इंदिरा गांधी की आवाज बनाकर बैंक से कैसे हुई थी 60 लाख रुपए की ऐतिहासिक ठगी

BBC Hindi
शनिवार, 3 अगस्त 2024 (08:16 IST)
रेहान फजल, बीबीसी हिंदी
दिन के ग्यारह बजकर 35 मिनट पर स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की संसद मार्ग शाखा के चीफ़ कैशियर वेद प्रकाश मल्होत्रा अपने केबिन में बैठे किसी ग्राहक से बात कर रहे थे। तभी उनके फ़ोन नंबर 45486 की घंटी बजी। जैसे ही मल्होत्रा ने फ़ोन उठाया, दूसरे छोर से फ़ोन पर कहा गया, ‘प्रधानमंत्री के सचिव पीएन हक्सर आप से बात करेंगे।’
 
हाल ही में प्रकाशित किताब, ‘द स्कैम दैट शुक अ नेशन’ में प्रकाश पात्रा और रशीद किदवई लिखते हैं, “थोड़े अंतराल के बाद मल्होत्रा को दूसरी आवाज़ फ़ोन पर सुनाई दी: मैं प्रधानमंत्री का सचिव बोल रहा हूँ। मुझे आपसे एक बहुत ही गुप्त मिशन के बारे में बात करनी है।
 
भारत की प्रधानमंत्री चाहती हैं कि एक गुप्त काम के लिए 60 लाख रुपए तुरंत उपलब्ध कराए जाएं। वो एक शख़्स को भेजेंगी। आपको वो रुपए उनके हवाले करने होंगे।”
 
मल्होत्रा ने उनसे पूछा क्या ये रुपए किसी चेक या पावती के एवज़ में दिए जाएंगे तो जवाब आया, “रसीद या चेक आपको बाद में भेज दिए जाएँगे। आप एक गाड़ी में रुपए लेकर फ़्रीचर्च पर पहुंच जाइए, क्योंकि ये पैसा वायुसेना के विमान से बांग्लादेश भेजा जाना है। इसके बारे में आप किसी से कोई चर्चा नहीं करेंगे।’’
 
कोडवर्ड तय किया गया
अपने 26 साल के करियर में मल्होत्रा को पहले कभी इस तरह का आदेश नहीं दिया गया था। जैसे ही उन्होंने इस आदेश को पूरा करने में थोड़ी आनाकानी दिखाई दूसरे छोर पर बात कर रहे व्यक्ति ने कहा, ‘लीजिए, आप प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से खुद बात कर लीजिए।’
 
दूसरी ओर से महिला की आवाज़ आई, “जैसा मेरे सचिव ने आपको बताया कि बांग्लादेश में एक ज़रूरी गुप्त ऑपरेशन के लिए तुरंत 60 लाख रुपयों की ज़रूरत है। इसको भेजने की तुरंत व्यवस्था करिए। मैं अपना एक आदमी हक्सर की बताई हुई जगह पर भेज रही हूँ। आप ये पैसा उसके हवाले कर दीजिए।”
 
प्रकाश पात्रा और राशिद किदवई लिखते हैं, “मल्होत्रा ने पूछा, मैं उस शख़्स को पहचानूँगा कैसे, इस पर महिला ने जवाब दिया, वो शख्स आपसे कोडवर्ड में बात करेगा और आपसे कहेगा ‘मैं बांग्लादेश का बाबू हूँ।’ आपको जवाब देना होगा, ‘मैं बार एट लॉ हूँ।’ पैसा देने के बाद आप सीधे मेरे घर आइए। आपको इसकी रिसीप्ट दे दी जाएगी।”
 
मल्होत्रा वहाँ से उठे और सीधे अपने अपने सहायक रामप्रकाश बत्रा के केबिन में पहुंचे। उन्होंने बत्रा से पूछा, “इस समय सौ रुपए के कितने बंडल आपके पास हैं ?” बत्रा ने कैश रजिस्टर पर नज़र मारकर कहा कि करीब 180 या 190 बंडल यानी करीब 1।8 से 1।9 लाख रुपए।
 
मल्होत्रा ने उनसे तुरंत 60 लाख रुपयों का इंतज़ाम करने को कहा, इसके बाद बत्रा ने कैश इन्चार्ज हकूमत राय खन्ना के केबिन में जाकर कहा कि चीफ़ कैशियर को 60 लाख रुपयों की ज़रूरत है।
 
अभी ये दोनों बात ही कर रहे थे कि मल्होत्रा भी केबिन में दाख़िल हो गए। जब खन्ना ने मल्होत्रा से पूछा कि इतने रुपयों की ज़रूरत कैसे आ पड़ी तो मल्होत्रा ने जवाब दिया, “ये एक टॉप सीक्रेट काम है। काम हो जाने के बाद मैं इसके बारे में आपको बताऊँगा।”
 
इसके बाद बत्रा और खन्ना ने स्ट्रॉन्ग रूम खुलवा कर 60 लाख रुपयों का इंतज़ाम करवाया। ये पैसे एक ट्रंक में रखवा कर हेड कैशियर रवेल सिंह के केबिन में लाए गए।
 
टॉप सीक्रेट मिशन की तैयारी
बाद में मल्होत्रा ने इस मामले की जाँच के लिए बनाए गए जगनमोहन रेड्डी कमीशन के सामने दी गई गवाही में कहा, “मैंने बगल की बिल्डिंग से बैंक के सिक्योरिटी अफ़सर एससी सिन्हा को इंटरकॉम पर फ़ोन किया। फ़ोन सहायक सुरक्षा अधिकारी बरुन मित्रा ने उठाया।”
 
“मैंने मित्रा से कहा कि मुझे एक एंबेसडर कार दी जाए क्योंकि मुझे एक टॉप सीक्रेट सरकारी काम पर जाना है। मैंने उनसे ये भी कहा कि मुझे ड्राइवर की ज़रूरत नहीं है। मैं कार ख़ुद ड्राइव करूँगा।”
 
मित्रा ने उन्हें ड्राइवर के बिना कार देने से साफ़ इनकार कर दिया। इस बीच दो कुली कैश बाक्स को उस जगह ले आए जहाँ एक एंबेसडर कार उनका इंतज़ार कर रही थी। वहाँ पर कार के ड्राइवर संतोष कुमार और गार्ड मन बहादुर मौजूद थे।
 
संतोष ने कार की डिक्की खोली और दोनों कुलियों ने नोटों से भरा ट्रंक उस डिक्की में रख दिया। बाद में संतोष कुमार ने पुलिस को दिए बयान में बताया कि उस ट्रंक का साइज़ इतना बड़ा था कि डिक्की बंद नहीं हो पा रही थी।
 
संतोष ने अपने बॉस से शिकायत की कि मल्होत्रा बाकायदा उनके हाथ से चाबी छीनकर ड्राइविंग सीट पर जा बैठे और उन्होंने गार्ड मन बहादुर को भी अपने साथ नहीं आने दिया।
 
वेद प्रकाश मल्होत्रा ने बैंक से महज़ 100 मीटर दूर फ़्री चर्च पर अपनी गाड़ी रोकी। उस समय दोपहर के साढ़े 12 बजे थे। एक लंबे, चौड़े गोरे रंग के शख़्स, जिसने जैतूनी रंग की टोपी पहन रखी थी उनकी तरफ़ बढ़ कर कहा, ‘मैं बांग्लादेश का बाबू हूँ।’
 
मल्होत्रा ने अपने बयान में कहा, ‘मैंने भी कहा, मैं बार एट लॉ हूँ। उसने कहा, चलिए। वो भी एंबेसडर कार में बैठ गया लेकिन कार स्टार्ट ही नहीं हुई। मैंने उससे पूछा, क्या आप कार चलाना जानते है ? उसने कहा, ‘हाँ।’ तब मैंने उससे कहा कि आप ड्राइविंग सीट पर आकर बैठिए। मैं कार से उतर कर उसे धक्का देने लगा। जैसे ही इंजन स्टार्ट हुआ मैं फिर से ड्राइविंग सीट पर आकर बैठ गया।
 
मल्होत्रा ने जाँच अधिकारियों को बताया, “उस आदमी ने मुझसे कहा कि उसे पालम हवाई अड्डे जाना है। मैंने पेशकश की कि मैं उसे पालम तक छोड़ दूँगा, लेकिन उसने कहा कि ये ठीक नहीं होगा। थोड़ी देर बाद उसने पंचशील मार्ग पर एक टैक्सी स्टैंड पर कार रुकवा कर कहा कि मैं यहाँ से टैक्सी ले लूँगा। आप सीधे प्रधानमंत्री निवास पर चले जाइए। वो आपसे एक बजे मिलेंगी।”
 
मल्होत्रा ने बताया कि उन्होंने टैक्सी ड्राइवर और ‘बांग्लादेश के बाबू’ के साथ मिलकर नोटों से भरा ट्रंक टैक्सी में शिफ़्ट किया। उसके बाद मैंने ट्रंक की चाबी उस शख़्स को सौंप दी। जैसे ही वो टैक्सी में बैठा, उसने कहा, मेरा नाम अज़ीज़ है... जय बांग्लादेश। जय भारत माता।
 
हक्सर ने फ़ोन करने से इनकार किया
बाद में ‘बांग्लादेश के बाबू’ की शिनाख़्त रुस्तम सोहराब नागरवाला के नाम से हुई जो सेना के एक पूर्व कैप्टन थे।
मल्होत्रा ने ये अक्लमंदी की कि जाने से पहले उसने टैक्सी का नंबर नोट कर लिया। नंबर था डीएलटी 1622। इसके बाद मल्होत्रा ने अपनी कार प्रधानमंत्री निवास की तरफ़ दौड़ा दी।
 
करीब 12 बजकर 45 मिनट पर वो प्रधानमंत्री के निवास स्थान 1 अकबर रोड के अंदर घुसे। वहाँ पर उन्हें पता चला कि प्रधानमंत्री अपने घर पर नहीं हैं। वो संसद भवन चली गई हैं। उस ज़माने में प्रधानमंत्री निवास की सुरक्षा व्यवस्था आज जैसी नहीं होती थी। एक आम आदमी उनके घर के गेट तक जाकर उनकी झलक पा सकता था।
 
संसद भवन में जब उन्होंने इंदिरा गाँधी से मिलने की इच्छा प्रकट की तो उनके निजी सचिव एनके शेषन बाहर आए। मल्होत्रा ने सारी घटना शेषन को बताई। शेषन ने सारी बात प्रधानमंत्री तक पहुंचाई।
 
मल्होत्रा ने हक्सर को भी फ़ोन किया जो उस समय साउथ ब्लॉक में थे। हक्सर तुरंत संसद भवन पहुंचे। मल्होत्रा ने सुबह से उनके साथ जो कुछ घटित हुआ था सबकी जानकारी हक्सर को दी।
 
बाद में हक्सर ने रेड्डी कमीशन के सामने कहा, “मैंने पूरी कहानी सुनी और मल्होत्रा से कहा कि वो तुरंत नज़दीक के पुलिस स्टेशन जाएं और इस जालसाज़ी की रिपोर्ट लिखवाएं। मैंने मल्होत्रा को स्पष्ट कर दिया कि उन्हें न तो मैंने कोई टेलीफ़ोन किया था और न ही प्रधानमंत्री ने।”
 
रिपोर्ट दर्ज होते ही पुलिस ने नागरवाला को पकड़ने के लिए ‘ऑपरेशन तूफ़ान’ शुरू कर दिया।
 
नागरवाला की गिरफ़्तारी
इसके बाद पुलिस हरकत में आ गई और उसने रात करीब पौने दस बजे नागरवाला को दिल्ली गेट के पास पारसी धर्मशाला से पकड़ लिया और डिफेंस कॉलोनी में उसके एक मित्र के घर 59 लाख 94 हज़ार 300 रुपए बरामद भी कर लिए। सिर्फ़ 5700 रुपए कम पाए गए।
 
उसी दिन आधी रात को पुलिस ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर बताया कि टैक्सी स्टैंड से नागरवाला राजेंदर नगर में एक घर में गया। वहाँ से उसने एक सूटकेस लिया। वहाँ से वो पुरानी दिल्ली के निकल्सन रोड गया।
 
वहाँ पर ड्राइवर के ही सामने उसने ट्रंक से निकाल कर सारे रुपए सूटकेस में रखे। ड्राइवर को ये राज़ अपने तक ही सीमित रखने के लिए उसने 500 रुपए टिप भी दी थी। उस समय संसद का सत्र चल रहा था।
 
इंदर मल्होत्रा इंदिरा गाँधी की जीवनी ‘इंदिरा गाँधी अ पर्सनल एंड पोलिटिकल बायोग्राफ़ी’ में लिखते हैं, “जैसी उम्मीद थी, संसद में इस पर जमकर हंगामा हुआ। कुछ ऐसे सवाल थे जिनके जवाब सामने नहीं आ रहे थे।
 
मसलन, क्या इससे पहले भी प्रधानमंत्री ने वेद प्रकाश मल्होत्रा से बातचीत की थी ? अगर नहीं, तो उसने इंदिरा गांधी की आवाज़ कैसे पहचानी? क्या बैंक का कैशियर सिर्फ़ ज़ुबानी आदेश पर बैंक से इतनी बड़ी रकम निकाल सकता था ? और सबसे बड़ी बात ये पैसा था किसका ?”
 
इंदिरा गाँधी के पूर्व प्रधान सचिव पीएन हक्सर और निजी सचिव एनके शेषन दोनों ने रेड्डी कमीशन को बताया कि इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री रहते हुए कभी सीधे बैंक के संपर्क में नहीं रहीं।
 
इंदिरा गाँधी ने भी अपने दो पन्ने के लिखित बयान में कहा, “बैंक में मेरे निजी खाते से जुड़े सारे मामले भी मेरे निजी सचिव देखा करते थे। मैंने आज तक बैंक जाकर अपने खाते से पैसा नहीं निकाला।”
 
27 मई, 1971 को नागरवाला ने अदालत में अपना जुर्म कुबूल कर लिया। शायद भारत के न्यायिक इतिहास में पहली बार हुआ कि किसी व्यक्ति के गिरफ़्तार किए जाने के तीन दिन के अंदर उस पर मुक़दमा चला कर उसे सज़ा भी सुना दी गई।
 
रुस्तम नागरवाला को चार साल के सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई गई और एक हज़ार रुपए का जुर्माना भी किया गया।
 
कौन था नागरवाला?
नागरवाला के पास मिले कागज़ों से पता चला कि सेना का ये पूर्व कैप्टेन अंग्रेज़ी, फ़्रेंच, जापानी, हिंदी, मराठी और गुजराती भाषाएं बोलना जानता था। वो एक टूरिस्ट टैक्सी सर्विस चलाया करता था। उसके पास एक पेशेवर ड्राइविंग लाइसेंस था।
 
वो कुछ दिन जापान के शहर नागोया में रहा था जहाँ वो अमेरिकन कल्चरल सेंटर और नागोया विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी पढ़ाया करता था। उसके बायोडाटा में लिखा था कि वो घुड़सवारी कर सकता था। तैराकी में उसे महारत हासिल थी।
 
वो ब्रिज खेलने और भारतीय खाना बनाने का भी शौकीन था। उसके पास से एक रिवॉल्वर भी बरामद हुई थी। उसके दोस्त उसे ‘रूसी’ कह कर पुकारते थे।
 
नागरवाला ने जाँच अधिकारी देविंदर कुमार कश्यप के सामने स्वीकार किया कि उसने ही पीएन हक्सर और इंदिरा गाँधी की आवाज़ में मल्होत्रा से बात की थी। कश्यप को यकीन ही नहीं हुआ कि एक शख़्स एक महिला की आवाज़ कैसे बना सकता है?
 
प्रकाश पात्रा और राशिद किदवई लिखते हैं कि कश्यप को यकीन दिलाने के लिए नागरवाला ने इंदिरा गाँधी की आवाज़ उन्हें बनाकर सुनाई। पुलिस ने तय किया कि मल्होत्रा और नागरवाला की बातचीत फ़ोन पर दोबारा करवा कर उसे रिकार्ड किया जाए।
 
नागरवाला को पुलिस स्टेशन पर बैठाया गया और मल्होत्रा को एसपी राजपाल के दफ़्तर में बैठाकर ये बातचीत रिकार्ड की गई। नागरवाला को इस रिकार्डिंग की जानकारी नहीं दी गई। इससे पुलिस अधिकारियों को यकीन हो गया कि नागरवाला में इंदिरा गाँधी की आवाज़ की नकल करने की क्षमता थी।
 
नागरवाला ने बताया कि उसे बैंक को ठगने का विचार तब आया जब वो वहाँ 100 रुपए के नोट का छुट्टा कराने गया था। इस पूरे प्रकरण में उसका कोई साथी नहीं था।
 
नागरवाला ने अदालत में ये कबूल किया कि उसने बांगलादेश अभियान का बहाना बनाकर मल्होत्रा को बेवकूफ़ बनाया था लेकिन बाद में उसने अपना बयान बदल दिया और फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील कर दी। उसकी माँग थी कि इस मुक़दमे की सुनवाई फिर से हो लेकिन 26 अक्तूबर, 1971 को नागरवाला की ये माँग ठुकरा दी गई।
 
इस केस में एक रहस्यमय मोड़ तब आया जब 20 नवंबर, 1971 को इस केस की जाँच कर रहे एएसपी डीके कश्यप की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। उस समय वे अपने हनीमून के लिए जा रहे थे।
 
इस बीच नागरवाला ने उस समय के एक मशहूर साप्ताहिक अख़बार ‘करंट’ के संपादक डीएफ़ कराका को पत्र लिखकर कहा कि वो उन्हें इंटरव्यू देना चाहते हैं।
 
तभी कराका की अचानक तबीयत ख़राब हो गई इसलिए उन्होंने अपने असिस्टेंट को उनका इंटरव्यू लेने भेजा लेकिन नागरवाला ने उसे इंटरव्यू देने से इनकार कर दिया।
 
सन 1972 में फ़रवरी महीने की शुरुआत में उन्हें तिहाड़ जेल के अस्पताल में भर्ती किया गया। वहाँ से उसे 21 फ़रवरी को जीबी पंत अस्पताल लाया गया। वहाँ 22 मार्च को उसकी तबीयत ख़राब हो गई और दो बजकर 15 मिनट पर दिल का दौरा पड़ने से नागरवाला का निधन हो गया। उसी दिन उनका 51वां जन्मदिन था।
 
कई अनसुलझे सवाल
वर्ष 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार आई तो उसने नागरवाला की मौत की परिस्थितियों की जाँच के लिए जगनमोहन रेड्डी आयोग बनाया, मगर इस जाँच में कुछ भी नया निकल कर सामने नहीं आया।
 
सवाल उठते रहे कि अगर इस तरह का भुगतान करना भी था तो बैंक के मैनेजर से संपर्क स्थापित न करके चीफ़ कैशियर से क्यों संपर्क किया गया ? क्या स्टेट बैंक को बिना वाउचर या चेक इतनी बड़ी रकम देने का अधिकार मिला हुआ था ?
 
इंदिरा गाँधी की मौत के दो साल बाद हिंदुस्तान टाइम्स के 11 और 12 नवंबर, 1986 के अंक में ये आरोप लगाया गया था कि मल्होत्रा रॉ के लिए नहीं, बल्कि सीआईए के लिए काम करते थे और इस पूरे प्रकरण का उद्देश्य इंदिरा गाँधी को बदनाम करना था।
 
ख़ास तौर से उस समय जब उनकी बांग्लादेश नीति के कारण निक्सन प्रशासन उनसे काफ़ी नाराज़ था लेकिन इस आरोप के समर्थन में कोई साक्ष्य नहीं पेश किए गए थे। न तो इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया गया था कि एक बैंक के कैशियर ने बिना किसी दस्तावेज़ के इतनी बड़ी रकम किसी अनजान शख़्स को कैसे सौंप दी ?
 
यह रकम आज भले ही बहुत बड़ी नहीं लगती लेकिन उस ज़माने के लिए यह बहुत बड़ी रकम थी। अगर आप मुद्रास्फ़ीति को देखते हुए हिसाब लगाएँ तो यह रक़म तकरीबन 170 करोड़ रुपए के आसपास बैठती है।
 
रेड्डी आयोग ने पुलिस जाँच पर उठाए कई सवाल
इस ठगी की ज़्यादातर रकम बरामद कर ली गई थी और बाक़ी के पाँच हज़ार सात सौ रुपए मल्होत्रा ने अपनी जेब से भरे थे। अंतत: बैंक को इससे कोई माली नुक़सान नहीं पहुंचा था लेकिन इससे उसकी छवि ज़रूर ख़राब हुई थी। स्टेट बैंक ने विभागीय जाँच के बाद वेद प्रकाश मल्होत्रा को नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया था।
 
इंदिरा गाँधी ने रेड्डी कमीशन के सामने दिए गए अपने बयान में कहा कि वो मल्होत्रा से कभी नहीं मिलीं। उन्होंने याद किया कि जब गृह मंत्री चरण सिंह ने संसद में आरोप लगाया कि बैंक से बर्ख़ास्तगी के बाद मल्होत्रा को मारुति फ़ैक्ट्री में नौकरी दी गई, उन्होंने इस बारे में सारी जानकारी इकट्ठी की और पाया कि मल्होत्रा का मारुति से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था।
 
23 अक्तूबर, 1978 को दी गई अपनी अंतिम रिपोर्ट में रेड्डी कमीशन ने दिल्ली पुलिस की जाँच पर कई सवाल उठाए। उसके अनुसार जाँच के कई पहलुओं की अनदेखी की गई। इस मामले में पुलिस जाँच के उस नियम का पालन नहीं किया गया कि जब तक किसी को पूरी क्लीन चिट नहीं मिल जाती वो संदिग्ध बना रहता है।
 
कमीशन ने पाया कि इस मामले में एफ़आईआर जाँच शुरू होने के बाद दर्ज की गई और उसे पुलिस ने खुद ड्राफ़्ट किया वो भी पैसा बरामद होने के बाद।
 
नागरवाला ने अपने बयान में दावा किया था कि वायुसेना का एक विमान उसका इंतज़ार कर रहा था ताकि पैसे को बांग्लादेश पहुंचाया जा सके। लेकिन इस बात की आगे जाँच नहीं की गई।
 
न्यायमूर्ति रेड्डी ने अपने निष्कर्ष में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान नाज़ी सोवियत समझौते पर चर्चिल की टिप्पणी का उल्लेख करते हुए कहा, ‘ये मामला भी एक पहेली है जिसके रहस्यों से पर्दा उठाया नहीं जा सका है।’

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