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बंगाल में अकाल को और भयावह बनाने वाले ब्रिटिश गवर्नर की पोती सुजैना की नजरों में उनके दादा

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BBC Hindi

, मंगलवार, 18 जून 2024 (08:19 IST)
कविता पुरी, थ्री मिलियन पॉडकास्ट की प्रेजेंटर
सुज़ैना हरबर्ट मुझसे कहती हैं कि, ‘जो कुछ हुआ उसको लेकर मैं बहुत शर्मिंदगी महसूस करती हूं।’ सुज़ैना के दादा, ब्रिटिश भारत में बंगाल के गवर्नर थे, जब 1943 में बंगाल सूबे में भयंकर अकाल पड़ा था। उस अकाल में कम से कम 30 लाख लोगों की मौत हो गई थी।
 
सुज़ैना उस तबाही में अपने दादा की अहम भूमिका के बारे में अभी ताज़ा ताज़ा जानकारी हासिल कर रही हैं और एक पेचीदा पारिवारिक विरासत से रूबरू हो रही हैं। जब मैं सुज़ैना से पहली बार मिली, तो उन्होंने 1940 में खींची गई एक तस्वीर हाथ में ले रखी थी।
 
ये तस्वीर उस वक़्त बंगाल के गवर्नर के आवास में क्रिसमस के दिन खींची गई थी। ये बेहद औपचारिक क़िस्म की तस्वीर है। इसमें लोग अपने शानदार लिबास पहनकर क़तार में बैठे हुए सीधे कैमरे की तरफ़ देख रहे हैं।
 
पहली क़तार में शामिल मानिंद हस्तियों में ब्रिटिश भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो भी शामिल हैं। वो भारत में ब्रिटिश हुकूमत की बड़ी शख़्सियतों में से एक थे। उनके साथ ही बंगाल के गवर्नर और सुज़ैना के दादा सर जॉन हरबर्ट भी बैठे हुए थे।
 
उनके पैरों के पास सफ़ेद कमीज़ और हाफ पैंट, घुटनों तक की जुराबें और चमकते जूते पहने हुए एक छोटा सा बच्चा भी बैठा हुआ है। ये बच्चा सुज़ैना के पिता हैं।
 
जॉन हरबर्ट
सुज़ैना के पिता ने उन्हें भारत में बिताए अपने दिनों की कुछ कहानियां तो सुनाई थीं। जैसे कि फादर क्रिसमस एक रोज़ हाथी पर सवार होकर आए थे। लेकिन, उन्होंने सुज़ैना को बहुत ज़्यादा बातें नहीं बताई थीं। इन क़िस्सों में भी सुज़ैना के दादा का ज़िक्र बहुत कम आया था। उनकी मौत 1943 के आख़िरी दिनों में हो गई थी।
 
बंगाल में पड़े अकाल पड़ने के पीछे बहुत से और जटिल कारण रहे थे। इसमें कोई शक नहीं कि उस दौरान जॉन हरबर्ट बंगाल में ब्रिटिश औपनिवेशक हुकूमत की सबसे अहम शख़्सियत थे। लेकिन, वो एक बड़े साम्राज्यवादी ढांचे का एक हिस्सा मात्र थे। वो दिल्ली में बैठे अपने आला अधिकारियों को रिपोर्ट करते थे और वो अधिकारी लंदन में बैठे अपने बॉस के प्रति जवाबदेह थे।
 
डॉक्टर जनम मुखर्जी एक इतिहासकार और हंगरी बंगाल किताब के लेखक हैं। वो मुझे बताते हैं कि जॉन हरबर्ट ‘इस अकाल से सीधे तौर पर जुड़े साम्राज्यवादी अधिकारी थे। क्योंकि वो उस वक़्त बंगाल सूबे के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी थे।’
 
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जॉन हरबर्ट ने बंगाल में जो नीतियां लागू कीं, उनमें से सबसे अहम फ़ैसले को ‘महरूम करने’ के तौर पर जाना जाता है। इस नीति के तहत पूरे बंगाल सूबे के हज़ारों गांवों में नावों और लोगों के मुख्य भोजन चावल को ज़ब्त करके उन्हें नष्ट कर दिया गया था।
 
ऐसा, बंगाल पर जापान के हमले के डर की वजह से किया गया था। इसका मक़सद था कि अगर दुश्मन हमला करे, तो उसे भारत में आगे बढ़ने में मदद करने वाले स्थानीय संसाधन हासिल न हों।
 
हालांकि, इस उपनिवेशवादी नीति की वजह से बंगाल की पहले से ही नाज़ुक अर्थव्यवस्था बुरी तरह तबाह हो गई थी। नावें ज़ब्त होने से मछुआरे समुद्र में नहीं जा सकते थे। किसान, नदियां पार करके अपने खेतों तक नहीं पहुंच सकते थे। कारीगर अपना सामान बाज़ार तक नहीं ले जा सकते थे। और, सबसे अहम बात ये कि बंगाल के प्रमुख खाद्यान्न चावल को कहीं लाया ले जाया नहीं जा सकता था।
 
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युद्ध के बीच खाद्यान्न संकट
उस दौर में महंगाई पहले ही आसमान छू रही थी, क्योंकि दिल्ली की औपनिवेशिक सरकार विशाल एशियाई मोर्चे पर चल रही जंग का ख़र्च उठाने के लिए धड़ाधड़ नोटें छाप रही थी।
 
कोलकाता- जो उस वक़्त कलकत्ता था- में मित्र राष्ट्रों के लाखों सैनिक तैनात थे, जिनकी वजह से खाद्य संसाधनों पर बोझ बहुत बढ़ गया था।
 
जब बर्मा पर जापानियों ने क़ब्ज़ा कर लिया, तो वहां से बंगाल को चावल का आयात बंद हो गया। मुनाफ़ाख़ोरी के लिए चावल की जमाखोरी होने लगी। इसी दौरान एक भयंकर समुद्री चक्रवात ने बंगाल में धान की ज़्यादातर फसलों को तबाह कर दिया था।
 
विश्व युद्ध के दौरान, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल और उनकी वॉर कैबिनेट से बार-बार खाद्यान्न के आयात की मांग की गई। लेकिन, चर्चिल की सरकार ने या तो ये मांग सिरे से ख़ारिज कर दी या फिर उस पर ध्यान नहीं दिया।
 
अकाल में मारे गए लोगों की तादाद बहुत अधिक है। मैं सोचती हूँ कि बंगाल के तत्कालीन गवर्नर की पोती सुज़ैना आख़िर इतने दशकों बाद इस बात पर शर्मिंदगी क्यों महसूस कर रही हैं। वो मुझे समझाने की कोशिश करते हुए कहती हैं कि, ‘जब मैं छोटी थी तो ब्रिटिश साम्राज्य से किसी भी तरह का ताल्लुक़ बहुत आकर्षक लगता था।’
 
वो कहती हैं कि बचपन में वो अपने दादा के कपड़ों में से कुछ कपड़े निकालकर इस्तेमाल करती थीं। सुज़ैना बताती हैं कि, ‘उनमें रेशम के रूमाल थे। उन पर लगे लेबल में मेड इन ब्रिटिश इंडिया-लिखा होता था।’
 
‘और अब जब मैं उन्हें अल्मारी के पिछले हिस्से में रखा हुआ देखती हूं, तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और मैं कहती हूं कि मैं ये सब क्यों ही पहनना चाहूंगी? क्योंकि अब इन कपड़ों पर लगा हुआ ‘ब्रिटिश भारत’ का लेबल’ पहनना अब अनुचित मालूम होता है।’
 
पुराने दस्तावेज़ों से क्या पता चला
सुज़ैना ने ब्रिटिश भारत में अपने दादा की ज़िंदगी के बारे में और जानकारी जुटाने और सारी बातें समझने का पक्का इरादा कर लिया है। वो बंगाल के अकाल पर वो सब कुछ पढ़ने की कोशिश कर रही हैं, जो उन्हें हासिल हो सकता है। इन दिनों वो अपने दादा-दादी के दस्तावेज़ों को खंगाल रही हैं। ये दस्तावेज़ वेल्श में उनके पारिवारिक मकान में बनाए गए हरबर्ट आर्काइव में रखे हुए हैं।
 
उन्हें नियंत्रित तापमान वाले एक कमरे में रखा गया है और ऐसे दस्तावेज़ सहेजने में माहिर एक शख़्स महीने में एक बार उनकी देख-रेख के लिए आता है। इन काग़ज़ात को पढ़ते-पढ़ते सुज़ैना को अपने दादा को लेकर समझ और बढ़ी है।
 
वो कहती हैं कि, ‘इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने जो नीतियां लागू कीं या जिनकी शुरुआत की, उनकी वजह से अकाल का दायरा और इसका असर बहुत बढ़ गया।’
 
सुज़ैना कहती हैं कि, ‘उनके पास हुनर था। उनकी एक प्रतिष्ठा थी और उनको कभी भी ब्रिटिश हुकूमत के एक कोने में स्थित बंगाल सूबे में छह करोड़ लोगों की क़िस्मत तय करने के लिए गवर्नर नहीं नियुक्त किया जाना चाहिए था। उनको वहां नहीं तैनात किया जाना चाहिए था।’
 
परिवार के पुराने काग़ज़ात में सुज़ैना को एक चिट्ठी मिली। ये चिट्ठी उनकी दादी लेडी मैरी ने अपने पति को 1939 में उस वक़्त लिखी थी, जब उन्हें पता चला था कि जॉन हरबर्ट को बंगाल का गवर्नर बनाने की पेशकश की गई है।
 
इस चिट्ठी में अच्छी बातें भी हैं और कुछ बुरी भी हैं। सुज़ैना की दादी की ये ख़्वाहिश बिल्कुल नहीं थी कि वो बंगाल जाएं। हालांकि, लेडी मैरी ने चिट्ठी में ये भी लिखा था कि उन्हें अपने पति का फ़ैसला क़ुबूल होगा।
 
सुज़ैना बताती हैं कि, ‘आप वो चिट्ठियां उस दौर की जानकारी के साथ पढ़ते हैं। आज आपको वो सारी बातें मालूम हैं, जो उस वक़्त चिट्ठी लिखने और उसे पढ़ने वाले को पता नहीं थी। अगर आप गुज़रे हुए दौर में पहुंच सकते तो आप उनसे यही कहते: ऐसा मत करो। मत जाओ। भारत मत जाओ। तुम अच्छा काम नहीं कर सकोगे।’
 
पिछले कई महीनों से मैं सुज़ैना हरबर्ट से उनके अतीत के इस सफ़र के बारे में बातचीत कर रही हूं। इस दौरान सुज़ैना ने अपने दादा को लेकर कई सवाल विस्तार से तैयार किए हैं।
 
वो इतिहासकार जनम मुखर्जी से मिलने को उत्सुक रही हैं ताकि उनसे सीधे ये सारे सवाल कर सकें। उन दोनों की मुलाक़ात जून महीने में हुई।
 
जनम ये स्वीकार करते हैं कि उन्होंने कभी ये तसव्वुर नहीं किया था कि वो जॉन हरबर्ट की पोती के साथ आमने-सामने बैठकर बातें करेंगे।
 
सुज़ैना ये जानना चाहती हैं कि उनके दादा, जो एक राज्य स्तर के सांसद और सरकार के सचेतक (व्हिप) थे, उनको आख़िर बंगाल का गवर्नर क्यों नियुक्त किया गया था। जबकि उनको तो भारत की राजनीति का कोई तजुर्बा नहीं था। वो तो एक युवा अधिकारी के तौर पर बस कुछ दिनों के लिए दिल्ली में रहे थे।
 
जनम मुखर्जी इस सवाल के जवाब में समझाते हैं कि, ‘उपनिवेशवाद का तो यही तौर-तरीक़ा होता है और इसकी जड़ ख़ुद को श्रेष्ठ समझने की सोच में है।’
 
वो कहते हैं कि, ’कुछ सांसद जिनको उपनिवेशों में काम करने का कोई तजुर्बा नहीं होता। जिनको स्थानीय भाषा की कोई समझ नहीं होती। जिन्होंने ब्रिटेन के बाहर की किसी सियासी व्यवस्था में काम नहीं किया होता, वो भी सीधे कलकत्ता में गवर्नर के आवास में भेजे जा सकते हैं और वहां बैठकर वो उन लोगों की पूरी आबादी के बारे में फ़ैसले ले सकते हैं, जिनके बारे में उनको कोई जानकारी नहीं होती।’
 
बंगाल अकाल में 30 लाख लोग मरे
वैसे भी जॉन हरबर्ट, बंगाल में चुने हुए भारतीय राजनेताओं के बीच लोकप्रिय नहीं थे। वहीं, दिल्ली में बैठे उनसे वरिष्ठ अधिकारियों को भी उनकी क़ाबिलियत पर भरोसा नहीं था। इनमें उस वक़्त के वायसराय लिनलिथगो भी शामिल थे।
 
जनम मुखर्जी कहते हैं कि, ‘लिनलिथगो उन्हें भारत का सबसे कमज़ोर गवर्नर कहते थे। सच्चाई तो ये है कि वो उन्हें हटाना चाहते थे। लेकिन, उनको इस बात की फ़िक्र थी कि इस फ़ैसले पर न जाने कैसी प्रतिक्रिया हो।’
 
सुज़ैना कहती हैं कि, ‘ये सब सुनना बड़ा मुश्किल है।’ मैं इस बात से हैरान हूं कि जनम और सुज़ैना का बंगाल के अकाल से एक निजी रिश्ता है। जनम और सुज़ैना दोनों के पिता लगभग उसी दौर में हम उम्र छोटे बच्चे थे। हालांकि, दोनों बिल्कुल ही अलग-अलग ज़िंदगियां जी रहे थे। अब उन दोनों का निधन हो चुका है। सुज़ैना के पास तो कम से कम कुछ तस्वीरें हैं।
 
पर, जनम के पास अपने पिता के बचपन की कोई तस्वीर नहीं है। वो कहते हैं कि, ‘आज मुझे जो कुछ भी पता है वो मुझे मेरे पिता ने अपने बचपन के अनुभव के तौर पर बताए थे और उन्होंने एक औपनिवेशिक युद्ध क्षेत्र से जुड़े अपने बुरे ख़्वाब भी मुझसे साझा किए थे।’
 
जनम कहते हैं कि, ‘मैं सोचता हूं कि उस वक़्त मेरे पिता की ज़िंदगी किस क़दर टूटी फूटी रही होगी और मैं ये समझने की कोशिश करता हूं कि उनकी औलाद के तौर पर मुझ पर इसका क्या असर हुआ होगा।’
 
और तभी वो ऐसी बात कहते हैं, जिसकी मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। जनम ने बताया कि, ‘मेरे दादा भी साम्राज्यवादी पुलिस बल में काम करते थे। इस तरह मेरे दादा भी कई तरह से उस उपनिवेशवादी हुकूमत से मिले हुए थे। सब कुछ समझने की हमारी प्रेरणा के पीछे ये दिलचस्प समानताएं भी हैं।’
 
बंगाल के अकाल में कम से कम 30 लाख लोगों की जान चली गई थी और उन लोगों की याद में न तो कोई स्मारक बना और न ही उनके लिए कहीं एक पट्टी लगी। सुज़ैना कम से कम अपने दादा के एक स्मारक की तरफ़ तो इशारा कर ही सकती हैं। वो कहती हैं कि, ‘हम जिस चर्च में पूजा करने जाते हैं, वहां उनकी याद में एक पट्टिका लगी है।’
 
वो बताती हैं कि चर्च में ये पट्टिका इसलिए लगी है, क्योंकि उनके दादा की कोई क़ब्र नहीं है। उनको ठीक ठीक ये भी नहीं पता कि उनके दादा के अवशेष शायद कोलकाता में हों, या न हों।
 
अपने दादा के लिए सुज़ैना सबसे ज़्यादा जो शब्द इस्तेमाल करती हैं, वो है मान-सम्मान का। हालांकि, वो उनकी नाकामियों को भी स्वीकार करती हैं।
 
सुज़ैना कहती हैं कि, ‘मेरे लिए ये क़बूल करना काफ़ी आसान है कि इतिहास जैसा हमें पढ़ाया गया, उससे कहीं ज़्यादा जटिल है। फिर भी मेरे लिए ये कल्पना करना काफ़ी मुश्किल है कि जॉन हरबर्ट […] किसी भी तरह से अपनी शान के ख़िलाफ़ बर्ताव कर रहे थे।’
 
जनम मुखर्जी का नज़रिया इससे अलग है। वो कहते हैं कि, ‘नीयत से जुड़े इन सवालों में मेरी दिलचस्पी कभी नहीं रही। मेरी दिलचस्पी तो ऐतिहासिक घटनाक्रम में है। क्योंकि मुझे लगता है कि जो कुछ घटित होता है, उस पर नीयत अक्सर मुलम्मा चढ़ा देती है।’
 
एक जटिल विरासत की छानबीन
आठ साल की कोशिशों के बाद भी सुज़ैना के लिए ये मसला पेचीदा और बिल्कुल ताज़ा बना हुआ है। मैं सोचती हूं कि महीनों की अपनी रिसर्च के बाद भी सुज़ैना जो कुछ सोचती और महसूस करती हैं, क्या उसे ‘शर्मिंदगी’ कहा जा सकता है?
 
वो मुझे बताती हैं कि उन्होंने अपना नज़रिया बदल लिया है। सुज़ैना का कहना है कि, ‘मुझे लगता है कि शर्मिंदगी से ये पूरा घटनाक्रम मेरे ऊपर कुछ ज़्यादा ही केंद्रित हो जाता है। ये सिर्फ़ मेरी बात नहीं कि मैं क्या सोचती हूं।’
 
‘मुझे लगता है कि ये तो एक बड़ी परियोजना का हिस्सा है। जिसमें हम ये समझने की कोशिश कर रहे हैं कि उस वक़्त हुआ क्या था और हम कहां से चले थे और कहां तक पहुंचे। हम? मेरा मतलब है ब्रिटेन, मेरा ये देश।’
 
जनम भी मानते हैं कि, ‘एक औपनिवेशिक हुकूमत के अधिकारी की वारिस के तौर पर मुझे नहीं लगता कि कोई शर्मिंदगी है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती जाती है। मुझे लगता है कि ये ब्रिटेन के लिए शर्मिंदा होने की बात है।’
 
जनम कहते हैं कि, ‘मेरे कहने का मतलब है कि बंगाल में लाखों लोग भूख से मर गए। तो मुझे लगता है कि ये निजी स्तर और सामूहिक तौर पर एक ऐतिहासिक घटना की समीक्षा है।’
 
सुज़ैना अपनी विरासत के बारे में सोच विचार कर रही हैं। वो अपनी तलाश के नतीजे अपने परिवार के दूसरे सदस्यों से साझा करना चाहती हैं। हालांकि, उनको नहीं पता कि परिवार के बाक़ी लोग इस सच्चाई को किस तरह देखेंगे।
 
सुज़ैना को उम्मीद है कि शायद उनके बच्चे उन्हें वेल्श के पारिवारिक संग्रहालय में जमा दस्तावेज़ों के पहाड़ से ज़रूरी चीज़ें तलाशने में मदद करें।
 
आज जब ब्रिटेन ये समझने की कोशिश कर रहा है कि वो अपने युद्ध इतिहास और उपनिवेशवादी तारीख़ का सामना किस तरह करे, तो सुज़ैना के बच्चे भी एक जटिल निजी विरासत से जूझ रहे हैं।

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