग चौगुना दूध होना चाहिए। उस दूधयुक्त घोल में पुखराज को डाल दीजिए। हर तीन मिनट पर उसे किसी लकड़ी के चम्मच से बाहर निकाल कर तथा उसे फूंक मार कर सुखाइए और फिर उसी घोल में डालिए।

इस प्रकार आठ-दस बार करने से पुखराज नग के विकिरण के ऊपर लगा आवरण समाप्त हो जाता है तथा वह पुखराज सक्रिय हो जाता है।

इसी प्रकार प्रत्येक नग या रत्न को जागृत करने की अलग विधि है। रत्नों के प्रभाव को प्रकट करने के लिए सक्रिय किया जाता है। इसे ही जागृत करना कहते हैं।

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