श्री शनि देव जिन्हें छाया सुत भी कहा गया है संस्कृत में शनैश्चर के नाम से विख्यात हैं। सूर्यदेव की द्वितीय पत्नी छाया के गर्भ में शनि का जन्म हुआ माना जाता है। इन्हें एक राशि पर भ्रमण करने में लगभग 30 मास तथा राशि चक्र का पूर्ण भ्रमण करने में 30 वर्ष लगते हैं।
शनि को काल पुरुष का दुःख माना गया है, यह कृष्णवर्णी कृशाड्गी सुनयना, वृद्धावस्था वाले नपुंसक लिंगी, शुद्ध जातीय, रूक्ष केश एवं मोटे दाँत व नखयुक्त दुर्ग आकृति वाले द्विपादी (मतान्तर से चतुष्पादी) के रूप में ज्योतिर्विदों द्वारा चित्रांकित किए गए हैं। ग्रहमंडल में इन्हें सेवक का पद प्राप्त है, इनका गुण तामस एवं प्रकृतिवास है तथा अधिदेवता विरज्वि (ब्रह्मा) को माना गया है। पश्चिम दिशा के स्वामी एवं उसर भूमि इनका स्थान तथा ऋतुओं में शिशिर को अधिक बढ़ाता है एवं इनका क्रीड़ा स्थल कूड़ाघर, काल (समय) वर्ष प्रभावी रत्न नीलम है एवं उदय स्थल पृष्ठ भाग है।
संध्याकाल (मतान्तर से रात्रि) में ये विशेष बली होते हैं। इनकी वेदाभ्यास में रुचि न होकर ये दर्शनशास्त्र, कूटनीति एवं कानून के अध्येता हैं। इनका वाहन महिष तथा वार शनिवार माना जाता है। ये सूर्य से पराजित एवं पाप संज्ञीय माने जाते हैं। प्रतिनिधि पशु-कृष्ण अश्व (मतान्तर से महिष, बकरी) माना गया है।
अधिपत्य-शनि का हड्डी, पसली, मांसपेशी, पिंडली, घुटने, स्नायु, नख तथा केशों पर अधिपत्य माना गया है। यह लोहा, नीलम, सीसा, तेल, भैंसा, नाग, महिष, तिल, नमक, उड़द, वच तथा काले रंग की वस्तुओं के अधिपति हैं। ये कारागार, पुलिस, यातायात, ठेकेदारी, अचल-संपत्ति, जमीन, मजदूर, कल-कारखाने, मशीनरी, छोटे दुकानदार तथा स्थानीय संस्थाओं के कार्यकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।
जन्म लग्न में इनके शुभ स्थान हैं- 3, 6, 11। शनि आत्मा के कारक सूर्यग्रह के अधिनस्थ हैं। ये जातक को एहसास कराते हैं कि सत्य क्या है। ये पाप गृह होते हुए भी मनुष्य को दुःख रूपी अग्नि में तपाकर उसे कुंदन के भाँति निखारने तथा उसके कल्याण का मार्गदर्शन करने का कार्य करते हैं। इन्हें मोक्षदायी भी कहा गया है।
शनि सदैव मार्गी नहीं रहते हैं। समय-समय पर मार्गी तथा वक्री होते रहते हैं। शनि की स्वराशियाँ मकर तथा कुंभ हैं। ये तुला राशि में 20 अंश परम उच्चस्थ, मेष राशि के 20 अंश तक परमनीचस्थ तथा कुंभ राशि के 20 अंश तक मूल त्रिकोणस्थ माने जाते हैं। लग्न से सातवें भाव में तथा तुला, मकर एवं कुंभ राशि, दक्षिणायन, स्वन्द्रेष्काण, राश्यन्त तथा शनिवार को कृष्णपक्ष का वक्री शनि बलवान माना जाता है। बुध, शुक्र, राहू तथा केतु इनके नैसर्गिक मित्र हैं। गुरु के साथ यह समभाव रखते हैं।
जन्म कुंडली में शनि जिस भाव में बैठे होते हैं, वहाँ से तृतीय तथा दशम भाव को एकपाद दृष्टि से पंचम तथा नवम भाव को द्विपाद दृष्टि से, चतुर्थ तथा अष्टम भाव को त्रिपाद दृष्टि से, सप्तम, तृतीय एवं दशम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। मतान्तर से इनकी एकपाद दृष्टि नहीं होती यह बुध के साथ सात्विक व शुक्र के साथ राजस संबंध रखते हैं एवं सूर्य तथा चंद्रमा के साथ शत्रुवत व्यवहार करते हैं। इनकी गणना पाप ग्रहों में की जाती है। इन्हें सब ग्रहों से अधिक बलवान माना गया है।
शनि सप्तम स्थान में बलि होता है तथा किसी वक्री ग्रह अथवा चंद्रमा के साथ रहने पर चेष्टाबली होता है। इसे कर्म तथा व्यय भाव का कारक माना गया है। रात्रि में जन्म होने पर यह माता और पिता का भी कारक होते हैं। गंगा से हिमालय तक का प्रदेश इनका अधिकार क्षेत्र माना गया है। ये जातक के जीवन पर प्रायः 36 से 42 वर्ष तक की अवस्था में अपना विशेष प्रभाव प्रकट करते हैं।
इनकी साढ़े साती तथा अढ़ैया भी बड़ी प्रभावशाली होती है। गोचर में ये राशि संचरण के 6 मास पहले से ही अपना प्रभाव प्रकट करना आरंभ कर देते हैं। ये एक राशि में 30 माह रहते हैं तथा राशि के अंतिम भाग में पूर्ण फल देते हैं। शनिकृत दोष के निवारणार्थ नीलम धारण किया जाता है। इसके पहले आपको अवगत करा दूँ कि राशि मंडल की 12 राशियों में 27 नक्षत्र हैं ये 12 राशियों में विभक्त किए गए हर नक्षत्र के 4 चरण किए गए हैं। कुल 108 हुए और 9 चरण कि यानी, सवा दो नक्षत्र की एक राशि हुई, यह स्पष्टीकरण आप लोगों के सरलीकरण हेतु किया गया है।
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नक्षत्र-पुष्य अनुराधा एवं उत्तराभाद्रपद नक्षत्रों के निम्न चरण, जिनके स्वामी शनि हैं, कृतिका, आर्द्रा, अश्लेषा, उत्तराफाल्गुन, स्वाति, ज्येष्ठा, उत्तराषाढ़ा, शतभिषा व रेवती इन 9 (नौ) नक्षत्रों के दूसरे व तीसरे चरण के स्वामी शनि ग्रह हैं। कर्क, वृश्चिक एवं मीन इन तीन नक्षत्रों की राशि हैं, जिनके स्वामी शनि ग्रह हैं। वृष, मिथुन, कर्क, कन्या, तुला, वृश्चिक, मकर, कुंभ व मीन क्रम से ये वे राशियाँ हैं जिनके नक्षत्रों के चरणों के स्वामी शनिदेव हैं।
शनिदेव उपरोक्त नक्षत्र एवं चरणों में व उन राशियों में जिनके ये चरण व नक्षत्र हैं उनमें अपने भ्रमणचक्र के दौरान अच्छा प्रभाव नहीं देंगे तो अपना कुप्रभाव कभी नहीं छोड़ेंगे, क्योंकि शनिग्रह की निज राशि दो ही हैं मकर व कुंभ एवं उच्च राशि तुला, परंतु शनि जिन नक्षत्रों व चरणों के स्वामी हैं उन राशियों के स्वामी अलग-अलग हैं। जैसे कर्क राशि के चंद्र, वृश्चिक के मंगल व मीन के स्वामी गुरु। इसी प्रकार के चरणों वाली राशि स्वामी, शुक्र, बुध, चंद्र, मंगल, शनि व गुरु हैं।
शनिदेव पृथकतावादी ग्रह हैं, परंतु ये अपना प्रभाव कहाँ छोड़ेंगे, कहाँ नहीं यह भी समझना बहुत जरूरी है। ज्योतिर्विदों ने तीसरा भाव, छठा, सातवाँ, आठवाँ, दसवाँ एवं 11 भाव इन भावों में शनिदेव प्रभावशाली रहते हैं एवं लग्न में वृष, तुला, मकर व कुंभ राशि हो तो शनिदेव विशेष कारक होते हैं। सप्तम स्थान में (भाव) तो विशेष कारक होते ही हैं और उन्हीं भावों में दर्शाई गई राशियाँ आ जाएँ तो सोने में सुहागा वाली बात चरितार्थ हो जाती है।