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लोकसभा चुनाव 2019: रामदेव ने इस चुनाव में क्या अपना सियासी आसन बदल लिया

हमें फॉलो करें लोकसभा चुनाव 2019: रामदेव ने इस चुनाव में क्या अपना सियासी आसन बदल लिया
, सोमवार, 8 अप्रैल 2019 (16:46 IST)
- दिनेश उप्रेती (हरिद्वार से)
 
वैसे तो रामदेव योग गुरु हैं लेकिन वो सियासी आसन करना भी बख़ूबी जानते हैं। वक़्त के हिसाब से फिट रहने के लिए कौन सा 'सियासी' आसन कब करना है, इसमें उन्हें महारथ हासिल है। पांच साल पहले जब तमाम राजनीतिक पंडित सीटों के गुणा-भाग में उलझे थे, तब रामदेव खुलकर बीजेपी के पक्ष में न केवल खड़े थे, बल्कि चुनावी प्रचार में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।
 
 
आम चुनावों से लगभग एक साल पहले 31 मार्च 2013 को जयपुर में एक संवाददाता सम्मेलन में रामदेव ने कहा था कि अगर बीजेपी को सत्ता में आना है तो उन्हें नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश करना चाहिए।
 
 
रामदेव ने कहा था, "अगर बीजेपी अगले लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश करती है और अपनी प्राथमिकताएं बदलती है तो उसके लिए कुछ संभावनाएं बनती हैं।"
 
 
फिर उन्होंने बीजेपी को समर्थन देने के लिए भी उनके नेताओं से कई 'आसन' भी करवाए। नितिन गडकरी ने रामदेव के पैर छूकर आशीर्वाद लिए तो चुनाव से कुछ दिन पहले राजधानी दिल्ली में एक महोत्सव के दौरान नरेंद्र मोदी ने रामदेव के साथ मंच पर हाथ उठाकर गीत गाते नज़र आए।
 
 
फिर मंच से रामदेव ने अपने समर्थकों से 'मोदी को वोट देने और दूसरों को भी उन्हें ही वोट देने के की अपील की थी। सत्ता में आने के बाद रामदेव को हरियाणा सरकार ने अपना ब्रैंड अंबेसडर बनाते हुए कैबिनेट मंत्री का दर्जा भी दिया। योग में रामदेव कई आसन करते हैं उसी तरह से राजनीति में भी वो आसन बदलना जानते हैं।
 
 
पिछले साल दिसंबर के आख़िरी हफ़्ते में मदुरई में उन्होंने कहा कि कुछ नहीं कहा जा सकता कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा। (अभी पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे आए दो हफ़्ते ही हुए थे, जिसमें भाजपा तीन बड़े राज्य छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में सत्ता से बाहर हो गई थी)
 
 
ज़ाहिर है रामदेव अब नब्बे के दशक के सिर्फ़ योग बाबा नहीं रहे, उनका पतंजलि आयुर्वेद का हज़ारों करोड़ रुपए का कारोबार है। यानी लंबी दाढ़ी और भगवा कपड़ा लपेटे बाबा योगी के अलावा अब अरबपति कारोबारी भी हैं। हरिद्वार से लगभग 25 किलोमीटर दूर रामदेव का साम्राज्य सड़क के दोनों ओर कई एकड़ में फैला हुआ है। स्कूल, अस्पताल, दवा बनाने की फैक्ट्री। ये एक टाउनशिप सी है।
 
 
मदुरई में उस संवाददाता सम्मेलन में रामदेव ने कहा, "अभी राजनीतिक स्थिति बेहद कठिन है। हम नहीं कह सकते कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा या इस देश का नेतृत्व कौन करेगा। लेकिन, स्थिति बहुत रोचक है।"
 
 
उन्होंने ये भी कहा कि वो अब 'सर्वदलीय भी हैं और निर्दलीय' भी। तो क्या रामदेव ने सियासी आसन का त्याग कर दिया है या फिर बेहद चतुर कारोबारी की तरह बाबा ने समय की नज़ाकत को भांपते हुए 'न काहू से दोस्ती न काहू से बैर' वाला फॉर्मूला अपना लिया है।
 
 
रविवार को यही जानने के इरादे से मैं पतंजलि योगपीठ में रामदेव से मिला। योग की क्लास लेने के बाद सुबह सात बजे से ही रामदेव के बैठकों के दौर शुरू हो गए। करीब दो घंटे के इंतज़ार के बाद बाबा ने मुझसे कहा, "आप तो राजनीति पर बात करोगे और मैं अभी इस पर कुछ नहीं बोलूंगा।"
 
 
तो क्या आप इस बार बीजेपी और नरेंद्र मोदी का समर्थन नहीं कर रहे हैं? रामदेव का जवाब था, "फिर कभी बात करें। प्लीज़"
 
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तो ऐसा क्या हो गया जो रामदेव राजनीति से तौबा कर रहे हैं और पांच साल पहले भाजपा के लिए खुलकर प्रचार करने वाले बाबा को अब चुप्पी साधनी पड़ रही है। क्या बीजेपी के लिए बाबा की ज़रूरत अब ख़त्म हो गई है या फिर क्या बाबा एक कुशल कारोबारी की तरह अपने सभी विकल्प खुले रखना चाहते हैं?
 
 
वरिष्ठ पत्रकार राजेश शर्मा कहते हैं कि बाबा रामदेव ने 2014 में काले धन को लेकर ज़ोर-शोर से अभियान चलाया था और अपने अनुयायियों से ये कहते हुए मोदी को वोट देने को कहा था कि उनकी सरकार विदेशों से काला धन भारत लाएगी, लेकिन मोदी सरकार इस मोर्चे पर ख़ास कुछ नहीं कर सकी। उनकी परेशानी ये है कि वो इस मुद्दे पर अपने अनुयायियों को कैसे समझाएं?
 
 
शर्मा कहते हैं, "रामदेव के वैदिक शिक्षा बोर्ड के प्रस्ताव को स्वीकार कर भाजपा ने एक तरह से उन्हें मनाने की कोशिश भी की है।"
 
 
शहर के एक और पत्रकार पीएस चौहान कहते हैं, "इस बार बाबा के पास मोदी के पक्ष में बात करने के लिए हाई मोरल ग्राउंड नहीं बचा है। काला धन पर कोई काम नहीं हुआ। दूसरे, ये भी लगता है कि रामदेव क्योंकि अब कारोबारी भी हैं, इसलिए अभी के राजनीतिक माहौल को देखते हुए वो कोई साइड नहीं लेना चाहते।"
 
 
फिर नोटबंदी और जीएसटी जैसे मोदी सरकार के फ़ैसलों ने कारोबारियों पर असर डाला और रामदेव की पतंजलि आयुर्वेद भी इनके असर से नहीं बच सकी थी। पतंजलि ने 2018 में आय, मुनाफ़े के आंकड़े तो नहीं दिए, लेकिन कहा कि कंपनी की आय तकरीबन पिछले साल यानी वित्त वर्ष 2017 के बराबर ही रही।
 
 
वित्त वर्ष 2017 में पतंजलि आयुर्वेद की आमदनी 10,561 करोड़ रुपए थी, जो कि उससे पिछले साल के मुक़ाबले दोगुने से अधिक थी। बालकृष्ण ने माना था कि नोटबंदी और जीएसटी का 'थोड़ा बहुत असर' पतंजलि पर भी हुआ है। हालांकि उनकी दलील थी कि ग्रोथ का आंकड़ा इसलिए कम रहा, क्योंकि पतंजलि का फ़ोकस इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने और सप्लाई चेन खड़ा करने पर था।
 
 
तो नोटबंदी और जीएसटी जैसे मोदी सरकार के फ़ैसले से बाबा रामदेव खफ़ा हैं। पत्रकार पीएस चौहान कहते हैं, "बाबा ने कभी खुलकर तो इनको (नोटबंदी और जीएसटी) लेकर नाराज़गी नहीं जताई, लेकिन आप आंकड़े देखेंगे तो पता चल जाएगा, तमाम उद्योगो की तरह पतंजलि पर भी इसका असर पड़ा है। कंपनी के विस्तार कार्यों पर असर पड़ा है।"
 
 
लेकिन लाखों अनुयायियों का दावा करने वाले रामदेव को इस बार अपने पक्ष में खड़ा करने के लिए बीजेपी ने क्या वाक़ई कोई कोशिश नहीं की। इसका जवाब पत्रकार रतनमणि डोभाल इस तरह देते हैं, "मेरी राय में इसके पीछे पतंजलि के आर्थिक हित हैं। यहां लोकल स्तर की बात करूं तो भाजपा ने इस बार रामदेव का दरवाज़ा नहीं खटखटाया। उनका प्रत्याशी (रमेश पोखरियाल निशंक) एक भी बार उनसे मिलने नहीं गए।"
 

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