बच्चे हमें जिंदगी का खेल सिखाते हैं

बाल दिवस के बहाने एक छोटी-सी टिप्पणी

रवींद्र व्यास
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हमने अपने बच्चों को खेलते हुए देखना लगभग भुला दिया है। हम सब कुछ देखते है ं, बच्चों का खेल नहीं।

आखिर ऐसा क्या है बच्चों के इस खेलने मे ं?

आखिर ऐसा क्या ह ै, इसे खेलने में जो हमें देखना चाहि ए?

बच्चे हमारी दुनिया को पूरी तरह भुलाकर खेलते हुए अपनी एक सुंदर दुनिया की रचना कर लेते हैं। वे जब खेलते है ं, उन्हें अपनी भूख-प्यास की कतई चिंता नहीं रहती। वे लगभग अपनी भूख-प्यास को भुलाकर खेलते हैं। यह मगन रहना ह ै, अपनी दुनिया में। वे अपनी आड़ ी- तिरछी लाइनों को बनाएँगे तो इतना मगन होकर कि वह उनके आनंद में बदल जाती है। उनमें कोई आकांक्षा नही ं, महत्वाकांक्षा नही ं, बल्कि बनाने का आनंद है।

क्या हम मगन रहते हुए यह आनंद हासिल कर पा रहे है ं?

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बच्चे हमारी पूरी दुनिया भुलाकर अपनी सुंदर दुनिया की रचना कर लेते हैं। आप उन्हें देखिए। उनका खेल देखिए। वे एक-दूसरे का हाथ थामे खेलते हैं। कई ऐसे खेल हैं बच्चों के जो वे एक-दूसरे का हाथ थामकर खेलते हैं। उनमें सहज विश्वास होता है कि वे एक-दूसरे का हाथ थामे पकड़े रहेंगे। कभी छोड़ेंगे नही ं?

क्या हम एक-दूसरे का सहज ही हाथ थामे है ं?

बच्चे हमारी पूरी दुनिया भुलाकर अपनी सुंदर दुनिया की रचना कर लेते हैं। वे खेलते हैं तो सिर्फ खेलते हैं। आगे और पीछे का सब भुलाकर। वे सिर्फ उसी क्षण में होते हैं। वर्तमान के क्षण में। वही उनका ह ै, उसी में वे होते हैं। पूरी तरह। सब कुछ भुलाकर। वे न पीछे का सोचते हैं और न ही आगे का। वे सिर्फ अभी और अभी के घर में रहते हैं। वे अभी को जीते हैं। वे वर्तमान में रहते हैं।

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हम हैं कि या तो अतीत में जीत े- मरते हैं या फिर भविष्य में जीत े- मरते हैं। क्या हम वर्तमान में जीते है ं?

बच्चे हमारी दुनिया को पूरी तरह भुलाकर अपनी सुंदर दुनिया की रचना कर लेते हैं। उन्हें खेलते देखिए। वे उछलते है ं, कूदते है ं, गिरते है ं, पड़ते है ं, अपनी धूल पोंछकर उठ खड़े होते हैं। कोई रगड ़, कोई खरोंच उनके उत्साह और उमंग की लहर को उठने से नहीं रोकती।

हम अपने एक ही जख्म को जिंदगीभर पाले रहते उदास बने रहते है ं?

हम सचमुच बच्चों का खेल देखना भूल गए है ं?
इस बाल दिवस पर क्या हमें बच्चों का खेल फिर से देखना शुरू नहीं करना चाहि ए? वे हमें जिंदगी का असल खेल खेलना सिखाते हैं।
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