ग्रहों की स्थिति का सटीक कथन

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- भारती पंडि त

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कुंडली द्वारा फलित कथन करते समय कुछ सामान्य नियमों की जानकारी होना भी आवश्यक है। उन्हीं के आधार पर ग्रहों के बलाबल का निर्णय लेकर सटीक कथन (फलादेश) किया जा सकता है।

- जो ग्रह शत्रु क्षेत्री, पापी अथवा अस्त हो, वे अशुभ फल प्रदान करते हैं। यदि पापी ग्रह स्वराशि के हों, उच्च हों या योगकारक ग्रह से संबंध करते हों, तो अशुभ नहीं होते।
- जो भाव न तो किसी ग्रह द्वारा देखा जा रहा हो, न ही उसमें कोई ग्रह बैठा हो तो उस भाव का फल मध्यम मिलता है।
- शुभ भावों के स्वामी ग्रह यदि मित्र क्षेत्री स्वग्रही, मूल त्रिकोणी या उच्च के हों तो भावों की वृद्धि करते हैं ।

- जो भाव अपने स्वामी से युक्त अथवा दृष्ट होता है, उसकी वृद्धि होती है।
- जो भाव किसी पापी ग्रह से युक्त या दृष्ट हो (6, 8, 12 को छोड़) उसकी हानि होती है।
- कोई ग्रह कुंडली में उच्च का हो, मगर नवांश में नीच या पापी हो, तो वह लग्नेश होने पर भी शुभ फल नहीं देता ।

- केंद्र व त्रिकोण के स्वामी शुभ होते हैं। इनका परस्परसंबंध योगकारक होता है। इनके संपर्क में आया अन्य ग्रह भी शुभफल प्रदान करता है।
- यदि भावेश लग्न से केंद्र, त्रिकोण या लाभ में हो तो शुभ होता है।
- यदि दुष्ट स्थान (6, 8, 12) का अधिपति ग्रह दूसरे दुष्ट स्थान में हो, तो शुभ फल देता है ।
  कुंडली द्वारा फलित कथन करते समय कुछ सामान्य नियमों की जानकारी होना भी आवश्यक है। उन्हीं के आधार पर ग्रहों के बलाबल का निर्णय लेकर सटीक कथन (फलादेश) किया जा सकता है।      


- अपने से आठवें स्थान में बैठा ग्रह अशुभ फल देता है।
- राहु-केतु त्रिकोण व लग्न में शुभ मगर द्वितीय या व्यय में अशुभ फल देते हैं।
- चतुर्थ स्थान में अकेला शनि (स्वराशि का नहीं) उत्तरकाल में बुरा फल देता है।

- अकेला गुरु जिस भाव में बैठता है, उसकी हानि करता है।
- स्वराशिस्थ ग्रह के साथ केतु हो, तो भाव-फल में वृद्धि होती है।
- राहु जिस भावपति के साथ होता है, जातक को उस भाव संबंधी फल आकस्मिक रूप से मिलते हैं।
- मंगल-शनि की युति-प्रतियुति जीवन में अस्थिरता लाती है।

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