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ज्योतिरादित्य सिंधिया से क्या बीजेपी में सभी ख़ुश हैं?

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BBC Hindi

, गुरुवार, 12 मार्च 2020 (08:36 IST)
अदिती फडनिस, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
मध्य प्रदेश में 2018 के विधानसभा चुनाव के दौरान खींची गई तस्वीरों में से ज्योतिरादित्य सिंधिया की तस्वीरें, ज़हन में बिल्कुल अलग और एक स्थायी छाप छोड़ती हैं। इन तस्वीरों में वो पसीने से तर-बतर, मैले कुचैले कपड़ों में और अस्त-व्यस्त नज़र आते हैं।
 
ज्योतिरादित्य सिंधिया को मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों में प्रचार कमेटी का प्रमुख बनाया गया था। और उन्होंने पार्टी को जिताने में अपना ख़ून-पसीना एक कर दिया था। उस चुनाव में जब बीजेपी ने अपना प्रचार अभियान शुरू किया, तो पार्टी ने नारा दिया था - "माफ़ करो महाराज, हमारे नेता शिवराज।"
 
इस नारे के साथ ही साथ बीजेपी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया की छवि एक शाही और सामंतवादी नेता के रूप में गढ़ने की कोशिश की थी। वहीं, उस वक़्त के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान को एक किसान के बेटे के तौर पर प्रचारित किया गया था।
 
बीजेपी की तरफ़ से अपनी छवि को धूमिल करने के इस प्रचार के बावजूद, ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी की तरफ़ से प्रचार करने और उसे जिताने में पूरी ताक़त झोंक दी थी। उन्हें ये अपेक्षा थी कि जब वक़्त आएगा, तो पार्टी उन्हें इस मेहनत का इनाम तो देगी ही।
 
लेकिन, न तो ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपना ख़ून-पसीना बहाने का कोई फल मिला और न ही उनके ख़ेमे के मंत्रियों को।
 
कमलनाथ सरकार में सिंधिया गुट के छह विधायकों को मंत्री बनाया गया था। इनके नाम हैं-इमरती देवी, गोविंद सिंह राजपूत, प्रद्युम्न सिंह तोमर, तुलसीराम सिलावत, प्रभुराम चौधरी और महेंद्र सिंह सिसोदिया।
 
इसके अलावा, ग्वालियर, चंबल और मालवा इलाक़े के क़रीब 22 अन्य विधायक भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ थे।
 
सिंधिया को लगा कि अगर उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया, तो कम से कम उनके एक क़रीबी को उप-मुख्यमंत्री का पद तो दिया ही जाना चाहिए। लेकिन, कांग्रेस पार्टी का आलाकमान इस मामले में भी हीला-हवाली करता रहा।
 
कांग्रेस ने बार-बार नज़रअंदाज़ की नाराज़गी
 
इसके बाद ज्योतिरादित्य ने राज्य में अपनी ही पार्टी की सरकार को किसी न किसी मुद्दे पर निशाना बनाना शुरू कर दिया। इसकी शुरुआत उन्होंने अवैध खनन माफ़िया के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करने की मांग उठा कर की।
 
इसके बाद उन्होंने ट्विटर पर अपने बायो में से कांग्रेस का नाम हटा दिया।
 
हाल ही में ज्योतिरादित्य ने कहा कि अगर पार्टी, अपने चुनाव घोषणापत्र में किए गए अपने वादे से पीछे हटेगी, तो वो इसके ख़िलाफ़ सड़क पर उतरेंगे।
 
ज्योतिरादित्य की इस चेतावनी के जवाब में मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा कि, "अगर वो सड़क पर उतरना चाहते हैं, तो उतरें।"
 
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जम्मू-कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने का भी समर्थन किया। इस मुद्दे पर सिंधिया का ये स्टैंड उनकी अपनी पार्टी के स्टैंड से बिल्कुल उलट था। फिर भी पार्टी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को कोई तवज्जो नहीं दी।
 
कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के गठजोड़ ने सिंधिया को ये एहसास कराया कि वो पार्टी के विशिष्ट नेताओं के समूह का हिस्सा नहीं हैं। ठीक उसी तरह जैसा क़रीब 57 साल पहले उनकी दादी के साथ किया गया था।
 
ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी, विजयाराजे सिंधिया के साथ उस वक़्त के कांग्रेसी मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा ने बहुत बुरा बर्ताव किया था।
 
डीपी मिश्रा, मध्य प्रदेश के पहले कांग्रेसी सीएम थे। इस बेरुख़ी से आहत राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने अपने समर्थक 37 विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ दी और जनसंघ में शामिल हो गईं थीं।
 
आज ऐसा लगता है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी कांग्रेस की तरफ़ से अपनी उपेक्षा के ख़िलाफ़ अपनी दादी जैसा ही स्टैंड लिया है।
 
ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने के फ़ैसले पर आख़िरी मुहर इन अटकलों ने लगाई कि पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को मध्य प्रदेश से राज्यसभा में भेजा जा सकता है।
 
अप्रैल में मध्य प्रदेश की तीन राज्यसभा सीटें ख़ाली हो रही हैं। इनमें से दो सीटें कांग्रेस जीत सकती थी।
 
इनमें से एक सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह का दोबारा राज्यसभा के लिए चुना जाना माना जा रहा था। वहीं, ज्योतिरादित्य सिंधिया दूसरी सीट से ख़ुद राज्यसभा सांसद बनना चाह रहे थे।
 
मज़बूत नेतृत्व के अभाव का असर
हाल के कुछ महीनों में अपने कई मज़बूत गढ़ गंवाने के बाद, बीजेपी मध्य प्रदेश में अपनी सरकार बनाने को लेकर काफ़ी उत्सुक है।
 
अभी ज़्यादा दिनों पुरानी बात नहीं है, जब बीजेपी के सांसद गणेश सिंह ने कहा था, "ज्योतिरादित्य सिंधिया को न तो कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बनाया और न ही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का पद दिया। कांग्रेस में सब कुछ ठीक नहीं है।"
 
कांग्रेस सरकार ने भी मध्य प्रदेश में कोई बहुत अच्छा काम नहीं किया है। केंद्रीय स्तर पर नेतृत्व के अभाव में जहां कांग्रेस लड़खड़ा रही है वहीं, मध्य प्रदेश में पार्टी के पास नेताओं की भरमार है।
 
मुख्यमंत्री के तौर पर कमलनाथ को हर ख़ेमे की मांग को पूरी करने पर मजबूर होना पड़ा है। इसका नतीजा ये हुआ है कि बहुत सी सरकारी योजनाएं अधर में लटकी हुई हैं।
 
इसके बरअक्स, केंद्रीय शहरी विकास और भूतल परिवहन मंत्री के तौर पर कमलनाथ का रिकॉर्ड बहुत अच्छा रहा है। लेकिन, मुख्यमंत्री के रूप में उनका शासन उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार के लिए बदनाम हो चुका है।
 
ख़ास तौर से राज्य के अधिकारियों की पोस्टिंग और तबादलों के मामले में तो कमलनाथ सरकार कुछ ज़्यादा ही बदनाम हो गई है।
 
पिछले हफ़्ते सूबे के पर्यावरण और लोक निर्माण मंत्री सज्जन सिंह वर्मा ने अपनी ही सरकार पर हल्ला बोल दिया, जब उन्होंने ट्वीट किया कि, "मुख्यमंत्री की किचेन कैबिनेट (अनाधिकारिक सलाहकारों) में वरिष्ठ अधिकारियों का दबदबा है। मुझे इससे बहुत तकलीफ़ हो रही है क्योंकि हम किसी भी अधिकारी की पोस्टिंग नहीं करा पा रहे हैं। अगर अधिकारियों की पोस्टिंग कुछ गिने चुने अधिकारियों के इशारे पर होती रहेंगी, तो इसके गंभीर परिणाम होंगे।"
 
सज्जन वर्मा ने अपने इस ट्वीट के बाद इंदौर में एक सार्वजनिक सभा में भी सरकार के कामकाज पर सवाल उठाए। जब उन्होंने कहा कि इंदौर जैसे शहरों में जो अधिकारी मलाईदार पदों पर बैठे हुए हैं, वो किसी राजनेता की सिफ़ारिश की वजह से नहीं हैं। बल्कि, उन्हें ये मलाईदार पद इसलिए मिले हैं, क्योंकि इन अधिकारियों की सीधी पहुंच मुख्यमंत्री कमलनाथ के दफ़्तर तक है।
 
वर्मा ने कहा कि, "मुझे सच बोलने में कोई डर नहीं है। मैं मुख्यमंत्री तक उन कार्यकर्ताओं की भावनाओं को निश्चित रूप से पहुंचाउंगा, जिन्होंने इस सरकार को सत्ता में लाने के लिए पंद्रह वर्षों तक संघर्ष किया है। ये सरकार बाक़ी लोगों के लिए तो है, लेकिन अपने ही कार्यकर्ताओं का काम नहीं कर रही है। पार्टी के कार्यकर्ता अभी भी परेशान हैं।"
 
सज्जन सिंह वर्मा ने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की गतिविधियों पर भी अपने विचार सार्वजनिक रूप से रखे।
 
वर्मा ने कहा, "हमने तस्वीरों में देखा है कि किस तरह दिग्विजय सिंह, बीजेपी नेता कैलाश विजयवर्गीय को भरोसा दे रहे हैं कि चिंता मत कीजिए। ये सरकार हम चला रहे हैं। आप को और आप के साथियों को कुछ नहीं होगा।"
 
इन बयानों के बावजूद सज्जन सिंह वर्मा के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई। अब बीजेपी और कांग्रेस, दोनों पार्टियों ने एहतियात बरतते हुए अपने विधायकों को राज्य से बाहर भेज दिया है।
 
टूट से रोकने के लिए कांग्रेस के विधायकों को जयपुर में रखा गया है, तो बीजेपी के विधायक गुरुग्राम के होटल में ठहराए गए हैं। लेकिन, आख़िर में तो बहुमत का फ़ैसला विधानसभा के पटल पर ही होगा।
 
क्या मध्य प्रदेश में बदलेगी सरकार?
सवाल ये है कि क्या कांग्रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया के वफ़ादार विधायक भी बीजेपी के पाले में चले जाएंगे?
 
अगर ऐसा होता है, तो इन कांग्रेसी विधायकों के विधानसभा क्षेत्रों में कार्यरत बीजेपी के कार्यकर्ताओं का क्या होगा?
 
ये कार्यकर्ता बरसों से कांग्रेस के इन्हीं नेताओं (जो अब बीजेपी में शामिल हो सकते हैं) को हराने के लिए कड़ी मेहनत करते रहे हैं। क्या इन कांग्रेसी नेताओं के बीजेपी में शामिल होने से बीजेपी में ख़ेमेबंदी और नहीं बढ़ेगी?
 
ज्योतिरादित्य सिंधिया के अपने लोकसभा क्षेत्र गुना को ही लीजिए। ज्योतिरादित्य, 2019 के लोकसभा चुनाव में इस सीट से हार गए थे। उन्हें बीजेपी के कृष्णपाल यादव ने हराया था, जो डॉक्टर हैं और एक वक़्त ज्योतिरादित्य सिंधिया के ही कारिंदे के तौर पर जाने जाते थे।
 
कई मीडिया रिपोर्ट के अनुसार जब बीजेपी ने गुना सीट से कृष्णपाल यादव को अपना उम्मीदवार बनाने का एलान किया था, तब ज्योतिरादित्य सिंधिया की पत्नी प्रियदर्शिनी राजे सिंधिया ने बीजेपी नेता कृष्णपाल यादव की अपने पति के साथ की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हुए उनका मज़ाक़ उड़ाया था।
 
प्रियदर्शिनी ने लिखा था कि कभी महाराज के साथ एक सेल्फ़ी के लिए क़तार में खड़ा होने वाला आदमी, अब उनके ख़िलाफ़ बीजेपी का उम्मीदवार है।
 
कृष्णपाल यादव कभी ज्योतिरादित्य सिंधिया के बेहद क़रीबी हुआ करते थे और उनके चुनाव प्रचार की कमान संभाला करते थे।
 
लेकिन, पिछले विधानसभा चुनाव के बाद हालात ज्योतिरादित्य सिंधिया के ख़िलाफ़ जाने लगे, जब कृष्णपाल यादव ने कांग्रेस छोड़ने का फ़ैसला किया।
 
कृष्णपाल ने कांग्रेस छोड़ने का एलान तब किया था, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया उनकी अनदेखी करने लगे थे। कृष्णपाल का कहना था कि पार्टी के नेतृत्व ने इस इलाक़े में उनकी कड़ी मेहनत की अनदेखी की है। कृष्णपाल के पिता भी कांग्रेस के ही कार्यकर्ता रहे थे। वो कांग्रेस की अशोक नगर ज़िला इकाई के प्रमुख रहे थे।
 
लेकिन, 2019 के लोकसभा चुनाव में कृष्णपाल यादव ने ज्योतिरादित्य को एक लाख 25 हज़ार से ज़्यादा वोटों के अंतर से हराया था। अब ज़ाहिर है कि सिंधिया के बीजेपी में आने से कृष्णपाल यादव तो ख़ुश नहीं ही होंगे।

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