जब लेहमन ब्रदर्स दिवालिया हुआ

Webdunia
- नलिन कुमार (लंदन स े)

BBC
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था में सितंबर 2008 में आए भूचाल को एक साल हो गया है। निर्यात गिरने और विकास दर घटने के बावजूद चाहे भारत पर इसका उतना बुरा असर नहीं पड़ा है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था अब भी वित्तीय संकट के असर से उबर नहीं पाई है। अमेरिका से ठीक एक साल पहले शुरू हुए उस वित्तीय भूचाल पर नजर डाले तो विश्व के अगस्त 2007 से ही नकदी के संकट में फँसते चले जाने के सबूत थे। लेकिन इसने सही मायने में पिछले साल सितंबर में विकराल रूप लिया।

शुरुआत हुई सात सितंबर को होम-लोन का कारोबार करने वाले अमेरिकी वित्तीय संस्थानों फेनी में और फ्रेडी मैक को सरकारी नियंत्रण में लिए जाने से, और पूरे सप्ताह लेहमन ब्रदर्स के भविष्य को लेकर आशंकाएँ बनी रहीं। अंतत: 14 सितंबर की देर रात लेहमन ब्रदर्स दिवालिया घोषित होने वाली सबसे बड़ी अमेरिकी कंपनी बन गई। लेहमन ब्रदर्स के पतन के बाद वैश्विक वित्त व्यवस्था ने एक अनिश्चित राह पकड़ ली, और साल भर बाद भी संकट के बादल नहीं छँटे हैं।

फेडेरल नेशनल मॉरगेज एसोसिएशन यानी फेनी में और फेडेरल होम लोन मॉरगेज कॉरपोरेशन यानि फ्रेडी मैक सरकार समर्थित वित्तीय संस्थान है। जिस समय इन पर संकट आया अमेरिका के होम-लोन बाजार का करीब आधा हिस्सा इन दोनों के पास था।

अमेरिका में रह रहे अर्थशास्त्री और विश्व बैंक के पूर्व उपाध्यक्ष शाहिद जावेद बर्की ने इनके कामकाज के तरीके के बारे में बताया, 'ये दोनों संस्थान कॉमर्शियल बैंकों द्वारा वितरित होम-लोन को खरीदते हैं। उनको फिर नया रूप देकर बीमा कंपनियों या दीर्घावधि के निवेश में इच्छुक अन्य वित्तीय संस्थानों को आगे बेचते हैं। इस तरह से ये कॉमर्शियल बैंकों के लिए सेंकेंडरी मार्केट उपलब्ध कराते हैं। फेनी में छोटे होम-लोन को ख़रीद कर उन्हें मिलाकर बड़े निवेश उत्पाद के रूप में बेचता है, जबकि फ्रेडी मैक बड़े ऋण को लेकर ऐसा ही काम करता है।'

सरकारी सहायता : जब अमेरिका की हाउसिंग मार्केट में संकट आया और घरों के दाम तेजी से गिरने शुरू हुए और बैंकों को नकदी के संकट का सामना करना पड़ा तो फेनी मे और फ्रेडी मैक के लिए अपने पैरों पर खड़ा रहना मुश्किल हो गया। दोनों ही बैंक रोजाना लाखों डॉलर की दर से धन गँवा रहे थे।

ऐसे में अमेरिकी सरकार और अमेरिकी केंद्रीय बैंक तुरंत हरकत में आए। तत्कालीन वित्त मंत्री हेनरी पॉलसन ने सरकारी खजाने से 200 अरब डॉलर की नकदी दे कर फेनी में और फ्रेडी मैक को दिवालिया होने से बचाने की सरकार की मजबूरी के बारे में कहा था, 'ये संकट सीधे-सीधे आम अमेरिकी परिवार पर बुरा असर डालेगा। परिवार के बजट, घरों की कीमत, बच्चों की पढ़ाई और सेवानिवृति के बाद के दिनों के लिए बचा कर रखे गए धन...ये सब प्रभावित होंगे। यदि इन दो बैंकों को बचाया नहीं गया तो आम अमेरिकी परिवारों और व्यवसायों को ऋण मिलना मुश्किल हो जाएगा। और अंतत: इससे अमेरिका का आर्थिक विकास प्रभावित होगा, बेरोजगारी बढ़ेगी।'

दो बड़े बैंकों को सरकारी जीवन-धारा दिए जाने पर अमेरिकी बैंकों और वित्तीय संस्थानों ने तो राहत की साँस ली ही, चीन और जापान जैसे देशों ने भी इस त्वरित कार्रवाई के लिए अमेरिकी सरकार की तारीफ की थी। दरअसल फेनी में और फ्रेडी मैक को सरकारी समर्थन मिले होने के कारण इन देशों ने भी इसमें बड़ा निवेश कर रखा था।

वित्त बाजार में भूचाल : लेकिन फ्रेडी मैक और फेनी मे को बचाए जाने के बाद भी वित्तीय संकट की स्थिति और भयानक होती जा रही थी। अमेरिका के बड़े निवेश बैंकों में से एक लेहमन ब्रदर्स के पाँव डगमगा रहे थे। लेकिन पूर्व में बेअर स्टर्न्स बैंक को सहारा देने वाली अमेरिकी सरकार ने लीमैन ब्रदर्स को सहारा देने से इनकार कर दिया।

लेहमन ब्रदर्स
बेअर स्टर्न्स और मेरिल लिंच के दूसरे अमेरिकी बैंकों के हाथों में चले़ जाने, और लेहमन ब्रदर्स के दिवालिया घोषित होने के साथ ही, पूँजीवाद के पोस्टर-ब्वॉय माने जाने वाले निवेश बैंकों की कार्य-प्रणाली पर ही सवालिया निशान उठने लगा।
अंतत: 15 सितंबर की सुबह लेहमन ब्रदर्स के दिवालिया घोषित होने की खबर ने न सिर्फ अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया के वित्तीय बाजार में भूचाल ला दिया। ये सिर्फ एक प्राइवेट निवेश बैंक की ही नाकामी नहीं थी, बल्कि इसने पूँजीवाद के सात दशकों से प्रचलित स्वरूप पर ही सवालिया निशान लगा दिया।

उसी हफ्ते मीडिया में सामने आई जानकारी के अनुसार अमेरिका सरकार लेहमन ब्रदर्स को बचाना तो चाहती थी, लेकिन पूरे मन से उसने इसकी कोशिश नहीं की। आखिर पूँजीवाद के एक प्रतीक को क्यों नहीं बचाया जा सका?

ब्रिटेन के क्रेनफील्ड स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के प्रोफेसर सुनील पोशाकवाले ने इस बारे में बताया, 'जब लेहमन ब्रदर्स पर संकट आया तो हेनरी पॉल्सन को उम्मीद थी कि पिछली बार बेअर स्टर्न्स को जैसे अमेरिकी बैंकों की मदद से बचा लिया गया था, उसी तरह इस निवेश बैंक को भी बचा लिया जाएगा। लेकिन जब उन्हें अहसास हुआ कि ऐसा संभव नहीं है, तो उन्होंने ब्रिटेन के बार्कलेज बैंक से संपर्क किया।'

' समस्या ये थी कि बार्कलेज संपूर्ण लेहमन ब्रदर्स में नहीं बल्कि उसकी अच्छी परिसंपत्तियों मात्र में दिलचस्पी ले रहा था, जबकि पॉल्सन इसके खिलाफ थे। इसी तरह ब्रिटेन की सरकार और वित्तीय नियामक संस्थाओं की माँग थी कि लीमैन ब्रदर्स का बार्कलेज द्वारा अधिग्रहण की बात आगे बढ़े इससे पहले अमेरिका सरकार पूरे सौदे को किसी न किसी तरह की गारंटी दे। दोनों ही बातें संभव नहीं हो पाई, और लीमैन ब्रदर्स का दिवाला निकल गया।'

निवेश बैंकों की कार्य प्रणाली : बेअर स्टर्न्स और मेरिल लिंच के दूसरे अमेरिकी बैंकों के हाथों में चले़ जाने, और लेहमन ब्रदर्स के दिवालिया घोषित होने के साथ ही, पूँजीवाद के पोस्टर-ब्वॉय माने जाने वाले निवेश बैंकों की कार्य-प्रणाली पर ही सवालिया निशान उठने लगा। आखिर क्यों बिखर गई निवेश बैंकों की दुनिया?

लंदन में एबीएन एमरो बैंक से जुड़े निवेश बैंकर रवीन्द्र राठी ने इस बारे में बताया, 'निवेश बैंकों का मॉडल काफी जटिल हो गया था। उनकी फाइनेंसिंग की टाइमिंग भी ठीक नहीं थी। वो अल्पावधि की फंडिंग और दीर्घावधि का निवेश कर रहे थे। इसके साथ-साथ बैलेंसशीट से बाहर ऐसे कई तरह के निवेश थे जिनकी बहुत ही जटिल सीडीओ के अंतर्गत ट्रेडिंग होती थी। इसके भी ऊपर सीडीएस जैसे और ज्यादा जोखिम वाले उपक्रम थे।'

' कई सालों से जारी कम ब्याज दर के वातावरण में प्रचूर मात्रा में ऋण उपलब्ध हो गया। जो कर्ज चुका पाने की स्थिति में किसी तरह से नहीं थे उन्हें मनचाही मात्रा में ऋण मिल रहा था। हाउसिंग सेक्टर में कीमतों में बेतहाशा तेज़ी आती जा रही थी। निवेश बैंक भी इनमें डूबते जा रहे थे। दोष नियामक संस्थाओं का भी था। या तो उनके पास जटिल निवेश उपक्रमों को समझने वाले लोग नहीं थे, या उनके पास इन सबके लिए समय नहीं था।'

भारत पर ज्यादा बुरा असर नहीं : लेहमन ब्रदर्स के दिवालिया घोषित होने से पूरी दुनिया के वित्तीय बाजार हिल गए। शेयर सूचकांक गोते लगा रहे थे। कई शेयर बाजारों में तो ऐहतियातन कारोबार बंद कर दिया गया। भारत का सेन्सेक्स सूचकांक भी 3.35 प्रतिशत नीचे बंद हुआ। बैंकिंग समेत तमाम सेक्टर के शेयर जमीन छूते नजर आए। लेकिन अगले कुछ दिनों में भारत की वित्तीय व्यवस्था पर उतना बुरा असर नहीं पड़ा।

मुंबई स्थित बैंकिंग क्षेत्र के विशेषज्ञ विनीत गुप्ता के अनुसार ऐसा भारतीय वित्त व्यवस्था के अंतरराष्ट्रीय वित्त व्यवस्था से पूरी तरह जुड़े नहीं होने के कारण ही हो पाया। उन्होंने कहा, 'कई अंतरराष्ट्रीय मानकों को पूरा करने के बाद भी भारतीय बैंक कहीं ज्यादा कड़े नियमों के अधीन काम करते हैं। इस कारण अमेरिका, ब्रिटेन या अन्य कई पश्चिमी देशों के बैंकिंग सेक्टर की तरह यहाँ संकट देखने को नहीं मिला।'

उन्होंने कहा, 'लेहमन ब्रदर्स के दिवालिया घोषित होने के बाद दुनिया के कई देशों में बैंकों के सरकारी शरण में जाने को देखते हुए इतना जरूर हुआ कि स्टेट बैंक और आईसीआईसीआई बैंक जैसे भारतीय बैंकों ने अपनी अंतरराष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को अभी ठंडे बस्ते में डालना ही उचित समझा है। अब वे बेलगाम विस्तार के बारे में बिल्कुल नहीं सोचेंगे। रिजर्व ने कुछ नए ऐहतियाती निर्देश जारी किए। ये सब भारत के बैंकिंग सेक्टर के लिए अच्छी बात ही है।'

पिछले सप्ताहांत लंदन में ही जी-20 देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संकट के एक साल पूरे होने पर स्थिति की समीक्षा की गई। सहमति बनी कि वित्तीय संकट से निपटने के लिए सरकारी हस्तक्षेप की नीति को अभी जारी रखा जाए। मतलब बुरे कर्ज को सरकारी खाते में डालने, बैंकों को धराशाई होने से बचाने और भारी मात्रा में करेंसी छापने जैसे प्रयासों को अभी चालू रखा जाए।

यानी वित्तीय संकट के लगातार कम होते जाने और अर्थव्यवस्था के पटरी पर वापस लौटने के कुछ संकेत दिख रहे हैं, लेकिन मामला पूरी तरह संभले, इसके लिए अभी लंबा इंतजार करना पड़ सकता है।

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