अस्पताल जाने से पहले आपको अपने अधिकार पता हैं?

Webdunia
गुरुवार, 7 जुलाई 2016 (18:57 IST)
विनीत खरे बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
 
अस्पताल जाते वक्त बहुत कम लोगों को इस बात का एहसास होता है कि एक उपभोक्ता के नाते उनके भी अधिकार हैं। डॉक्टर अरुण गदरे और डॉक्टर अभय शुक्ल अपनी किताब 'डिसेंटिंग डायग्नोसिस' में लिखते हैं कि स्वास्थ्य सेवाएं देना किसी सामान बेचने जैसा नहीं है। डॉक्टर और मरीज का रिश्ता ख़ास होता है, जहां डॉक्टर मरीज की ओर से कई फैसले लेता है।
स्वास्थ्य सेवाएं देने वाले अस्पताल 'मेडिकल क्लीनिक कंज्यूमर प्रोटेक्शन ऐक्ट' के अंदर आते हैं। अगर डॉक्टर की लापरवाही का मामला हो या सेवाओं को लेकर कोई शिकायत हो तो उपभोक्ता हर्जाने के लिए उपभोक्ता अदालत जा सकते हैं। भारत में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की जिम्मेदारीहै कि वो ये सुनिश्चित करे कि डॉक्टर 'कोड ऑफ मेडिकल एथिक्स रेग्युलेशंस' का पालन करें, लेकिन आरोप है कि कई मामलों में ऐसा नहीं होता है। अपनी किताब में डॉक्टर गदरे और डॉक्टर शुक्ल ने मरीजों के अधिकारों और जिम्मेदारियों की बात की है। अस्पताल में दाखिल होने के पहले ये आठ बातें जरूर ध्यान में रखनी चाहिए।
 
1-इमरजेंसी मेडिकल मदद का अधिकार : अगर कोई व्यक्ति नाजुक स्थिति में अस्पताल पहुंचता है तो सरकारी और निजी अस्पताल के डॉक्टरों की जिम्मेदारी है कि उस व्यक्ति को तुरंत डॉक्टरी मदद दी जाए। इसका मतलब है सांस लेने में आ रही किसी दिक्कत को हटाना, खून के नुकसान की जांच करना, नसों के माध्यम से मरीज को तरल पदार्थ देना आदि।
जान बचाने के लिए जरूरी  स्वास्थ्य सुविधाएं देने के बाद ही अस्पताल मरीज से पैसे मांग सकते हैं या फिर पुलिस को जानकारी देने की प्रक्रिया शुरू कर सकते हैं। गरीब मरीजों की इमरजेंसी मेडिकल मदद के लिए एक आर्थिक फंड बनाने का प्रस्ताव किया गया था। लेकिन इसमें कोई ठोस प्रगति नहीं हुई।
 
2-खर्च की जानकारी का अधिकार : सभी मरीजों को जानकारी दी जानी चाहिए कि उनको क्या बीमारी है और इलाज का क्या नतीजा निकलेगा। साथ ही मरीज को इलाज पर खर्च, उसके फ़ायदे और नुकसान और इलाज के विकल्पों के बारे में बताया जाना चाहिए। इलाज और खर्च के बारे में जानकारी अस्पताल में स्थानीय और अंग्रेजी भाषाओं में लिखी होनी चाहिए। अगर अस्पताल एक पुस्तिका के माध्यम से मरीजों को इलाज, जांच आदि के खर्च के बारे में बताएं तो ये अच्छी बात होगी। इससे मरीज के परिवार को इलाज पर होने वाले खर्च को समझने में मदद मिलेगी। मरीज के अनुरोध पर अस्पताल को लिखित में खर्च के बारे में जानकारी देनी चाहिए।
 
3-मेडिकल रिपोर्ट्स, रिकॉर्ड्स पर अधिकार : किसी भी मरीज या फिर उसके मान्यता प्राप्त व्यक्ति को अधिकार है कि अस्पताल उसे केस से जुड़े सभी कागज़ात की फ़ोटोकॉपी दे। ये फोटोकॉपी अस्पताल में भर्ती होने के 24 घंटे के भीतर और डिस्चार्ज होने के 72 घंटे के भीतर दी जानी चाहिए।
कोई भी अस्पताल मरीज को उसके मेडिकल रिकॉर्ड या रिपोर्ट देने से मना नहीं कर सकता। इन रिकॉर्ड्स में डायग्नोस्टिक टेस्ट, डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय, अस्पताल में भर्ती होने का कारण आदि शामिल हैं।
 
डिस्चार्ज के समय मरीज को एक डिस्चार्ज कार्ड दिया जाना चाहिए, जिसमें भर्ती के समय मरीज की स्थिति, लैब टेस्ट के नतीजे, अस्पताल में भर्ती के दौरान इलाज, डिस्चार्ज के बाद इलाज, क्या कोई दवा लेनी है या नहीं लेनी है, क्या सावधानियां बरतनी हैं, क्या जांच के लिए वापस डॉक्टर के पास जाना है, इन सब बातों का जिक्र होना चाहिए।
 
4-दूसरी राय लेने का अधिकार :  अगर आप किसी डॉक्टर के तरीके से ख़ुश नहीं हैं तो आप किसी दूसरे डॉक्टर की सलाह ले सकते हैं। ऐसे में ये अस्पताल को सभी मेडिकल और डायग्नोस्टिक रिपोर्ट मरीज को उपलब्ध करवानी चाहिए। किसी दूसरे डॉक्टर की सलाह उस वक्त महत्वपूर्ण हो जाती है जब बीमारी से जान को खतरा हो, या फिर डॉक्टर जिस लाइन पर इलाज सोच रहा है उस पर सवाल हो।
 
5-इलाज की गोपनीयता का अधिकार :  इलाज के दौरान डॉक्टर को कई ऐसी बातें पता होती हैं जिसका ताल्लुक मरीज की निजी ज़िंदगी से होता है। डॉक्टर का फर्ज़ है कि वो इन जानकारियों को गोपनीय रखे।
 
6-मंजूरी लेने से पहले पूरी जानकारी का अधिकार : किसी बड़ी सर्जरी से पहले डॉक्टर का फर्ज है कि वो मरीज या फिर उसका ध्यान रखने वाले व्यक्ति को सर्जरी के दौरान होने वाले मुख्य खतरों के बारे में बताए और जानकारी देने के बाद सहमति पत्र पर दस्तखत करवाए। और ये भी पूछे कि क्या वो सर्जरी करवाना चाहते हैं। कई बार ये सारे काम बेहद कामचलाऊ तरीक़े से किए जाते हैं और मरीज को सर्जरी या ऑपरेशन के बारे में, उसके खतरों के बारे में कुछ पता नहीं होता है। ऑपरेशन से पहले मरीज या फिर उसके रिश्तेदारों से कहा जाता है कि वो दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दें।
7-मेडिकल स्टोर या डायग्नोस्टिक सेंटर चुनने का अधिकार : कई लोगों की ये आम शिकायत है कि जब किसी अस्पताल में डॉक्टर उन्हें दवा की पर्ची देता है तो कहता है कि वो अस्पताल की ही दुकान से दवा खरीदें या फिर अस्पताल में ही डायग्नॉस्टिक टेस्ट करवाएं। अस्पताल ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि ये उपभोक्ता के अधिकारों का हनन है। उपभोक्ता को आजादी है कि वो टेस्ट जहां से चाहे, वहीं से करवाए। मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया की नीति के मुताबिक़, जहां तक संभव हो, डॉक्टर को दवाई का वैज्ञानिक (जेनेरिक) नाम इस्तेमाल करना चाहिए, न कि किसी कंपनी का ब्रैंड नेम।
 
8-अस्पताल से डिस्चार्ज का अधिकार :  कई बार देखा गया है कि अगर अस्पताल का पूरा बिल न अदा किया गया हो तो मरीज को अस्पताल छोड़ने नहीं दिया जाता है। बाम्बे हाई कोर्ट ने इसे 'गैर कानूनी कारावास' बताया है। कभी-कभी अस्पताल बिल पूरा नहीं दे पाने की सूरत में लाश तक नहीं ले जाने देते। अस्पताल की ये जिम्मेदारीहै कि वो मरीज और परिवार को दैनिक खर्च के बारे में बताएं लेकिन इसके बावजूद अगर बिल को लेकर असहमति होती है, तब भी मरीज को अस्पताल से बाहर जाने देने से या फिर शव को ले जाने से नहीं रोका जा सकता।
 
अगर किसी मरीज को शिकायत है तो उसे केस के बारे में सभी सबूत इकट्ठे करने चाहिए और किसी स्थानीय उपभोक्ता संगठन से संपर्क करना चाहिए। डॉक्टर अरुण गदरे और डॉक्टर अभय शुक्ल के मुताबिक, कोशिश होनी चाहिए कि अस्पताल प्रशासन और डॉक्टर से बातचीत हो ताकि समस्या का हल निकाला जा सके। लेकिन अगर कोई हल नहीं निकलता है तो राज्य मेडिकल काउंसिल में डॉक्टर और अस्पताल के खिलाफ शिकायत दर्ज करवानी चाहिए।
 
किसी डॉक्टर के खिलाफ़ अगर कोई शिकायत हो तो उपभोक्ता अदालत जाने से पहले ये ध्यान में रखना चाहिए कि उस डॉक्टर के खिलाफ़ उसी विशेषज्ञता वाले किसी अन्य डॉक्टर का पत्र हो जिसमें शिकायत की पुष्टि की गई हो। बिना ऐसे प्रमाण-पत्र के ऐसी शिकायत के उपभोक्ता अदालत में दर्ज होने में परेशानी हो सकती है।
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