रजः प्रवर्तिनी वटी

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गर्भाशय के दूषित होने पर कुछ स्त्रियों को मासिक ऋतुस्राव कम मात्रा में और अनियमित रूप से होता है। ऋतुस्त्राव के समय कष्ट होता है और तबीयत में सुस्ती और थकावट बनी रहती है।

इस स्थिति को कष्टार्तव या अल्पार्तव कहा जाता है। कई स्थूलकाय स्त्रियों के गर्भाशय और डिम्बाशय कठोर हो जाते हैं, जिससे उनको ऋतुस्राव कम मात्रा में होता है। इस स्थिति में उपचार के लिए आयुर्वेद का एक उत्तम योग प्रस्तुत है।

घटक द्रव्य : कासीस, सोहागे का फूला, भुनी हींग और एलुवा, सब सम भाग और आवश्यकता के अनुसार ग्वारपाठा (घीकुंआर) का रस।

निर्माण विधि : चारों द्रव्यों को कूट-पीसकर खरल में डाल लें और ग्वारपाठा (घीकुंअर) के रस में 6 घण्टे तक खरल करके 1-1 रत्ती की गोलियां बना लें।

सेवन विधि : 2-2 गोली सुबह शाम, गोरमुण्डी के काढ़े में साथ या सादे पानी के साथ सेवन कराएं। गोरमुण्डी के 10 ग्राम चूर्ण को चार कप पानी में डालकर उबालें। जब पानी एक कप बचे, तब उतारकर छान लें।

इस काढ़े को आधा-आधा सुबह-शाम अनुपान की जगह प्रयोग करें। इस काढ़े को ऋतु स्राव शुरू होने पर सेवन शुरू करें और 10 दिन तक सेवन कर बन्द कर दें। इस प्रकार तीन मास तक 10-10 दिन तक सेवन करना चाहिए।

लाभ : इस योग के सेवन से गर्भाशय के दोष दूर होते हैं और मासिक ऋतु स्राव नियमित समय पर और सामान्य मात्रा में होने लगता है। लाभ हो जाने पर दवा का सेवन बन्द कर देना चाहिए। यही योग 'कासीसादि वटी' भी कहलाता है। यह बना हुआ बाजार में मिलता है।

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