दिल्ली विधानसभा चुनाव: मोदी की राजनीति से कितनी अलग है केजरीवाल की राजनीति?

BBC Hindi
बुधवार, 12 फ़रवरी 2020 (07:50 IST)
दिल्ली विधान सभा चुनावों में एक बार फिर अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी ने जीत दर्ज की है। पार्टी ने काम के मुद्दे को आगे रख चुनाव लड़ा और 70 में से 62 सीटों पर जीत हासिल की।
 
पार्टी की टक्कर सीधे-सीधे केंद्र की सत्ताधारी बीजेपी से थी जो उसके मुक़ाबले कहीं बड़ी पार्टी है। ऐसे में केजरीवाल के नेतृत्व और उनकी रणनीति की तरीफ़ होना लाज़िमी है। केजरीवाल की पार्टी रैली और धरना प्रदर्शनों से उभरी पार्टी है जो साफ़-सुथरी राजनीति के वादे के साथ 2012 को अस्तित्व में आई थी।
 
पार्टी ने 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ा और जीता भी। लेकिन जनलोकपाल के मुद्दे पर केजरीवाल ने कुछ सप्ताह में ही इस्तीफ़ा दे दिया। इसके बाद 2015 में पार्टी ने एक बार फिर दिल्ली में सरकार बनाई, लेकिन विवादों से दूर न रह पाई। कभी केजरीवाल दिल्ली सरकार के अधिकारों को लेकर राज्यपाल से उलझे, कभी पुलिस को दिल्ली सरकार के तहत किए जाने की मांग की, तो कभी दिल्ली को राज्य बनाने की मांग की।
 
लेकिन आम आदमी के चेहरे के साथ राजनीति के अखाड़े में उतरे केजरीवाल ने 2020 विधान सभा चुनाव में विवादों से दूरी बनाने की पूरी कोशिश की। साथ ही उन्होंने बीजेपी की सांप्रदायिक मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती राजनीति के सामने स्थानीय मुद्दों पर चुनाव लड़ा और जीत भी हासिल की।
 
क्या इससे ये साबित होता है कि वक़्त के साथ केजरीवाल एक नेता के तौर पर अब और परिपक्व हो गए हैं।
 
पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार अभय दुबे का नज़रिया
जहां तक परिपक्वता का सवाल है ये मानना होगा कि राजनीति के मैदान में अरविंद केजरीवाल ने बहुत अधिक प्रगति की है।
 
उनकी आम आदमी पार्टी अर्बन गवर्नेंस की पार्टी के तौर पर उभरी है और दिल्ली जैसे प्रदेश में जो मुख्यत: शहरी इलाक़ा है वहां उनकी सरकार ने पाँच साल में अभूतपूर्व उपलब्धियां हासिल की हैं। अपनी इन्हीं उपलब्धियों को आधार बना कर उन्होंने निर्भयतापूर्वक चुनाव लड़ा।
 
भाजपा ने उनके ख़िलाफ़ ज़हर भरा अभियान चलाया और हिंदू-मुसलमान के बीच मतभेद पैदा करने की कोशिश की। भाजपा की रणनीति ये थी कि हिंदुओं का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में किया जाए और मुसलमानों का ध्रुवीकरण आम आदमी पार्टी के पक्ष में होने से रोका जाए ताकि मुसलमान वोट बंट जाए।
 
लेकिन केजरीवाल की रणनीति, भाजपा की रणनीति को विफल करने में कामयाब रही।
 
पहले एक सरकारी अधिकारी रहे केजरीवाल ने राजनीति में क़दम रखा तो विरोध प्रदर्शनों के रास्ते से होते हुए। लेकिन देखा जाए तो छह सालों में दो ही नेताओं की नेतागिरी ख़ूब चमकी है- मोदी और केजरीवाल।
 
इन दोनों का उभार लगभग एक ही वक़्त हुआ और फिर दोनों राजनीति में स्थापित होते चले गए। लेकिन केजरीवाल मोदी से कई मायनों में अलग है।
 
नरेंद्र मोदी के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसका पूरा तंत्र है। आम आदमी पार्टी के मुक़ाबले बीजेपी काफ़ी पुरानी पार्टी है और उसकी कार्यकर्ताओं की पूरी एक फ़ौज है जो मोदी के साथ हैं। देश के बड़े-बड़े पूंजीपति भी उनके साथ हैं।
 
लेकिन केजरीवाल की बात अलग है, क्योंकि उन्होंने एक ऐसी पार्टी खड़ी की है जो मुख्य तौर पर ग़रीबों की पार्टी है। कोई जाति या समुदाय इस पार्टी की राजनीतिक पूंजी नहीं है।
 
अब तक देश में जितनी पार्टियां हुई हैं सभी की कोई न कोई राजनीतिक पूंजी होती है, कोई न कोई जाति या समुदाय उसे अपना समर्थन देता है। आम आदमी पार्टी के साथ ऐसा नहीं है और इस लिहाज़ से केजरीवाल की चुनौतियां भिन्न हैं।
 
साथ ही जिस ज़मीन पर वो राजनीति करते हैं यानी दिल्ली वो भी दूसरे राज्यों जैसी नहीं है, ये भी एक कारण है कि वो अपनी अलग तरह की राजनीति कर पाते हैं।
 
अर्बन गवर्नेंस की पार्टी
आम आदमी पार्टी का केंद्रीय तत्व है शहरी सुशासन यानी अर्बन गवर्नेंस। वो इस बारे में सोच विचार करती है और अपने अधिकारों के अनुसार वो इसके रास्ते निकालती है।
 
उनके पास न पुलिस है, न ज़मीन है - तो ज़ाहिर है इस क्षेत्र में वो अधिक काम नहीं कर सकती। जिन सेक्टर में उनके पास अधिक नियंत्रण है, जैसे शिक्षा, परिवहन, स्वास्थ्य- वो उसमें काम करती है और उसका प्रदर्शन बेहतर रहा है।
 
अम तौर पर ऐसा नहीं होता कि कोई नई पार्टी बड़ा बहुमत लेकर सत्ता में आए और फिर तक़रीबन उसी तरह का बहुमत लेकर सरकार बनाए। ये अपने आप में इस पार्टी की सफलता की कहानी कहता है।
 
आम आदमी पार्टी ने अपने पहले बजट में शिक्षा, परिवहन, स्वास्थ्य जैसे सोशल सेक्टर में जबर्दस्त पैसा आवंटित किया था। केंद्र सरकार समेत देश की किसी भी राज्य की सरकार ने ऐसा नहीं किया। आम तौर पर अब प्रवृत्ति ऐसी बन गई है कि शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे सेक्टर निजी हाथों में दे दिए जाते हैं।
 
लेकिन आम आदमी पार्टी ने आगे बढ़कर ज़िम्मेदारी ली और व्यापक सुधारों की बात की। और लोगों को इससे लाभ भी हुआ।
 
इसके साथ जो एक चीज़ हुई वो ये कि इस पार्टी ने अर्बन गवर्नेंस और वेलफेयर सरकार का एक नया मॉडल राष्ट्रीय मंच पर पेश किया है। ये मोदी और कांग्रेस के वेलफेयर सरकार के मॉडल से अलग है।
 
शाहीन बाग़ का मुद्दा
बीते साल केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन क़ानून लागू करने का ऐलान किया। इसके विरोध में देश भर में प्रदर्शन हुए लेकिन दिल्ली का शाहीन बाग़ महिलाओं के विरोध प्रदर्शन के कारण ख़ास चर्चा में रहा।
 
ये सब ऐसे वक़्त हो रहा था जब चुनाव की तैयारियां ज़ोरों पर थीं। लेकिन केजरीवाल न तो इसके समर्थन में कुछ बोले न ही इसके विरोध में कोई बयान देते दिखे।
 
भाजपा शाहीन बाग़ के मुद्दे को रणनीति के तौर पर उठाना चाहती थी और हमें ये समझना होगा कि रणनीति का जवाब रणनीति से ही दिया जाता है।
 
अरविंद केजरीवाल ने जानबूझ कर शाहीन बाग़ के आंदोलन का समर्थन करते हुए भी इस पूरे प्रकरण को उन्होंने अपनी राजनीति में इस तरह इस्तेमाल किया कि ये मुद्दा उन्हें नुक़सान नहीं पहुंचा पाया।
 
जबकि प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री और केजरीवाल के क़रीबी माने जाने वाले मनीष सिसोदिया ने खुल कर शाहीन बाग़ के साथ खड़े होने की बात कही। इसके बाद केजरीवाल ने अपने बयानों में कभी शाहीन बाग़ का विरोध नहीं किया। उन्होंने केवल इतना कहा कि अगर इस कारण रास्ता रुक रहा है तो रास्ता खुलना चाहिए।
 
उन्होंने बड़ी ख़ूबी के साथ इस पूरे मसले को चुनावों में ख़ुद पर हावी नहीं होने दिया।

जुझारू पार्टी
2015 के मुक़ाबले बीजेपी ने 2020 के चुनावों में बेहतर प्रदर्शन किया। 2015 में 3 सीटों पर सिमटी पार्टी ने इस बार 8 सीटों पर अपना परचम लहराया। तो क्या बीजेपी को मिली बढ़त को केजरीवाल का समर्थन कम होना कहा जा सकता है?
 
पाँच साल तक सरकार चलाने के बावजूद केजरीवाल की पार्टी के ख़िलाफ़ राज्यपाल ऐसे लड़ रहे थे जैसे वो विपक्ष के नेता हों।
 
इस पार्टी के ख़िलाफ़ केवल बीजेपी ही नहीं लड़ रही थी, मीडिया का एक बड़ा तबक़ा इसके विरोध में था, पुलिस इसके विरोध में लड़ रही थी, सीबीआई इसके ख़िलाफ़ लड़ रही थी, एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट इसके ख़िलाफ़ लड़ रही थी - इतने विरोधियों को परास्त कर के फिर से 62 सीटें लेकर आना और लगभग उतना ही वोट परसेंट लेकर आना बड़ी बात है।
 
बीजेपी एक ताक़तवर पार्टी है जिसने अपने तमाम मुख्यमंत्रियों को, नेताओं को दिल्ली के मैदान में उतार रखा था। उन सबसे मुक़ाबला कर सफलता प्राप्त करना इस नई उभरी पार्टी के लिए छोटी बात नहीं है।
 
केजरीवाल पर चुनाव प्रचार में करोड़ों रूपये ख़र्च करने के भी आरोप लगाए जा रहे हैं। लेकिन ये बात समझनी होगी कि राजनीतिक दांव खेलने के मामले में दो बातों बेहद ज़रूरी हैं। अगर आपने काम नहीं किया है और सिर्फ़ प्रचार किया है तो उसे सफलता नहीं मिलेगी। और अगर आपने सिर्फ़ काम किया है लेकिन उसके बारे मे प्रचार नहीं किया है तो भी राजनीतिक दांव बेकार हो जाएगा।
 
राजनीति में सिर्फ़ एक काम कर के सफल नहीं हुआ जा सकता है। राजनीति में अच्छा शासन करने के अलावा, अपनी रणनीति बनाना, विपक्ष की रणनीति समझना, मीडिया को साधना और सामाजिक समीकरण भी बनाए जाते हैं। चुनावी रणनीतियां बहुआयामी होती हैं और इसके लिए संसाधनों की ज़रूरत होती है।
 
लेकिन अब कईयों को उम्मीद है कि दिल्ली से आगे भी पार्टी अपने पैर पसारेगी।
 
लेकिन दिल्ली से बाहर (पंजाब के अलावा) अपनी कोशिशों में आम आदमी पार्टी सफल नहीं रही है। राष्ट्रीय स्तर पर काम करने के लिए नेताओं और कार्यकर्ताओं की बड़ी फसल तैयार करनी होती है जो अब तक पार्टी नहीं कर पाई है। और ये केजरीवाल के सामने बड़ी समस्या है जो उन्हें स्वीकार करनी चाहिए।
 
मुझे लगता है कि पार्टी को अभी सबसे पहले एमसीडी के चुनावों पर ध्यान देने की ज़रूरत है जहां बीते चुनावों में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाई है।
 
दिल्ली की सेवा करने का अपना वादा पार्टी पूरी तरह से तभी निभा पाएगी जब वो एमसीडी के चुनावों में भी जीत हासिल कर ले।
 

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