ज़ुबैर अहमद, बीबीसी संवाददाता
प्रधानमंत्री इमरान खान का आरोप है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के प्रशासन ने उनकी सरकार को गिराने के लिए विपक्ष के साथ मिलीभगत की है।
इमरान खान ने शुक्रवार की रात राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में एक बार फिर अपना आरोप दोहराया। उन्होंने तर्क दिया कि अविश्वास प्रस्ताव अमेरिकी साज़िश से जुड़ा था।
उनका आरोप पिछले महीने एक वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी और वॉशिंगटन में पाकिस्तान के राजदूत असद मजीद खान के बीच कथित निजी वाद-विवाद के बाद सामने आया है। असद मजीद खान ने पाकिस्तान को बताया कि अमेरिकी अधिकारी ने प्रधानमंत्री इमरान खान के बारे में नाखुशी व्यक्त की थी और कहा था कि अगर अविश्वास मत के ज़रिए उन्हें पद से हटा दिया जाता है तो अमेरिका और पाकिस्तान के संबंध बेहतर हो सकते हैं।
ख़ुद अमेरिका ने इमरान खान के इस आरोप को ख़ारिज किया है। अमेरिकी विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता नेड प्राइस ने इस आरोप पर टिप्पणी करते हुए मीडिया से कहा, "हम पाकिस्तान में संवैधानिक और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के शांतिपूर्ण समाधान का समर्थन करते हैं। ये कहना ग़लत है कि अमेरिका पाकिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है और प्रधानमंत्री इमरान खान की सरकार को गिराने की कोशिश कर रहा है।"
इमरान खान के इस आरोप को पाकिस्तान में विपक्ष, मीडिया और विशलेषक अधिक गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। लेकिन ये भी सच है कि पाकिस्तान में अमेरिका-विरोधी भावनाएं बहुत अधिक हैं और यह सोशल मीडिया पर की जा रही टिप्पणियों से महसूस होता है। पाकिस्तान में लोगों में ये धारणा आम है कि अमेरिका उनके देश के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करता रहा है।
अमेरिका में पाकिस्तानी बुद्धिजीवी ए एन रहीम कहते हैं, "अगर अमेरिका किसी दूसरे देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की कोशिश कर रहा है तो यह आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। ऐसा वो कई मौक़ों पर कर चुका है, पाकिस्तान में और दूसरे देशों में भी। इराक़ में शासन परिवर्तन इसका एक उदाहरण है।"
पाकिस्तान में अमरीका के हस्तक्षेप का इतिहास
इमरान खान का दावा ग़लत साबित हो या सही, विश्लेषक कहते हैं कि पाकिस्तान के अंदरूनी सियासत में अमेरिका का हाथ अक्सर देखा गया है।
जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पाकिस्तान और पश्चिमी एशिया के मामलों के विश्लेषक प्रोफ़ेसर एके पाशा कहते हैं कि अमेरिका आम तौर पर दूसरे देशों में 'रेजीम चेंज' या सत्ता परिवर्तन के लिए जाना जाता है।
वो कहते हैं, "देखिये, रेजीम चेंज तो अमेरिका करता आ रहा है, वो चाहे 1953 में ईरान में प्रधानमंत्री मुहम्मद मुसद्दीक़ को हटाना हो, पनामा में रेजीम चेंज का मामला हो, तुर्की और इराक़ तक अमेरिका ने कई देशों में सत्ता परिवर्तन के कई प्रयास किये हैं।"
बीबीसी से बात करते हुए एके पाशा कहते हैं कि पाकिस्तान के इतिहास में अमेरिका के हस्तक्षेप के कई उदाहरण मिलते हैं।
वो कहते हैं, "1958 में जनरल अयूब खान सत्ता में आये, उसके बाद जनरल यह्या खान, जनरल ज़िआउल हक़ और जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ये सभी सैन्य प्रमुखों को अमेरिका का समर्थन हासिल था। चारों प्रमुखों को शीत युद्ध और उसके बाद भी सोवियत यूनियन और चीन जैसे देशों ख़िलाफ़ अमेरिकी विदेश नीति के अंतर्गत इस्तेमाल किया गया। अफ़ग़ानिस्तान और आतंकवाद के ख़िलाफ़ वैश्विक युद्ध के लिए पाकिस्तान को इस्तेमाल किया गया।"
प्रोफ़ेसर एके पाशा के मुताबिक़ पाकिस्तान में सैन्य शासन की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
वो कहते हैं, "अमेरिका अगले 10-15 वर्षों के लिए बाजवा (पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा) या सेना के भीतर से एक सक्षम सैन्य लीडर को सत्ता में देखना चाहता है जैसा कि इसने मिस्र में अब्दुल फ़तेह अल-सीसी को लाकर किया है। वो चीन पर पाकिस्तानी सरकार की निर्भरता को कम करने के लिए इस्लामाबाद में सत्ता शासन परिवर्तन चाहता है।"
वो आगे कहते हैं, "उन्होंने (अमेरिका ने) नवाज़ शरीफ़ के साथ कोशिश की, बेनज़ीर भुट्टो के साथ भी कोशिश की, उन्होंने इमरान खान के साथ कोशिश की - सभी सरकारें अमेरिका के लिए बहुत मुश्किल रही हैं। इसलिए उन्हें लगता है कि इस क्षेत्र में अपने लक्ष्यों की रक्षा करने और अपनी महत्वाकांक्षाओं को हासिल करने के लिए यहां की सत्ता में सेना के व्यक्ति का होना सबसे सुरक्षित है।"
वो कहते हैं कि अपनी गिरती साख और बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था उभरने के कारण भी अमेरिका की कोशिश है कि पुरानी व्यवस्था को बहाल किया जाए और इसके लिए सबसे कमज़ोर लिंक पाकिस्तान है जहाँ से अमेरिका ये काम शुरू करना चाहता है।
अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए प्रोफ़ेसर पाशा कहते हैं कि यूक्रेन संकट की पृष्ठभूमि में हाल की कुछ घटनाओं पर नज़र रखना ज़रूरी है।
वो कहते हैं, "अब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सरकार वापस आ गई है, पश्चिमी देशों की चीन और रूस में बढ़ रही नज़दीकियों को तोड़ने की कोशिशें भी नाकामयाब हुई हैं और भारत की विदेश नीति भी अब पहले के मुक़ाबले आज़ाद नज़र आने लगी है। ऐसे में दक्षिण एशिया में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए अमेरिका के लिए पाकिस्तान में अमेरिका के हिमायत वाली सरकार होना ज़रूरी है।"
हालांकि, पाकिस्तानी सेना ने ताज़ा सियासी संकट में अमेरिका का हाथ होने से इंकार किया है, मगर पाकिस्तान में विशेषज्ञ कहते हैं कि जनरल क़मर जावेद बाजवा इमरान खान की तरफ़ से अमेरिका विरोधी नीतियों से खुश नहीं हैं। पाकिस्तान और दुनियाभर में ये धारणा आम है कि पाकिस्तान में सरकार किसी की भी हो लेकिन चलती सेना की है और सेना ही देश में सबसे शक्तिशाली है।
सालों से पाकिस्तान में अमेरिका के दखल का ज़िक्र होता रहा है। वॉशिंगटन स्थित पाकिस्तानी विश्लेषक शुजा नवाज़ अपनी पुस्तक 'द बैटल फ़ॉर पाकिस्तान' में लिखते हैं, "जब 2000 के दशक के मध्य में भुट्टो (बेनज़ीर) राजनीति में लौटने की कोशिश कर रही थीं और तानाशाह परवेज़ मुशर्रफ के साथ सुलह की कोशिश कर रही थीं तो वो बार-बार अमेरिका के दक्षिण और मध्य एशियाई मामलों के पूर्व विदेश सहायक सचिव रिचर्ड बाउचर से मिली थीं।"
पाकिस्तान के एक पूर्व राजदूत तौक़ीर हुसैन एक लेख में लिखते हैं, "अमेरिका ने पाकिस्तान में सैन्य सरकारों के लिए लोगों का समर्थन हासिल करने के प्रयास किये हैं, जो पाकिस्तान में एक लोकतांत्रिक और राष्ट्रवादी सरकारों के पनपने की राह में रुकावट बना।"
उन्होंने लिखा कि 1970 के दशक के शुरू में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने पाकिस्तान को अमेरिका का "सबसे बड़ा सहयोगी" कहा था।
उन्होंने लिखा था, "उन्होंने घोषणा की थी कि पाकिस्तान के साथ संबंध अमेरिकी विदेश नीति की आधारशिला हैं। राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और विदेश मंत्री जॉर्ज शुल्ट्ज़ ने राष्ट्रपति ज़िया उल हक़ की अत्यधिक प्रशंसा करते हुए पाकिस्तान को एक अग्रिम पंक्ति के राज्य के रूप में सराहा था। राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश ने राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ के साथ यह कहकर गर्मजोशी दिखाई थी कि वह उनके साथ आराम से काम कर सकते हैं।"
'फ़ॉरेन पालिसी' पत्रिका के दक्षिण एशिया मामलों के विशेषज्ञ माइकल कुगलमैन के मुताबिक़ अमेरिका अक्सर पाकिस्तान के सेना समर्थित नेताओं के साथ अपने संबंधों को आम नेताओं पर तरजीह देता है, ख़ास तौर से इस बात को देखते हुए कि उसकी सेना विदेश नीति के निर्णयों को प्रभावित करती है।
प्रोफ़ेसर पाशा का तर्क है कि पाकिस्तान में मौजूदा सियासी संकट तुरंत ख़त्म नहीं होगा, क्योंकि अब रूस, ईरान, चीन और पाकिस्तान के बीच एक नया पावर केंद्र बना है जिसे अमेरिका चाहे भी तो जल्द तोड़ नहीं सकता। लेकिन सभी विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि परमाणु शक्ति संपन्न पाकिस्तान की राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता दक्षिण एशिया के पूरे क्षेत्र के लिए ज़रूरी है और भारत की तरह पाकिस्तान को भी एक स्वतंत्र विदेश नीति की ज़रुरत है।