संडे के संडे: साइना नेहवाल के साथ

- प्रतीक्षा घिल्डियाल (दिल्ली से)

Webdunia
BBC
दुनिया की नंबर छह की बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल का मानना है कि ओलिम्पिक में क्वार्टर फाइनल में पहुँचना उनके लिए सपने के सच होने जैसा रहा और इससे मिले आत्मविश्वास के बाद ही वे इंडोनेशियन ओपन जीतने में कामयाब रहीं।

बीबीसी के विशेष कार्यक्रम 'संडे के संडे' में साइना ने कहा, 'ओलिम्पिक के बाद सब कुछ बदल गया। मैं जिस किसी भी टूर्नांमेंट में खेलती थी, तमाम मीडिया की नज़र मुझ पर होती थी।'

बेहद विनम्र साइना मानती हैं कि हर टूर्नामेंट में सफलता के बाद अच्छे प्रदर्शन का दबाव भी बढ़ जाता है, लेकिन अब उन्हें पहले जैसी घबराहट नहीं होती। जब आप शीर्ष दस खिलाड़ियों में होते हैं तो घबराहट तो होती ही है, लेकिन इस पर नियंत्रण रखना होता है। जब लगातार जीत मिलती है तो जीत की कुछ आदत-सी पड़ जाती है।

उनके पिता की प्रमोशन पोस्टिंग जब हरियाणा से हैदराबाद हुई तो साइना का बैडमिंटन से लगाव कुछ बढ़ गया। नौ साल की उम्र में बैडमिंटन रैकेट थामने वाली साइना कहती हैं, 'यहाँ पुलेला गोपीचंद जैसे कई अच्छे खिलाड़ी खेलते थे। एसएम आरिफ कोचिंग देते थे। मैंने 1999 में समर कैंप में प्रशिक्षण लेना शुरू किया और फिर राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना शुरू किया।'

गुरु गोपीचंद : बैडमिंटन को अपना करियर बनाने के लिए सानिया को कुछ समझौते भी करने पड़े और उनकी पढ़ाई भी पूरी नहीं हो सकी, लेकिन इरादों की पक्की साइना को इसका गम नहीं है।

वो कहती हैं, 'कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। जब मैं बारहवीं में थी तो ओलिम्पिक के चलते मैं परीक्षा नहीं दे सकी। मुझे इसका अफसोस भी नहीं है। मैं चाहती थी कि ओलिम्पिक में भारत का प्रतिनिधित्व करूँ और अच्छी बात ये रही कि मैं क्वार्टर फाइनल में भी पहुँची। साइना अब पूरा ध्यान अपने खेल पर दे रही हैं और उन्हें यकीन है कि वे जिस तरह से मेहनत कर रही हैं, आने वाले टूर्नामेंटों में वे और बेहतर नतीजे देंगी।

साइना अपने कोच पुलेला गोपीचंद से सबसे अधिक प्रभावित हैं और वे पिछले पाँच साल से उनसे प्रशिक्षण ले रही हैं। साइना जब 11 साल की थी तब उन्होंने गोपीचंद को ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप जीतते देखा था और तभी उन्होंने अपना सपना ओलिम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने का बना लिया था।

साइना कहती हैं, 'मैं उनके साथ चार-पाँच साल से हूँ। वो जितने अच्छे खिलाड़ी थे, उतने ही अच्छे कोच भी हैं। मेरी गलतियों को तुरंत पकड़ लेते हैं और इन्हें सुधारने में मदद करते हैं। मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। दो-तीन साल पहले मैं 200-300 नंबर की खिलाड़ी थी और अब मेरी वर्ल्ड रैंकिंग आठ है।'

संयोग ही है कि 2009 में जहाँ साइना को अर्जुन पुरस्कार से नवाजा गया, वहीं पुलेला को भी द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया। खुद को और अपने कोच को मिले सम्मान पर साइना कहती हैं, 'ये बहुत स्पेशल था। हम दोनों ने इसके लिए बहुत मेहनत की, लेकिन इन अवॉर्ड्स से हम पर और अधिक ज़िम्मेदारी भी आ गई है।'

किसी ऐसे वाकये के बारे में पूछे जाने पर जब गोपीचंद ने उन्हें ज़बर्दस्त डांट लगाई हो, साइना कहती हैं, 'ओलिम्पिक के दौरान मेरे पैर में मोच आ गई थी, लेकिन मैंने कोच को ये नहीं बताया था। मैं ठीक से प्रेक्टिस नहीं कर रही थी तो उन्होंने मुझे ज़बर्दस्त डांट लगाई।'

क्रिकेट से तुलना बेमानी : क्रिकेट के जुनून वाले इस देश में बैडमिंटन की इससे तुलना करने पर साइना हँस देती हैं। वे कहती हैं, 'क्रिकेट की बैडमिंटन से तुलना करना ही बेमानी है। क्रिकेट टीम गेम है जबकि बैडमिंटन व्यक्तिगत।' हालाँकि उनका मानना है कि बैडमिंटन की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए शीर्ष स्तर पर लगातार अच्छा प्रदर्शन करना होगा।

वैसे साइना खुद भी क्रिकेट पसंद करती हैं और डेक्कन चार्जर्स की प्रशंसक हैं। वो कहती हैं, 'मैं डेक्कन चार्जर्स के तकरीबन सभी खिलाड़ियों से मिल चुकी हूँ। गिलक्रिस्ट और साइमंड्स से मुलाक़ात ख़ासी दिलचस्प रही। गिलक्रिस्ट को जब ये पता लगा कि मैं दुनिया की छठे नंबर की खिलाड़ी हूँ तो उन्हें बहुत अच्छा लगा।'

शुरुआत में उन्हें जब कुछ लोग सानिया कहकर बुलाते थे तो कैसा लगता था? साइना कहती हैं, 'पहले-पहले मुझे इससे चिढ़ होती थी, लेकिन ओलिम्पिक और इंडोनेशियन ओपन के बाद हालात बदल गए हैं। अब अधिकतर लोगों को पता है कि साइना बैडमिंटन खिलाड़ी है और सानिया टेनिस खिलाड़ी।'

इतनी कम उम्र में इतनी सफलता वे कैसे पचा पाती हैं? साइना कहती हैं, 'मैं सफलता के पीछे नहीं भागती। बस मेहनत करती हूँ। मुझे यही सिखाया गया है कि मेहनत करूँगी तो सफलता तो मिलेगी ही। मेरा मानना है कि एक टूर्नामेंट जीतने के बाद दूसरा जीतने के लिए और मेहनत करनी होगी।'

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