उलझे हुए थे इंदिरा और फ़िरोज़ के रिश्तों के तार

Webdunia
बुधवार, 31 अक्टूबर 2018 (11:32 IST)
- बर्टिल फाल्क (लेखक)
 
इंदिरा गांधी और उनके पति फिरोज़ गांधी के बीच रिश्तों के तार काफी उलझे हुए थे। लेकिन इंदिरा ने फिरोज़ की मौत के बाद एक ख़त में लिखा कि जब भी उन्हें फिरोज़ की ज़रूरत महसूस हुई वो उन्हें साथ खड़े दिखे। दोनों के बीच तनाव तब शुरू हुआ जब इंदिरा अपने दोनों बच्चों को लेकर लखनऊ स्थित अपना घर छोड़ कर पिता के घर आनंद भवन आ गईं।
 
 
शायद ये संयोग नहीं था लेकिन इसी साल यानी 1955 में फिरोज़ ने कांग्रेस पार्टी के भीतर भ्रष्टाचार विरोधी अभियान शुरू किया। इंदिरा गांधी इसी साल पार्टी की वर्किंग कमेटी और केंद्रीय चुनाव समिति सदस्य बनी थीं। उन दिनों संसद में कांग्रेस का ही वर्चस्व था। विपक्षी पार्टियां ना केवल छोटी थीं बल्कि बेहद कमज़ोर भी थीं। इस कारण नए बने भारतीय गणतंत्र में एक तरह का खालीपन था।
 
 
हालांकि फ़िरोज़ सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े परिवार के करीब थे, वो विपक्ष के अनौपचारिक नेता और इस युवा देश के पहले व्हिसलब्लोअर बन गए थे। उन्होंने बड़ी सावधानी से भ्रष्ट लोगों का पर्दाफ़ाश किया जिस कारण कईयों को जेल जाना पड़ा, बीमा उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया गया और वित्त मंत्री को इस्तीफ़ा तक देना पड़ा।
 
 
जब फिरोज़ ने इंदिरा को फासीवादी कहा
फ़िरोज़ के ससुर जवाहरलाल नेहरू उनसे खुश नहीं थे और इंदिरा गांधी ने भी कभी संसद में फिरोज़ के महत्वपूर्ण काम की तारीफ़ नहीं की। फिरोज़ पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी पत्नी के ऑथेरीटेटिव प्रवृत्ति को पहचान लिया था। साल 1959 में जब इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थीं उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि केरल में चुनी हुई पहली कम्यूनिस्ट सरकार को पलट कर वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाए।
 
 
आनंद भवन में नाश्ते की मेज़ पर फिरोज़ ने इसके लिए इंदिरा को फ़ासीवादी कहा। उस वक्त नेहरू भी वहीं मौजूद थे। इसके बाद एक स्पीच में उन्होंने लगभग आपातकाल के संकेत दे दिए थे। फ़िरोज़ गांधी अभिव्यक्ति की आज़ादी के बड़े समर्थक थे। उस दौर में संसद के भीतर कुछ भी कहा जा सकता था लेकिन अगर किसी पत्रकार ने इसके बारे में कुछ कहा या लिखा तो उन्हें इसकी सज़ा दी जा सकती थी।
 
इस मुश्किल को ख़त्म करने के लिए फिरोज़ ने एक प्राइवेट बिल पेश किया। ये बिल बाद में कानून बना जिसे फिरोज़ गांधी प्रेस लॉ के नाम से जाना जाता है। इस कानून के बनने की कहानी बेहद दिलचस्प है। फिरोज़ गांधी की मौत के पंद्रह साल बाद इंदिरा ने आपातकाल की घोषणा की और अपने पति के बनाए प्रेस लॉ को एक तरह से कचरे के डिब्बे में फेंक दिया।
 
 
बाद में जनता सरकार ने इस कानून को फिर से लागू किया और आज हम दो टेलीवज़न चैनल के ज़रिए भारतीय संसद की पूरी कार्यवाही देख सकते हैं। इसके साथ फिरोज़ गांधी की कोशिश हमेशा के लिए अमर हो गई। फिरोज़ और इंदिरा लगभग सभी बात पर जिरह करते थे। बच्चों की परवरिश पर दोनों की राय अलग-अलग थी। राजनीति के बारे में भी दोनों के अलग-अलग विचार थे।
 
 
इंदिरा की करीबी रह चुकी मेरी शेलवनकर ने मुझे बताया था, "इंदिरा और मैं लगभग हर बात पर चर्चा करते थे, ये चर्चा दोस्ताना स्तर की होती थी। मुझे लगता है कि हर व्यक्ति को अपनी बात रखने की आज़ादी होनी चाहिए लेकिन वो मदर इंडिया की छवि से काफी प्रेरित थीं। उन्हें अपने हाथ में पूरी ताकत चाहिए थी। वो भारत के संघीय ढ़ांचे के ख़िलाफ़ थीं। उनका विचार था कि भारत संघीय राष्ट्र बनने के लिए अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुआ है।"
 
 
उन्होंने बताया, "फिरोज़ के विचार इससे अलग थे। 1950 के दशक के दौरान नई दिल्ली में मैं फिरोज़ से केवल दो या तीन बार ही मिली थी। मैं कभी उनके करीब नहीं आ पाई क्योंकि मुझे लगा कि इंदिरा ऐसा नहीं चाहतीं। लेकिन इंदिरा के साथ हुई मेरी चर्चाओं से मैं समझती हूं कि फिरोज़ भारत के संघीय ढ़ांचे के समर्थक थे और ताकत के केंद्रीकरण के ख़िलाफ़ थे।"
 
 
ये स्वाभाविक है कि फिरोज़ गांधी के गणतांत्रिक विरासत को खत्म करने में इंदिरा गांधी कामयाब रहीं। लेकिन कम से कम एक महत्वपूर्ण चीज़ थी जो दोनों में आम थी। वो था बागवानी के प्रति दोनों का प्यार।
 
 
अहमदनगर फोर्ट जेल में बंद अपने पिता को लिखी एक चिट्ठी में इंदिरा ने बागवानी के लिए फिरोज़ की मेहनत की तारीफ की थी। 22 नवंबर 1943 को आनंद भवन से लिखे इस ख़त में उन्होंने कहा, "मैं अभी-अभी बगीचे से आ रही हूं। कुछ महीनों पहले तक ये घास-फूस का जंगल था। लेकिन अब बगीचे की घास को काट दिया गया है। फूलों के नन्हे बीजों को पंक्तियों में लगाया गया है जो बेहद सुंदर दिख रहा है। ये सब फिरोज़ के कारण ही संभव हो सका है। अगर वो बगीचे की ज़िम्मेदारी नहीं लेते तो मुझे नहीं पता कि मैं क्या करती। मैं इतना तो जानती हूं कि मैं कुछ भी नहीं कर पाती।"
 
 
फिरोज गांधी की बेवफाई के बारे में भी अफवाहें फैली और कुछ लोगों ने इंदिरा गांधी के साथ उनके रिश्तों के बारे में कहना शुरू कर दिया। लेकिन भारत के विकास के लिए फिरोज़ और इंदिरा की ज़रूरत को देखते हुए ये सब गॉसिप कभी प्रासंगिक नहीं लगा। वो पूरी तरह से एक-दूसरे के साथ बंधे थे और प्लस-माइनस रिलेशनशिप में उलझे हुए थे।
 
 
ऐसा लगता है कि फिरोज़ ने केरल के मामले में जिस तरह की प्रतिक्रिया दी थी वो इंदिरा के लिए चेतावनी की तरह थी। उन्होंने अपना समय पूरा होने से पहले पार्टी के अध्यक्ष के पद से त्यागपत्र दे दिया। फिरोज़ और इंदिरा अपने दोनों बेटों के साथ एक महीने की छुट्टियां बिताने कश्मीर चले गए।
 
 
राजीव गांधी के अनुसार उनके माता-पिता के बीच जो भी मतभेद थे वो इस दौरान भुला दिए गए। इसके बाद ही दिल का दौरा पड़ने से फिरोज़ गांधी की मौत हो गई।
 
 
(बर्टिल फाल्क स्वीडन में रहते हैं। उन्होंने फिरोज़ गांधी पर किताब लिखी है जो अब तक उन पर लिखी एकमात्र जीवनी है।)

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