चंदन जजवाड़े, बीबीसी संवाददाता, जमुई से
बीबीसी ने '100 वीमेन' कार्यक्रम को साल 2012 में दिल्ली गैंग रेप के बाद शुरू किया था ताकि मीडिया में महिलाओं से जुड़ी ख़बरों को बढ़ावा मिल सके। ये कार्यक्रम अब अपने दसवें साल में है। इस साल इस कार्यक्रम की थीम 'प्रगति' है। यह सीज़न पिछले एक दशक में आए बदलावों पर एक नज़र डालने की कोशिश कर रहा है।
पिछले 10 सालों में औरतों के जीवन के अलग-अलग पहलू में क्या बेहतरी हुई है, ये जानने के लिए बीबीसी ने भारत समेत 15 देशों में औरतों का सर्वे किया है। इसमें एक मुद्दा है औरतों के अपने पैसे इस्तेमाल करने की आज़ादी का।
सर्वे में भारत से शामिल हुई औरतों में से 76 प्रतिशत का कहना था कि पिछले दस सालों में वो अपने पैसे को बैंक अकाउंट में रखने और खर्च करने का फ़ैसला करने में ज़्यादा सक्षम हुई हैं।
भारत में केंद्र और राज्य सरकारें ऐसी कई योजनाएं लाई हैं जिनके तहत औरतों के बैंक खाते खुलवाए गए हैं। बिहार में भी सरकार की ऐसी योजना है। बिहार में बीते कुछ साल में बड़ी संख्या में महिलाओं ने बैंक में अपना खाता खुलवाया है। इससे उनको कितनी आर्थिक आज़ादी मिल पाई है? बैंक में खाता होने से क्या उनकी बचत बढ़ पाई है? यही जानने के लिए बीबीसी की टीम बिहार के जमुई ज़िले के चकाई ब्लॉक के कुछ गांवों में गई।
यहां के कई इलाक़े एक ज़माने में नक्सल प्रभावित माने जाते थे। आज यहां हालात बदले हुए दिखते हैं।
इस इलाक़े में बड़ी आबादी आदिवासी समुदाय की है। यहां मुख्य सड़क से दूर 'पिपरा' गांव में अंजलीना मरांडी रहती हैं। उनके घर से इलाक़े का ग्रामीण बैंक क़रीब पांच किलोमीर दूर है।
अंजलीना मरांडी आज ख़ुश हैं क्योंकि उनके हाथ में नया बैंक पासबुक आ गया है। उनका पुराना पासबुक इस्तेमाल करने से फट गया था। उसे बदलने के लिए अंजलीना ने बैंक में अर्ज़ी दी थी।
लोन लेकर ऑटो ख़रीदने वाली अंजलीना
क़रीब 45 साल की अजंलीना ने अपने दम पर अपनी ज़िंदगी बदल ली है। उनके पास अब अपना बैंक अकाउंट है, अपना वोटर कार्ड है। अंजलीना मरांडी ने बीबीसी को बताया कि वो बैंक तक अपने ऑटो से जाती हैं। पहले घर से बैंक, बाज़ार या कहीं और जाने में परेशानी होती थी।
अंजलीना कहती हैं, "बैंक खाता खुलवाने के बाद मैंने लोन लेकर दुकान शुरू की और एक ऑटो ख़रीदा। अब दोनों लोन के सारे पैसे जमा कर चुकी हूं। मैं इससे महीने में पंद्रह हज़ार तक बचा लेती हूं। सारे पैसे बैंक में रखती हूं और ज़रूरत के लिए कुछ पैसे अपने पास भी रखती हूं।"
हाथ में पैसे आए तो अब वो घर के लिए कुछ फ़र्नीचर और दरवाज़े बनवा रही हैं। उन्हें अब सारे सरकारी लाभ मिल रहे हैं और इससे घर में उनकी इज़्ज़त बढ़ी है। अपने परिवार में वह मुखिया की तरह हो गई हैं। अंजलीना हर काम की निगरानी ख़ुद करती हैं। बैंक में पैसे जमा करने हों या निकालने हों, सारे काम वो ख़ुद करती हैं।
अंजलीना अपनी सास की भी देखभाल करती हैं और अपनी मां की मौत के बाद अपने पिताजी को भी साथ ही रखती हैं।
अंजलीना का परिवार
अंजलीना के सात बच्चे हैं जिनमें चार बेटे और तीन बेटियां हैं। एक बेटे और दो बेटियों की शादी करा चुकी हैं। दो बच्चों को पढ़ाने में वह भी योगदान देती हैं।
उनके पति जंगल से पत्ते तोड़ कर उससे अलग-अलग चीज़ें बनाते हैं और उसे बाज़ार में बेचते हैं। उनके पिताजी मवेशियों को चरा कर लौटें हैं। सास घर के कामकाज में भी मदद करती हैं।
सास को पता है कि बहू के पास घर से लेकर बाहर तक के ढेर सारे काम हैं। इस तरह से अंजलीना का आत्मविश्वास भी बढ़ा है।
गांव की दूसरी महिलाओं का हाल
अंजलीना के इस आत्मविश्वास को देखकर गांव की कई और महिलाओं ने बैंक में खाता खुलवाया है।
पिपरा गांव की ही ग्रेसी हंसदा ने 2015 में बैंक खाता खुलवाया था। उसके बाद पहली बार इनको कोई पहचान मिल पाई। बैंक अकाउंट के बाद इनका वोटर कार्ड बना। क़रीब 27 साल की ग्रेसी ने उसके बाद ही पहली बार वोट भी डाला था।
फ़िलहाल छोटे बच्चे को पालने के लिए उन्होंने बाहर के कामकाज छोड़ दिए हैं। वो घर पर ही खेती का काम करती हैं। मुर्गे और बत्तख भी पालती हैं जिससे घर चलाने के लिए कुछ कमाई हो जाती है।
वो ख़ुद बैंक जाती हैं और पैसे निकालकर अपने पति को दे देती हैं जिससे घर चलाने में मदद मिलती है।
ग्रेसी बताती हैं कि बैंक अकाउंट खुलवाने के बाद घर से लेकर गांव तक उनका सम्मान बढ़ा है। पहले वो भी गांव की एक आम महिला की तरह थीं, लेकिन बैंक खाता खुलवाने से बाक़ी कई महिलाओं ने ग्रेसी से संपर्क किया और अपना बैंक अकाउंट खुलवाया।
ग्रेसी हंसदा याद करती हैं, "शादी के बाद मेरे पास कोई कागज़ नहीं था। बैंक अकाउंट खुलवाया तो पहली बार मुझे एक पहचान मिली। सरकारी लाभ हो या मेहनत-मज़दूरी के पैसे, अब सारे पैसे बैंक में आने लगे। दस रुपये कमाती हूं तो दो रुपये बैंक में भी जमा कर देती हूं।"
यहां लोग जंगल से पत्ते लाकर पत्तल बनाने का काम भी करते हैं। मवेशी और भेड़-बकरियों का पालन यहां खूब होता है। इलाक़े में मुर्गे और बत्तख भी बहुत सारे घरों में देखने को मिलते हैं।
बीते कुछ साल में बिहार में बड़ी संख्या में महिलाओं ने बैंक में अपना खाता खुलवाया है। बैंक खाते ने उनकी मेहनत की कमाई को एक दिशा भी दी है।
वो महिलाएं जो अब भी खाता खुलवा नहीं पाईं
ऐसा भी नहीं है कि बिहार में महिला सशक्तीकरण हर दरवाज़े तक पहुंच चुका है। गांवों में कई ऐसी भी महिलाएं हैं जिनके पास कोई बैंक खाता नहीं है।
बेहिरा गांव की रीता देवी बताती हैं कि उनकी शादी के नौ साल हो चुके हैं, लेकिन अब तक न तो उनके पास वोटर कार्ड है और न ही बैंक खाता।
रीता का कहना है, "घरवाले और पति इस पर ध्यान ही नहीं देते। मुझे अब तक कोई सरकारी लाभ नहीं मिल पाया है। न तो बच्चे के जन्म के समय कुछ मिला और न ही कोविड के समय कोई सहायता राशि।"
उसके बाद हमारी मुलाक़ात इसी गांव की सुनीता से हुई। वो कुछ साल पहले शादी के बाद इस गांव में आई हैं। उनका ज़्यादातर समय घर की चाहरदीवारी में ही गुज़रता है।
कितना हुआ है बदलाव?
घर से समय निकालकर बैंक पहुंचीं तो पता चला कि गांव से जुड़ा कोई पहचान पत्र नहीं है इसलिए बैंक खाता नहीं खुल सकता। सुनीता बताती हैं, "घर का भी काम होता है। समय निकालकर 3-4 बार बैंक गई, लेकिन खाता नहीं खुला। मेरे पास गांव से जुड़ा कोई पहचान पत्र नहीं है और अभी आधार कार्ड भी बनना बंद है। खाता नहीं होने से मुझे कोई सरकारी लाभ नहीं मिल रहा है।"
इलाक़े की बैंक मित्र पुष्पा हेंब्रम लगातार गांव का दौरा करती हैं। वो गांव की महिलाओं को बैंक खाता होने के फ़ायदे बताती रहती हैं।
पुष्पा हेंब्रम ने बीबीसी को बताया, ''सरकारी कागज़ नहीं होने से परेशानी है। अब सरकारी लाभ हो या लोन हो, बिना बैंक खाते के कुछ नहीं मिलता। ये लोग अपने घर के अभिभावक के पहचान पत्र या गांव के मुखिया से लिखवाकर भी बैंक खाता खुलवा सकती हैं।''
भारत में साल 2011 में राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन की शुरुआत की गई थी। बिहार में यह योजना 'जीविका' के नाम से चल रही है। इस योजना ने ग्रामीण इलाक़ों में कई तरह के बदलाव किए हैं।
पुष्पा हेंब्रम जीविका योजना से जुड़ी हुई हैं। उनका कहता है कि जिन महिलाओं ने बैंक खाता नहीं खुलवाया है, उनको अभी आपदा के लिए मिलने वाले साढ़े तीन हज़ार रुपये नहीं मिल पाएंगे और न ही कोई बाक़ी सरकारी लाभ मिल सकता है क्योंकि ये सारे पैसे बैंक अकाउंट में जाते हैं।
हमें इस इलाक़े के गांवों में महिलाओं की नियमित तौर पर होने वाली मीटिंग भी दिखी। यहां महिलाएं खेती-किसानी से लेकर घरेलू समस्याओं और अपने आर्थिक मसलों तक पर चर्चा करती हैं। बैंक में अपना खाता होने से बड़ी संख्या में महिलाओं को एक आज़ादी मिली है।