कोविशील्ड और जॉनसन की वैक्सीन न लगाने वाले देश उसकी बचे हुए डोज़ का क्या करेंगे

BBC Hindi
बुधवार, 21 अप्रैल 2021 (07:30 IST)
कोरोना के क़हर से बचने के लिए कई देश अधिक से अधिक वैक्सीन पाने के लिए जूझ रहे हैं। ऐसे वक़्त कई देशों को यह सूझ नहीं रहा है कि वे उन ख़ुराकों का क्या करेंगे जिसे उन्होंने हासिल तो कर लिया पर इसके प्रयोग से स्वास्थ्य समस्याएं होने की ख़बरों के बाद इसे यूं ही पड़े रहने को छोड़ दिया है।

ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका (कोविशील्ड) और जॉनसन एंड जॉनसन (जेनसेन) के टीकों से ख़ून के थक्के जमने की रिपोर्टें मिलने के बाद कई देशों ने इसे युवाओं को न देने का फ़ैसला किया है।
 
अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेटर यानी एफ़डीए और रोग नियंत्रण और प्रतिरोधक केंद्र ने 18 से 48 साल की उम्र की छह महिलाओं के शरीर में टीके के बाद ख़ून के दुर्लभ थक्के जमने का मामला सामने आने के बाद जॉनसन ऐंड जॉनसन के टीके पर रोक लगा दी थी। ब्रिटेन में भी कोविशील्ड के टीके को लेकर ऐसी ही आशंकाएं जताई गईं।
 
डेनमार्क ने तो एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन कोविशील्ड पर पूरी तरह रोक लगा दी है। इसके बाद दूसरे देशों की नज़र डेनमार्क के इस्तेमाल न हो रहे इन टीकों पर गई है। चेक गणराज्य ने डेनमार्क के पास मौज़ूद सभी एस्ट्राजेनेका टीके खरीदने की पेशकश की है। इस तरह की रुचि एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया जैसे देशों ने भी दिखाई है।

ऐसा हो क्यों रहा है?
असल में दावा किया गया है कि कोरोना के टीके लेने के बाद कई लोगों (10 लाख में एक से भी कम) ख़ासकर युवाओं में दुर्लभ और कभी-कभी घातक ख़ून के थक्के जमने के मामले देखने को मिले हैं। इसके बाद इन टीकों के प्रयोग को लेकर चिंताएं काफ़ी बढ़ गई हैं। हालांकि, दुनिया भर के स्वास्थ्य नियामकों का कहना है कि कोविड-19 को रोकने में इन टीकों के जो फायदे हैं वे इसके नुक़सान के ख़तरों से कहीं ज्यादा हैं।
 
ब्रिटेन के दवा नियामक के आंकड़ों के अनुसार, यदि एक करोड़ लोगों को एस्ट्राजेनेका की कोविशील्ड वैक्सीन दी जाती है, तो 40 लोगों ख़ून के थक्के देखने की आशंका है। इनमें से क़रीब 10 लोग मर सकते हैं। इस तरह इन टीकों को लेने से 10 लाख लोगों में से एक की जान जा सकती है। यह अगले महीने मार दिए जाने या 400 किमी की यात्रा के दौरान ट्रैफिक दुर्घटना में मरने जैसा मामला है।

हालांकि डेनमार्क के स्वास्थ्य प्राधिकरण ने एस्ट्राज़ेनेका वैक्सीन के उपयोग को बंद करने का निर्णय लिया है। इनके अनुसार, हमारे पास दूसरे टीके मौज़ूद थे और डेनमार्क में कोरोना महामारी नियंत्रण में भी थी। ऐसे में डेनमार्क ने "गंभीर प्रतिकूल प्रभावों के ज्ञात ख़तरों" से मुक़ाबले के लिए सतर्क होकर चलने का फ़ैसला लिया।

डेनमार्क के इस फ़ैसले का मतलब यह हुआ कि कोविशील्ड की जिन 24 लाख ख़ुराकों को ख़रीदने की सहमति दी गई थी, उसे उपयोग से बाहर कर दिया जाएगा। इतना ही नहीं जॉनसन ऐंड जॉनसन की वैक्सीन 'जेनसेन' और इससे कथित तौर पर जम रहे ख़ून के दुर्लभ थक्के के संबंधों की भी जाँच की जा रही है।

अमेरिका में भी जब तक सुरक्षा जाँच पूरी नहीं हो जाती, तब तक इन दोनों टीकों और इनके उपयोग को रोक दिया गया है। अमेरिका ने इन दोनों की 10 करोड़ ख़ुराकों को ख़रीदने का आदेश दिया था।

जॉनसन ऐंड जॉनसन के टीके के उपयोग पर दक्षिण अफ्रीका में भी पाबंदी लगा दी गई है। हालांकि इस टीके को काफ़ी अध्ययन के बाद उपयोग के लिए इसलिए चुना गया था कि यह कोविड-19 के स्थानीय वैरिएंट के ख़िलाफ़ ज़्यादा प्रभावी पाया गया था।
 
एस्ट्राज़ेनेका के बारे में पहले ही बताया गया था कि यह वहां के वैरिएंट पर ज़्यादा असरदार नहीं है। इस चलते कोविशील्ड की दक्षिण अफ्रीका में जगह नहीं बन सकी थी। इस चलते भी दक्षिण अफ्रीका में कोविशील्ड की काफ़ी ख़ुराक इस्तेमाल में नहीं रह गई थी। ऐसे में इस वैक्सीन की ख़ुराकों को बर्बाद होने से रोकने के लिए दक्षिण अफ्रीका ने 14 अफ्रीकी देशों को 10 लाख ख़ुराकें बेच दीं।
 
ये टीके कहीं और इस्तेमाल हो सकते हैं?
सिद्धांतों में तो ऐसा हो सकता है। ऐसे देश जिन्हें टीकों की ज़रूरत नहीं रह गई है, वे इन्हें बेचना या दान करना चाहते हैं।
 
पिछले गुरुवार को विश्व स्वास्थ्य संगठन की यूरोपीय शाखा के निदेशक हेंस क्लूज ने बताया कि डेनमार्क ऐसा ही करने की कोशिश कर रहा है। अपनी एक ब्रीफिंग में क्लूज ने बताया, "मैं समझता हूं कि डेनमार्क का विदेश मंत्रालय इसके लिए तैयार है या वह पहले से ही गरीब देशों को एस्ट्राजेनेका वैक्सीन देने की संभावना तलाश रहा है।"
 
डेनमार्क के कुछ पड़ोसी देशों ने ख़ुद ही कहा है कि वे इन टीकों को हासिल करना चाहते हैं। लिथुआनिया के प्रधानमंत्री इंग्रिडा सिमोनाइट ने कहा, "हमारे पास माँग से कम टीके हैं। इसलिए डेनमार्क जितनी ख़ुराकें देना चाहता है, हम सभी को लेने के इच्छुक हैं।"
 
वहीं अपने ट्वीट में, चेक गणराज्य के गृह मंत्री जेन हैमासेक ने कहा कि उन्होंने एक राजनयिक को देशहित में "डेनमार्क से एस्ट्राजेनेका के सभी टीके ख़रीदने" की इच्छा जाहिर करने का निर्देश दिया है। दूसरे देशों के इन प्रस्तावों पर डेनमार्क ने अपना रुख अभी साफ़ नहीं किया है। इस पर सरकार ने अभी तक कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की है।
 
इस बीच, इस्तेमाल न होने वाले टीकों को भंडार में रखा जाएगा। एस्ट्राज़ेनेका और जॉनसन ऐंड जॉनसन दोनों टीकों की ख़ूबी है कि उन्हें फ्रिज के तापमान पर ही रखा जा सकता है। वहीं फाइजर के वैक्सीन के लिए -70 डिग्री का तापमान चाहिए होता है। इस वजह से इन दोनों टीकों की ढुलाई फ़ाइजर के टीके की तुलना में आसानी से हो पाती है। हालांकि, हर टीके की एक एक्सपायरी डेट होती है। यह हर वैक्सीन के मामले में अलग-अलग होती है।

कितने टीके बेकार पड़े हैं?
बिना इस्तेमाल के रखे टीकों का कोई वैश्विक रिकॉर्ड नहीं रखा जाता। हालांकि क्षेत्रीय आंकड़ों से इसके बारे में पता चलता है। उदाहरण के तौर पर, यूरोप के रोग रोकथाम और नियंत्रक केंद्रों (ईसीडीपी) के आंकड़ों से पता चलता है कि 15 अप्रैल तक डेनमार्क को एस्ट्राज़ेनेका की 2,02,920 ख़ुराकें मिली थीं। इनमें से 1,50,671 ख़ुराकों को लोगों को लगाया गया और 52,249 ख़ुराकें अभी भी रखी हुई हैं।
 
यूरोप के बाक़ी देशों में भी ऐसी ही स्थिति है। यहां के कई देशों ने एस्ट्राज़ेनेका और जेनसेन के टीके को बुज़ुर्गों तक सीमित कर दिया है।
 
वहीं अमेरिका के रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्रों के आंकड़ों से पता चलता है कि वहां के कई राज्यों के पास इनकी ख़ुराकें बची हुई हैं। वहां के कई राज्यों में 20 फ़ीसद से अधिक टीके ऐसे ही रखा हुआ है। इसका ब्यौरा इस प्रकार है: अलबामा (37%), अलास्का (35%), वरमोंट (27%) और उत्तरी कैरोलिना (24%)। वहीं पश्चिमी वर्जीनिया पहले जितने टीके उसे दिए जाते थे, उसका उपयोग क़रीब कर ही लेता था। लेकिन अब वहां भी 25 फ़ीसद से अधिक ख़ुराक बची रह जाती है। समाचार एजेंसी ब्लूमबर्ग के अनुसार, हर दिन औसतन साढ़े तीन लाख टीके बच जा रहे हैं।
 
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि टीकों के इस्तेमाल न होने का मतलब है कि कई इलाक़ों के लोग टीकाकरण के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं।
 
बचे हुए टीकों को बांटने की कोई योजना है?
हाँ, पहले से ही ऐसी एक योजना है। इसे 'कोवैक्स' नाम दिया गया है। डब्ल्यूएचओ की निगरानी में चल रही इस अंतरराष्ट्रीय योजना का मक़सद यह तय करना है कि अमीर और ग़रीब सभी देशों के बीच टीकों का वितरण हो सके। इसमें ग्लोबल एलायंस फ़ॉर वैक्सीन्स ऐंड इम्युनाइजेशन (जीएवीआई) और कोएलिशन फ़ॉर एपिडेमिक प्रिपेयर्डनेस इनोवेशंस (सीईपीआई) नामक संस्थाएं भी शामिल हैं। कोवैक्स का लक्ष्य है कि इस साल के अंत तक, 190 देशों के बीच 200 करोड़ से ज्यादा टीके बांट दिए जाएं।

इस योजना के तहत अमीर देशों के यहां बची हुई वैक्सीन को ग़रीब देशों के बीच फिर से बांटने की योजना शामिल है। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन ने, जिसने लगभग 45 करोड़ ख़ुराकों को ख़रीदा है, अपनी ज़्यादातर बची हुई वैक्सीन को ग़रीब देशों को दान करने का वादा किया है। दूसरे अमीर देशों ने भी इस तरह की मदद करने के संकेत दिए हैं।
 
हालांकि इन देशों की आलोचना हो रही है। ऐसा इसलिए कि इनमें से किसी ने भी अब तक यह साफ़ नहीं किया है कि कब वे बताएंगे कि उनके पास अतिरिक्त ख़ुराकें हैं और उनमें से कितना वे दान करना चाहते हैं। फ़िलहाल, कम से कम अभी तो ऐसा ही है, अमीर देश अपनी आबादी को टीका लगाने पर अपना ध्यान लगा रहे हैं। इसके साथ ही वे कोवैक्स कार्यक्रम के लिए भी धन मुहैया करा रहे हैं।

बचे हुए टीके कैसे और कब बांटे जाएंगे?
इसका सीधा जवाब यही है कि हम अभी तक इस बारे में कुछ नहीं जानते। बीबीसी ने कोवैक्स कार्यक्रम की सहयोगी संस्था 'जीएवीआई' से इस बारे में एक सवाल पूछा। वह यह कि क्या उसके पास इस बारे में कोई रिकॉर्ड है कि अतिरिक्त वैक्सीन वाले कितने देशों ने कोवैक्स की मदद का वादा किया है।

जीएवीआई ने कहा, कि "हम अतिरिक्त वैक्सीन वाले देशों की बची हुई ख़ुराकों को हासिल करने के लिए उनसे बात कर रहे हैं। हम जल्द ही अपने पहले समझौते का ऐलान करने की कोशिश कर रहे हैं।"
 
इसका मतलब साफ है कि बचे हुए टीकों को बांटने के समझौते तो हैं, लेकिन अब तक इस बारे में कोई ठोस सूचना नहीं है कि किसे कितनी वैक्सीन हासिल होगी। वास्तव में यह जानना निराशाजनक है।
 

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