'बांग्लादेश में हिंदुओं के गले पर है तलवार'

Webdunia
बुधवार, 10 अगस्त 2016 (11:26 IST)
- नितिन श्रीवास्तव (ढाका)
शाम के पांच बजे थे जब हम राजधानी ढाका में बांग्लादेश के राष्ट्रीय मंदिर, ढाकेश्वरी देवी, में दाखिल होने के लिए आगे बढ़े। लेकिन मुख्य द्वार तक पहुंचने के आधे किलोमीटर पहले ही एक-47 लिए हुए पांच सुरक्षाकर्मियों ने हमारे बैग, कैमरे वगैरह लिए, आईडी कार्ड देखे और कहा जिससे मिलने भीतर जाना है पहले उनसे बात कराओ।
भीतर पहुंचने पर पुजारी विजय कृष्ण गोस्वामी से 15 मिनट तक बात करने की मिन्नत भी करनी पड़ी।
 
उन्होंने बताया, '1947 में जब ये ईस्ट पकिस्तान था तब यहां 27 फीसदी अल्पसंख्यक थे जो अब घटकर नौ फीसदी के आसपास पहुंच गए हैं। जिस तरह से ढूंढ़-ढूंढ़ कर हिंदू पुजारियों या बौद्ध गुरुओं को मारा जा रहा है उससे भय बढ़ता जा रहा है। हम लोगों का निकलना मुश्किल हो रहा है और सुरक्षा की ही बात सताती रहती है।'
 
बांग्लादेश की करीब 16 करोड़ आबादी में से अल्पसंख्यकों की तादाद डेढ़ करोड़ से ज्यादा है। लेकिन ये समुदाय फिलहाल खौफ में दिखता है। इसी वर्ष जून महीने में चार हिंदुओं की हत्या हुई है जिसमें से दो मंदिरों के रख-रखाव से जुड़े हुए थे।
 
कोई सुबह की सैर के लिए निकला था और कोई साइकिल पर बाक्कर जा रहा था। ये सिलसिला पिछले तीन वर्षों से जारी है क्योंकि कहीं बौद्ध भिक्षु निशाना बने हैं तो कहीं ईसाई समुदाय के लोग।
बांग्लादेश में अल्पसंख्यक समुदाय परिषद के महासचिव और मानवाधिकार कार्यकर्ता राना दासगुप्ता को लगता है कि सरकार बढ़ती हिंसा से निपटने के कदम तो उठा रही है लेकिन ज्यादा की जरूरत है।
 
उनके मुताबिक, 'यहां हिंदुओं के गले पर तलवार है। डरे हुए पुजारी पहनावा बदल रहे हैं और धोती पहनना छोड़ कर पैंट-शर्ट में आ रहे हैं। हिंदू महिलाओं ने हाथों से चूड़ियां त्यागनी शुरू कर दी हैं। इन्हें दिलासे से ज्यादा सुरक्षा के भरोसे की जरूरत है।'
 
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बांग्लादेश में 22,000 मंदिर, कम से कम 10 गुरुद्वारे, दर्जनों चर्च और दूसरे अल्पसंख्यकों की तमाम इबादतगाहें हैं। देश का सबसे बड़ा और पुराना गुरुद्वारा, गुरुद्वारा नानक शाही, इन दिनों किसी फौजी टुकड़ी के निवास में तब्दील हो चुका दिखता है और आने-जाने वालों में कमी दिखी है।
 
दो बड़े लोहे के गेट लग चुके हैं, अंदर जाने के पहले मेटल डिटेक्टर से तलाशी होती है और पुजारी वगैरह मुख्य इमारत को आमतौर से ताले में रखते हैं। गुरुद्वारे के ग्रंथी वजीर सिंह इन दिनों पंजाब में रहने वाले अपने परिवार से रोज फोन पर बात करते हैं।
उन्होंने कहा, 'हमने अपने परिवार को बिगड़ते माहौल के चलते वापस भेज दिया है। उनके यहां रहने पर चिंता ज्यादा रहती थी। गुरुद्वारे के दरवाजे भी पहले खुले रहते थे लेकिन अब सब बदल गया है। अगर हमें आज-पास के गरीब बच्चों या परिवारों के लिए लंगर का आयोजन करना होता है तो अब हम परिसर के बाहर करते है।'
 
बांग्लादेश में कई कट्टरवादी संगठन हैं जिन्होंने हिंसा की अलग-अलग घटनाओं की कथित जिम्मेदारी ली है। उधर अवामी लीग सरकार ने इस्लामिक स्टेट या अल-कायदा से जुड़े गुटों की इन हत्याओं की जिम्मेदारी लेने पर तरजीह कम देते हुए अक्सर विपक्षी पार्टियों या स्थानीय इस्लामिक गुटों को देश में अस्थिरता फैलाने का जिम्मेदार ठहराया है।
 
हालांकि विपक्षी दलों ने सभी आरोपों को हमेशा खारिज किया है। सच ये भी है कि हिंसा में जान गंवाने वालों में बहुसंख्यक यानि मुस्लिम समुदाय के लोग भी हैं। इन लोगों ने खुलकर कट्टरवादिता के खिलाफ आवाज उठाई थी और इन्हें मारने का दावा करने वाले कुछ लोगों का कथित ताल्लुक इस्लामिक चरमपंथ से बताया गया है।
 
ढाका विश्विद्यालय में प्रोफेसर आसिफ नजरुल के मुताबिक़, 'बांग्लादेश की आज़ादी के बाद से ही हिंदुओं का विस्थापन हुआ, ये सही है। लेकिन जितने भी लोग आर्थिक स्तर पर कमजोर तबके से थे, सभी ने झेला है, धर्म चाहे जो भी हो। दरअसल इस समस्या को सामाजिक असमानता के परिवेश में देखा जाए तो ये सबसे बड़ा मुद्दा नहीं है।'
लेकिन बांग्लादेश सरकार का दावा है कि सभी अल्पसंख्यक सुरक्षित हैं। देश के सूचना मंत्री हसनुल हक इनु का मानना है कि देश में जमीनी स्तर पर सांप्रदायिक मतभेद नहीं है।
 
उन्होंने बताया, 'सभी धर्म मिल जुल कर रहते हैं और कोई सामाजिक तनाव भी नहीं है। हमने पूरी कोशिश की है अल्पसंख्यकों की सुरक्षा प्रदान करने की। लेकिन चरमपंथी अल्पसंख्यकों को निशाना इसलिए बना रहे हैं जिससे सरकार पर दबाव बने और उसकी बदनामी हो।'
 
तमाम भरोसों के बावजूद सच्चाई ये भी है कि इस देश के डेढ़ करोड़ अल्पसंख्यकों ने पिछले तीन वर्षों में समुदाय के खिलाफ जितना रोष देखा है उतना शायद पहले नहीं महसूस किया हो।
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