अनंत प्रकाश, बीबीसी संवाददाता
साल 2014 की बात है, सोशल मीडिया से लेकर टीवी चैनलों पर दो नेताओं की चर्चा थी। नाम थे नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल। नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार गुजरात के सीएम बनने के बाद 2014 का चुनाव जीतने की ओर बढ़ रहे थे। अरविंद केजरीवाल ने तीन बार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को शिकस्त देकर दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने का इतिहास रचा था।
भारत की तत्कालीन राजनीति के इन दो अहम किरदारों की टक्कर वाराणसी के चुनाव में हुई जहां अरविंद केजरीवाल को करारी हार मिली।
इसके ठीक दस साल बाद 2024 में अरविंद केजरीवाल एक बार फिर नरेंद्र मोदी को चुनौती देते दिख रहे हैं। उन्होंने मोदी के मिशन 2014 की तरह भारत को एक बार फिर महान बनाने का मिशन शुरू किया है।
केजरीवाल ने कहा है कि 'जब तक भारत को दुनिया का नंबर- 1 देश नहीं बना देते, हम चैन से नहीं बैठेंगे। मैं देश के कोने-कोने में जाऊंगा और देश के 130 करोड़ लोगों का गठबंधन बनाऊंगा।'
मोदी की तरह पिछली सरकारों की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा है कि 'अगर हम लोगों ने इन पार्टियों और इन नेताओं के भरोसे देश को छोड़ दिया तो अगले 75 साल भी देश आगे नहीं बढ़ेगा। 130 करोड़ लोगों को साथ आना पड़ेगा।'
यही नहीं, मनीष सिसोदिया से लेकर राघव चड्ढा और संजय सिंह जैसे शीर्ष आप नेता कह रहे हैं - 'पहले बोला जाता था कि मोदी बनाम कौन...अब कहा जा रहा है - मोदी बनाम केजरीवाल।' लेकिन सवाल उठता है कि आम आदमी पार्टी के इस दावे में कितना दम है।
आंकड़ों में कौन मज़बूत?
नरेंद्र मोदी ने जब 2014 में राष्ट्रीय राजनीति में कदम रखा था तब उनके पास तीन बार देश के मुख्यमंत्री बनने का अनुभव था। उनके पास गुजरात मॉडल था जिसे उन्होंने वाइब्रेंट गुजरात समिट जैसे कार्यक्रमों, वाणिज्य नीतियों और प्रचार की ताकत के दम पर गढ़ा था।
इन ग़ैर-राजनीतिक कार्यक्रमों में मुकेश अंबानी से लेकर गौतम अडानी जैसे बड़े उद्योगपति शिरकत किया करते थे, जिसे देश भर का मीडिया हाथों-हाथ लेता था।
ऐसे में जब मोदी ने 2014 में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए दावा ठोका तो उनके पास हिंदू हृदय सम्राट की छवि, विकास का मॉडल और तीन बार लगातार गुजरात चुनाव जीतने का रिकॉर्ड था।
आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल भी तीन बार दिल्ली के मुख्यमंत्री बन चुके हैं। उनकी पार्टी ने हाल ही में पंजाब में जीत हासिल की है। उन्हें दिल्ली के स्कूलों और अस्पतालों की दशा सुधारने के लिए श्रेय दिया जाता है। लेकिन क्या इस राजनीतिक अनुभव और दिल्ली मॉडल के दम पर वह 2024 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी के विकल्प बन सकते हैं।
राष्ट्रीय राजनीति की बारीकियों को समझने वाली वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी अरविंद केजरीवाल के प्रयासों को गंभीर मानती हैं।
वे कहती हैं, "आज अगर कोई बीजेपी को चुनौती देने के प्रति गंभीर है तो वह अरविंद केजरीवाल हैं। ममता बनर्जी में अब उतना जोश नहीं दिखता है। और बीजेपी कांग्रेस को गंभीरता से ले नहीं रही है। इसके साथ ही वे (बीजेपी) क्षेत्रीय दलों को ख़त्म करना चाहेंगे। इसमें कोई शक नहीं है कि केजरीवाल आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन इस बात का सवाल ही पैदा नहीं होता कि वह 2024 में मोदी को टक्कर दे पाएंगे।"
आम आदमी पार्टी का ग्राफ़
हालांकि, नीरजा चौधरी मानती हैं कि अरविंद केजरीवाल राजनीतिक रूप से काफ़ी परिपक्व नेता हैं।
वह कहती हैं, "अगर वो गंभीरता से आगे बढ़ते रहे तो उन्हें ऐसा करने में 15 सालों का वक़्त लगेगा। इसकी वजह ये है कि वह एक नयी राजनीतिक शक्ति को खड़ा कर रहे हैं। इसमें वक़्त लगता है। लेकिन वह राजनीतिक रूप से काफ़ी परिपक्व हैं। उन्हें देश की नब्ज़ पहचानना आता है। उन्हें पता है कि सेक्युलर होने वाली जो पुरानी परिभाषा है, वो अब काम नहीं करती है।
ऐसे में वह अपनी छवि एक प्रो-हिंदू नेता के रूप में बनाना चाहते हैं जो कि मुसलमानों का विरोधी न हो। दूसरी पार्टियों के नेता जैसे राहुल गांधी कभी-कभार मंदिर चले जाते हैं तो उससे बात बनती नहीं है। लेकिन केजरीवाल धीरे-धीरे ऐसा करने में सफल हो रहे हैं। और बीजेपी को भी इस बात का अहसास है कि उन्हें भविष्य में केजरीवाल की ओर से चुनौती मिल सकती है।"
अरविंद केजरीवाल को कई मौकों पर अपने इस रुख के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा है। विपक्षी दल दिल्ली दंगों से लेकर एनआरसी सीएए जैसे मुद्दों पर अरविंद केजरीवाल की चुप्पी की आलोचना करते रहे हैं।
अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एवं सीपीआर इंडिया फेलो राहुल वर्मा भी मानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर आम आदमी पार्टी का ग्राफ़ बढ़ रहा है।
वे कहते हैं, "अगस्त में दो सर्वे के नतीजे सामने आए हैं जिनमें पता चला है कि आम आदमी पार्टी जो कि पहले एक से डेढ़ फीसद की दर से आगे बढ़ रही थी, वो अब राष्ट्रीय स्तर पर साढ़े छह से आठ फीसद की दर से आगे बढ़ रही है।
ऐसे में ये संभव है कि अगले दो सालों में आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता थोड़ी और बढ़े और हो सकता है कि पीएम मोदी की लोकप्रियता थोड़ी गिर जाए। लेकिन अभी दोनों नेताओं और पार्टियों के बीच फासला बहुत बड़ा है कि इन दोनों पार्टियां को एक दूसरे की प्रतिद्वंदी के रूप में नहीं देखा जा सकता।"
नैरेटिव की लड़ाई में कौन मज़बूत
नरेंद्र मोदी से लेकर डॉ मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी उन नेताओं में शामिल हैं जिन्होंने दशकों काम करने के बाद अपनी एक छवि गढ़ी है।
अरविंद केजरीवाल की सक्रिय राजनीति में शुरुआत को अभी दस साल भी पूरे नहीं हुए हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी के टक्कर वाली छवि बनाना उनके लिए कितना चुनौती भरा है।
ये जानने के लिए हमने पब्लिक रिलेशंस की दुनिया को समझने वाले दिलीप चेरियन से बात की।
चेरियन बताते हैं, "मुझे लगता है कि दो राज्यों में सरकार के बूते पर राष्ट्रीय स्तर की महत्वाकांक्षा रखना बहुत बड़ा लक्ष्य है। अगर हम इंद्र कुमार गुजराल का उदाहरण छोड़ दें तो शेष सभी नेताओं के पास बड़े राज्यों में सरकारें चलाने का अनुभव था। और अगले दो सालों में अरविंद केजरीवाल के साथ-साथ कम से कम दो अन्य नेता इस जगह के लिए दावेदारी कर सकते हैं।"
दिलीप चेरियन मानते हैं कि जनता की महत्वाकांक्षाओं पर सवार होने के लिए कुछ नया लाना पड़ता है।
वे कहते हैं, "अरविंद केजरीवाल अभी जो भी कुछ कर रहे हैं, वो सब नॉन-ऑरिजिनल कैंपेन हैं। उनके पास शिक्षा और स्वास्थ्य का मॉडल है। लेकिन इसके साथ - साथ उन्हें कोई नया सपना दिखाना होगा। मोदी जी ने देश को नंबर वन बनाने का सपना युवाओं को 2014 में ही दिखाया था। ऐसे में केजरीवाल जी को कुछ नया करना होगा।
उदाहरण के लिए, नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद स्वस्थ भारत, स्वच्छ भारत का नारा दिया था जिसे कभी राजनीतिक पार्टी ने नारा नहीं बनाया। ऐसे में अगर केजरीवाल को एक नया नारा गढ़ना है तो उन्हें दिल्ली या पंजाब में कुछ बिलकुल नयी पेशकश देनी होगी जो लोगों को आकर्षित कर सके।"
विपक्ष में कितनी स्वीकार्यता
इस बात में दो राय नहीं है कि आम आदमी पार्टी के पास वो संसाधन और संगठन नहीं है जिसके दम पर बीजेपी देश भर में चुनाव जीत रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वह विपक्ष के साझा उम्मीदवार बनकर मोदी को चुनौती दे सकते हैं।
नीरजा चौधरी इस संभावना से इनकार करती हैं। वे कहती हैं, "आम आदमी पार्टी के लिए इस बात की संभावना कम है क्योंकि विपक्षी दल भी उनके लिए तैयार नहीं होंगे। और केजरीवाल भी पहले ही कह चुके हैं कि वो अकेले जा रहे हैं। विपक्ष भी उन्हें ख़तरे के रूप में देखता है। और वे खुद को एक विकल्प के रूप में भी तैयार कर रहे हैं और इसमें समय लगेगा।"
ऐसे में सवाल उठता है कि अगर अरविंद केजरीवाल विपक्ष के साझा उम्मीदवार नहीं बनते हैं तो कौन बन सकता है।
नीरजा चौधरी बताती हैं, "नीतीश कुमार की संभावनाओं पर सवालिया निशान लगा है। क्या वह विपक्षी दलों के साझा उम्मीदवार हो सकते हैं, और आरएसएस ने मोदी के उभार में जो भूमिका निभाई थी, क्या वो भूमिका विपक्षी दल निभा सकते हैं, ये अभी देखने की बात है। ममता बनर्जी की बात करें तो उनकी खुद की पार्टी में दिक्कतें आ गयी हैं।
नीतीश कुमार के पक्ष में कुछ बातें जाती हैं, जैसे उन्हें प्रशासन का अच्छा अनुभव है, हिंदी भाषी प्रदेश से आते हैं। ये काफ़ी अहम भूमिका निभाएगा क्योंकि बीजेपी को पहले हिंदी भाषी प्रदेशों में ही उखाड़ना है। वो सत्तर साल से ज़्यादा उम्र वाले नेता होंगे जो विपक्ष के युवा नेताओं को स्वीकार्य होंगे। जैसे अगर वो केंद्र की राजनीति करते हैं, और तेजस्वी को बिहार मिल जाता है तो राजद उन्हें केंद्र में पूरा समर्थन देगा।
वो कांग्रेस को भी स्वीकार्य होंगे क्योंकि कांग्रेस जानती है कि राहुल गांधी विपक्षी दलों को स्वीकार्य नहीं होंगे। वो नहीं चाहेंगे कि कांग्रेस के अंदर से ही कोई राहुल गांधी का प्रतिद्वंदी बन जाए। वो चाहेंगे कि कोई बाहर से हो जो कि पुराना कांग्रेसी न हो। क्योंकि शरद पवार, जगन रेड्डी या ममता बनर्जी जैसा कोई पूर्व कांग्रेसी नेता कांग्रेस के एक तबके को अपनी ओर खींच सकता है।"