पश्चिम बंगाल में बीजेपी की अंदरूनी कलह क्या पार्टी को कमज़ोर कर रही है?

BBC Hindi
शुक्रवार, 2 अगस्त 2024 (07:54 IST)
सलमान रावी, बीबीसी संवाददाता, कोलकाता से
गोड्डा से भारतीय जनता पार्टी के सांसद निशिकांत दुबे ने 25 जुलाई को संसद में मांग उठाई कि पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और मालदा को बिहार-झारखंड के कुछ ज़िलों के साथ मिलाकर एक केंद्र शासित राज्य बनाया जाए।
 
इससे पहले पश्चिम बंगाल के बीजेपी अध्यक्ष सुकांता मजूमदार ने उत्तर बंगाल को पूर्वोत्तर राज्यों के परिषद के साथ मिलाने की बात कही थी। लेकिन पश्चिम बंगाल में बीजेपी के विधायक और सदन में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने ‘बंगाल के बंटवारे’ के किसी भी प्रयास का खुलकर विरोध किया।
 
कुछ वक़्त पहले पश्चिम बंगाल के ही बाँकुड़ा में बीजेपी प्रदेश इकाई की कार्यकारिणी की बैठक हुई थी। इस बैठक में लोकसभा चुनावों में उम्मीद से कम सीटें आने पर मंथन चल रहा था। बीजेपी के नेता लगातार दावा कर रहे थे कि लोकसभा चुनाव में पार्टी 25 से ज़्यादा सीटें लाएगी। मगर वो 12 सीटों पर ही सिमट गई, जबकि सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को 29 सीटों पर जीत मिली।
 
प्रदेश बीजेपी में संकट?
कभी बेहद मुखर रहे बीजेपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ख़ुद बर्दवान–दुर्गापुर सीट से चुनाव हार गए थे। दिलीप घोष अब एक तरह के अज्ञातवास में हैं। अब वो सार्वजनिक तौर पर ज़्यादा बोलते नहीं हैं, न ही राजनीतिक कार्यक्रमों में नज़र आते हैं।
 
दिलीप घोष वर्ष 2015 से लेकर 2021 तक पश्चिम बंगाल में पार्टी के अध्यक्ष रहे और एक समय में वो जनसंघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता भी रह चुके हैं।
 
वर्ष 2021 के विधानसभा चुनाव में जिस तरह पश्चिम बंगाल की राजनीति में बीजेपी का उदय हुआ और उसने प्रदेश में क़रीब 38 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया, उसका काफ़ी श्रेय दिलीप घोष को भी दिया जाता है। 2021 में ही पार्टी ने उन्हें हटाकर सुकांता मजूमदार को प्रदेश की कमान थमा दी थी।
 
प्रदेश में पार्टी के प्रदर्शन पर हो रहे मंथन कार्यक्रम में दिलीप घोष ने जब बोलना शुरू किया तो सब सकते में आ गए। उन्होंने इस बैठक में मंच से कहा था, “भारतीय जनता पार्टी को संगठन मज़बूत करना आता है। आंदोलन किस तरह चलाया जाए, ये भी आता है। मगर चुनाव कैसे जीता जाए, ये उसे नहीं आता।”
 
दिलीप घोष प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं और संगठन की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं। यहीं से प्रदेश बीजेपी की अंतर्कलह भी सामने उभर कर आ आई।
 
इसी के जवाब में मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष सुकांता मजूमदार ने दिलीप घोष का नाम तो नहीं लिया मगर उन्होंने कहा, “लोग हर चीज़ की जानकारी लेकर पैदा नहीं होते हैं।”
 
उपचुनाव समीक्षा बैठक में भी हंगामा
21 जुलाई को पार्टी के ही एक कार्यक्रम में विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने कुछ ऐसा कह दिया जिससे प्रदेश से लेकर दिल्ली तक संगठन के नेताओं को सफ़ाई देनी पड़ी।
 
अपने तीख़े तेवरों के लिए जाने जाने वाले शुभेंदु अधिकारी मंच से बोल पड़े, 'सबका साथ सबका विकास नहीं चाहिए। सिर्फ़ उसी का विकास जिसका साथ'। फिर उन्होंने मंच से ही अल्पसंख्यक मोर्चे को भंग कर देने का सुझाव दिया। इसी बैठक में पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चे के नेता भी मौजूद थे जो निरुत्तर बैठे रहे।
 
‘सबका साथ, सबका विकास’ बीजेपी का नारा रहा है। चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर के साथ इसका काफ़ी इस्तेमाल किया जाता रहा है। ज़ाहिर सी बात है कि संगठन को शुभेंदु के इस बयान पर एक के बाद एक सफ़ाई देनी पड़ी क्योंकि उनका बयान पार्टी की लाइन पर भी नहीं था और वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा के ख़िलाफ़ भी था।
 
ऐसा कहा जाता है कि उन्हें इस बयान के बाद फ़ौरन दिल्ली तलब किया गया जहां उनकी मुलाक़ात पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा और गृह मंत्री अमित शाह से भी हुई। तीनों नेताओं के बीच क्या बातचीत हुई वो सार्वजनिक नहीं की गई और उस पर कोई चर्चा भी नहीं कर रहा है।
 
हाल ही में पश्चिम बंगाल विधान सभा की तीन सीटों पर उपचुनाव हुए थे और तीनों ही सीटें तृणमूल कांग्रेस के खाते में चली गईं। इसकी समीक्षा बैठक में काफ़ी हंगामा हुआ था। इस बैठक के दौरान प्रदेश में नेतृत्व बदलने की मांग भी होने लगी। पार्टी के प्रदेश में बड़े नेता सौमित्र खान ने खुलकर नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठा दी थी।
 
खान का कहना था, “लोकसभा और विधान सभा की हार की समीक्षा हो रही है तो जवाबदेही भी तय करनी चाहिए। साथ ही संगठन और नेतृत्व में बदलाव की आवश्यकता है।”
 
पार्टी प्रदेश अध्यक्ष सुकांता मजूमदार ने अपने भाषण में कहा, “बावजूद इसके कि बीजेपी की लोकसभा की सीटें 18 से 12 हो गई हैं, इसका मतलब ये नहीं है कि बीजेपी प्रदेश में कमज़ोर हो गई है। हमें उन क्षेत्रों को चिह्नित करना पड़ेगा जिससे पता चल पाए कि इतना सब कुछ होने के बावजूद बीजेपी कैसे पिछड़ गई।”
 
उन्होंने कहा कि बीजेपी बंगाल में अप्रासंगिक नहीं हो गयी है बल्कि पार्टी को क़रीब 39 प्रतिशत वोट मिले हैं जो बताता है कि संगठन की ज़मीन प्रदेश की राजनीति में कितनी मज़बूत हुई है।
 
पार्टी पर कितना असर
दिलचस्प बात ये है कि जिस समय बीजेपी के नेता हार पर मंथन कर रहे थे उसी समय कार्यक्रम स्थल यानी ‘साइंस सिटी ऑडिटोरियम’ के बाहर कार्यकर्ता ‘भाजपा बचाओ मंच’ के बैनर लिए हुए धरना दे रहे थे। वो पार्टी के उन नेताओं पर कार्यवाही की मांग कर रहे थे जिन्हें वो हार का ज़िम्मेदार मानते हैं।
 
राजनीतिक रणनीतिकार दिवाकर राय ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, “बीजेपी के मत प्रतिशत पर कोई असर नहीं पड़ा है जिसका संकेत है कि पश्चिम बंगाल में अब भी पार्टी की संभावनाएं मज़बूत हैं।”
 
वो कहते हैं, “पार्टी की संभावनाएं तो हैं। उसके वोट का बड़ा आधार बन चुका है। मगर संगठन नेतृत्व के दिवालियेपन से गुज़र रहा है। पार्टी के रणनीतिकार भी बंगाल के सांस्कृतिक और आर्थिक पेंचों को समझ नहीं पा रहे हैं।”
 
वहीं वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक सुभाशीष मित्रा कहते हैं, “प्रदेश बीजेपी पूरी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि पर निर्भर रही है और सोचती है कि सिर्फ़ उनकी छवि के सहारे अपनी नैया पार लगा सकते हैं। उसका उन्हें फ़ायदा तो हुआ मगर नुकसान भी हुआ है।”
 
नुकसान के बारे में चर्चा करते हुए वो कहते हैं, “पश्चिम बंगाल में भी अब ऐसा हो गया है कि मोदी ही बीजेपी हैं और बीजेपी ही मोदी है। अब प्रधानमंत्री के चेहरे और नाम के सहारे जब राजनीति करने लगे तो उसका नुकसान ये हुआ कि कोई सशक्त नेतृव नहीं मिल पाया संगठन को।''
 
वो बोले, ''पार्टी इस दौरान कोई नया चेहरा भी तैयार नहीं कर पाई। सिर्फ़ यही सोचती रही कि नरेंद्र मोदी तो हैं और लोग उनके नाम पर वोट देंगे ही। हर जगह पोस्टरों पर या तो मोदी या अमित शाह के चेहरे लगे हैं। स्थानीय नेताओं के नाम और चेहरे नदारद ही रहते हैं। इसलिए उत्साह की कमी भी स्वाभाविक है।” 
 
बीजेपी का अंतर्कलह से इनकार
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता सौरव सिकदर संगठन की प्रदेश इकाई में किसी भी तरह के अंतर्कलह से इनकार करते हैं।
 
बीबीसी से वो कहते हैं, “ये बातें इसलिए आ रही हैं क्योंकि संगठन में आंतरिक लोकतंत्र है जिसकी वजह से लोग खुलकर बोलते हैं। ऐसा न तो तृणमूल कांग्रेस में कोई करने की हिम्मत कर सकता है न ही किसी दूसरे राजनीतिक दल में।”
 
सिकदर का कहना था कि सुकांता मजूमदार ने जब कहा कि उत्तर बंगाल को पूर्वोत्तर भारत के साथ विकास के लिए जोड़ा जाए तो उसे अलग तरीक़े से पेश कर ऐसी हवा उड़ाई गई जैसे वो पश्चिम बंगाल के विभाजन की वकालत कर रहे हैं जबकि ऐसा नहीं है।
 
सिकदर चाहे जो दावा करें, सदन में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने भी सुकांता मजूमदार की बातों का खुलकर विरोध किया।
 
वरिष्ठ पत्रकार सुभाशीष मित्रा कहते हैं, “सुकांता मजूमदार का बयान हवा में नहीं था। वो कहते हैं कि असम के मुख्यमंत्री और गोड्डा से बीजेपी के सांसद लगातार बंगाल को बाँटने की हिमायत कर रहे हैं।”
 
उनका कहना था, “हाल ही में लोकसभा में बोलते हुए निशिकांत दुबे ने मालदा, मुर्शिदाबाद, नदिया, पश्चिमी दिनाजपुर और बिरजपुर को अलग केंद्र शासित इलाका बनाने की वकालत की थी। ऐसा ही असम के मुख्यमंत्री भी कहते आ रहे हैं। पश्चिम बंगाल में इतना तो अब साफ़ दिखने लगा है कि बीजेपी संगठन के स्तर पर कमज़ोर नज़र आ रही है और नेतृत्व के अभाव से जूझ रही है।”
 
पश्चिम बंगाल में बीजेपी की राजनीति पर लंबे समय से नज़र रखने वाले मानते हैं कि जिन नेताओं को दिल्ली हाई कमान पश्चिम बंगाल का दायित्व सौंपता है, उनका भी स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं से कोई सम्पर्क नहीं रहता और ना ही वो पश्चिम बंगाल की संस्कृति और राजनीतिक पेंचों को समझ पाते हैं।
 
आनंद बाज़ार पत्रिका के पूर्व डिजिटल संपादक और वरिष्ठ स्तंभकार तापस सिन्हा कहते हैं, “मुझे लगता है कि जो जनसंघ के समय के नेता पार्टी में मौजूद हैं, उनकी अनदेखी की जा रही है जिसका नुकसान भाजपा को पश्चिम बंगाल में उठाना पड़ रहा है।”
 
उनका कहना था, “बीजेपी का तेज़ी से उदय इसलिए हुआ क्योंकि सत्ता विरोधी लहर रही। लेकिन इसी दौरान संगठन ने जब अपने दरवाज़े तृणमूल कांग्रेस से आए नेताओं के लिए खोले तो पुराने और समर्पित नेताओं को किनारे लगा दिया गया। ममता बनर्जी से राजनीतिक रूप से लड़ने के लिए अब भी बीजेपी के पास रणनीति का अभाव है।''
 
तापस बोले, ''वो उत्तर प्रदेश की राजनीति या गुजरात की राजनीति की तरह बंगाल में तो कामयाब नहीं हो सकते। यहाँ ध्रुवीकरण भी ज़्यादा नहीं चल पा रहा है। यही वजह है कि वोट बेस होने के बावजूद भी बीजेपी राजनीतिक लड़ाई में पिछड़ जा रही है।”
 
अब चूंकि मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष सुकांता मजूमदार का कार्यकाल भी समाप्त हो चुका है और वो केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी शामिल हो गए हैं, बीजेपी हाई कमान के सामने सबसे बड़ी चुनौती अब ये है कि अगला प्रदेश अध्यक्ष किसे बनाया जाए। वो भी ऐसे समय में जब अंतर्कलह अपने चरम पर है।

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