मंत्र साधना के नियम एवं पालन

पं. सुरेन्द्र बिल्लौरे
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मंत्रों की शक्ति असीम है। यदि साधनाकाल में नियमों का पालन न किया जाए तो कभी-कभी बड़े घातक परिणाम सामने आ जाते हैं। प्रयोग करते समय तो विशेष सावधानी‍ बरतनी चाहिए। मंत्र उच्चारण की तनिक सी त्रुटि सारे करे-कराए पर पानी फेर सकत‍ी है। तथा गुरु के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन साधक ने अवश्‍य करना चाहिए।

साधक को चाहिए कि वो प्रयोज्य वस्तुएँ जैसे- आसन, माला, वस्त्र, हवन सामग्री तथा अन्य नियमों जैसे- दीक्षा स्थान, समय और जप संख्या आदि का दृढ़तापूर्वक पालन करें, क्योंकि विपरीत आचरण करने से मंत्र और उसकी साधना निष्‍फल हो जाती है। जबकि विधिवत की गई साधना से इष्‍ट देवता की कृपा सुलभ रहती है। साधना काल में निम्न नियमों का पालन अनिवार्य है।

* जिसकी साधना की जा रही हो, उसके प्रति पूर्ण आस्था हो।
* मंत्र-साधना के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति।
* साधना-स्थल के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ-साथ साधन का स्थान, सामाजिक और पारिवारिक संपर्क से अलग-अलग हो।
* उपवास प्रश्रय और दूध-फल आदि का सात्विक भोजन किया जाए तथा श्रृंगार-प्रसाधन और कर्म व विलासिता का त्याग आवश्यक है।
* साधना काल में भूमि शयन।
* वाणी का असंतुलन, कटु-भाषण, प्रलाप, मिथ्या वाचन आदि का त्याग करें और कोशिश मौन रहने की करें। निरंतर मंत्र जप अथवा इष्‍ट देवता का स्मरण-चिंतन आवश्‍यक है।

मंत्र साधना में प्राय: विघ्न-व्यवधान आ जाते हैं। निर्दोष रूप में कदाचित ही कोई साधक सफल हो पाता है, अन्यथा स्थान दोष, काल दोष, वस्तु दोष और विशेष कर उच्चारण दोष जैसे उपद्रव उत्पन्न होकर साधना को भ्रष्ट हो जाने पर जप तप और पूजा-पाठ निरर्थक हो जाता है। इसके समाधान हेतु आचार्य ने काल, पात्र आदि के संबंध में अनेक प्रकार के सावधानीपरक निर्देश दिए हैं।

मंत्रों की जानकारी एवं निर्देश

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1. यदि शाबर मंत्रों को छोड़ दें तो मुख्यत: दो प्रकार के मंत्र है- वैदिक मंत्र और तांत्रिक मंत्र। जिस मंत्र का जप अथवा अनुष्‍ठान करना है, उसका अर्घ्य पहले से लेना चाहिए। तत्पश्चात मंत्र का जप और उसके अर्घ्य की भावना करनी चाहिए। ध्यान रहे, अर्घ्य बिना जप निरर्थक रहता है।

2. मंत्र के भेद क्रमश: तनि माने गए हैं। 1. वाचिक जप 2. मानस जप और 3. उपाशु जप।

वाचिक जप- जप करने वाला ऊँचे-ऊँचे स्वर से स्पष्‍ट मंत्रों को उच्चारण करके बोलता है, तो वह वाचिक जप कहलाता है।
उपांशु जप- जप करने वालों की जिस जप में केवल जीभ हिलती है या बिल्कुल धीमी गति में जप किया जाता है जिसका श्रवण दूसरा नहीं कर पाता वह उपांशु जप कहलाता है।

मानस जप- यह सिद्धि का सबसे उच्च जप कहलाता है। जप करने वाला मंत्र एवं उसके शब्दों के अर्थ को एवं एक पद से दूसरे पद को मन ही मन चिंतन करता है वह मानस जप कहलाता है। इस जप में वाचक के दंत, होंठ कुछ भी नहीं हिलते है।
अभिचार कर्म के लिए वाचिक रीति से मंत्र को जपना चाहिए। शां‍‍‍ति एवं पुष्‍टि कर्म के लिए उपांशु और मोक्ष पाने के लिए मानस रीति से मंत्र जपना चाहिए।

3. मंत्र सिद्धि के लिए आवश्यक है कि मंत्र को गुप्त रखना चाहिए। मंत्र- साधक के बारे में यह बात किसी को पता न चले कि वो किस मंत्र का जप करता है या कर रहा है। यदि मंत्र के समय कोई पास में है तो मानसिक जप करना चाहिए।

4. सूर्य अथवा चंद्र ग्रहण के समय (ग्रहण आरंभ से समाप्ति तक) किसी भी नदी में खड़े होकर जप करना चाहिए। इसमें किया गया जप शीघ्र लाभदायक होता है। जप का दशांश हवन करना चाहिए। और ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। वैसे तो यह सत्य है कि प्रतिदिन के जप से ही सिद्धि होती है परंतु ग्रहण काल में जप करने से कई सौ गुना अधिक फल मिलता है।

विशेष : नदी में जप हमेशा नाभि तक जल में रहकर ही करना चाहिए।

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