प्रदीप कुमार, बीबीसी संवाददाता
होली से एक दिन पहले भोपाल से लेकर नई दिल्ली के सियासी गलियारों में ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम सुर्ख़ियों में बना रहा। उनकी सोनिया गांधी से 'बात' प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से 'मुलाक़ात' और 'बीजेपी में शामिल' होने के क़यास लगाए जाते रहे। दिल्ली में होने के बावजूद इन अटकलों पर बोलने के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया सामने नहीं आए।
ये स्थिति तब देखने को मिली, जब अपने राजनीतिक करियर के सबसे लो प्वाइंट पर ज्योतिरादित्य सिंधिया चल रहे हैं।
पहले 2018 में कमलनाथ से वे राज्य के मुख्यमंत्री पद की होड़ में पिछड़ गए और उसके बाद अपने संसदीय प्रतिनिधि रहे केपी यादव से 2019 में परंपरागत लोकसभा सीट गुना में उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
इसी चुनाव के दौरान जिस पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उन्हें ज़िम्मेदारी मिली वहां भी पार्टी अपना खाता नहीं खोल पायी।
केपी यादव की जीत के वक़्त उनकी एक सेल्फ़ी बहुत वायरल हुई थी, जिसमें सिंधिया गाड़ी के अंदर बैठे थे और केपी यादव बाहर से सेल्फ़ी ले रहे थे। केपी यादव थोड़े समय तक सिंधिया के संसदीय प्रतिनिधि भी रहे थे।
ज्योतिरादित्य का मुश्किल दौर
लोकतंत्र में किसी महाराज का अपने मातहत से हार जाना कोई अचरज वाली बात नहीं है, लिहाज़ा सिंधिया ने भी हार स्वीकार करते हुए कहा कि वे जन सेवा का काम करते रहेंगे।
लेकिन उनकी असली मुश्किलों का दौर इसके बाद शुरू हुआ। इस मुश्किल दौर के बारे में मध्य प्रदेश कांग्रेस के एक नेता बताते हैं, "सिंधिया की मेहनत के चलते 15 साल के बाद कांग्रेस सत्ता में वापसी करने में सफल रही, वे मुख्यमंत्री नहीं बन पाए लेकिन उनका योगदान सबसे ज्यादा था। अब कमलनाथ जी और दिग्विजिय जी मिलकर उनकी लगातार अनदेखी कर रहे हैं।"
ज्योतिरादित्य सिंधिया राहुल गांधी के क़रीबी रहे हैं, लेकिन मुश्किल यह भी थी कि ख़ुद राहुल गांधी ने कांग्रेस सर्वेसर्वा का पद छोड़ दिया था। इस लिहाज़ से देखें तो ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों की कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही थी। इसलिए कभी शिक्षकों के मुद्दे पर तो कभी किसानों के मुद्दे पर वे कमलनाथ सरकार पर सवाल करते आए हैं।
सिंधिया के सामने अपनी बात मनवाने का कोई विकल्प नहीं बचा था लिहाज़ा उन्होंने वह रास्ता अपना लिया, जिससे 15 महीने पुरानी कमलनाथ सरकार सांसत में आ गई है।
ज्योतिरादित्य सिंधिया गुट के क़रीब 17 विधायकों के बेंगलुरु पहुंचने और उनके समर्थन में कम से कम 22 विधायकों के होने के दावे के चलते, ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलग होने से कमलनाथ सरकार का गिरना तय है।
हालांकि मध्य प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता पंकज चतुर्वेदी बताते हैं, "मध्य प्रदेश सरकार, मध्य प्रदेश कांग्रेस संगठन में किसी तरह का कोई संकट नहीं है। मैं आपसे केवल इतना ही कह सकता हूं कि हमारे तरफ़ ऑल इज वेल है। सरकार गिरने का कोई सवाल ही नहीं है।"
देर रात मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी दावा किया है कि वे सरकार गिराने की कोशिशों को कामयाब नहीं होने देंगे। इसी कोशिशों के तहत उनके 20 मंत्रियों ने अपना इस्तीफ़ा उन्हें सौंप दिया है ताकि वे अपनी कैबिनेट में बदलाव करके ज्योतिरादित्य सिंधिया गुट को मनाने की कोशिश कर सकें।
ज्योतिरादित्य सिंधिया क्या करेंगे?
ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने विधायकों के साथ अगर कांग्रेस छोड़ते हैं तो 20 विधायकों की सदस्यता जाएगी। इन 20 विधायकों को फिर से चुनाव लड़ना होगा। यही वो पहलू है जिसके चलते ज्योतिरादित्य के समर्थक बग़ावत तक जाएंगे, इसमें संदेह लग रहा है।
क्योंकि सदस्यता जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी उन्हें अपना उम्मीदवार बनाएगी ही, ये ज़रूरी नहीं है और उम्मीदवार बना भी दे तो जीत हासिल होगी, ये भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता।
वैसे भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक विधायकों में कई तो पहली बार विधायक बने हैं और कई लंबे अंतराल के बाद विधायक बन पाए हैं, तो वे सब इतना जोखिम ले पाएंगे, यह बात दावे से नहीं कही जा सकती, इसका अंदाज़ा ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी है ही।
इसके अलावा एक बड़ा सवाल यह भी कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को बीजेपी में जाकर हासिल क्या होगा, क्योंकि वहां भी वे मुख्यमंत्री तो नहीं बनेंगे। बहुत संभव हुआ तो उन्हें केंद्र सरकार में एडजस्ट किया जा सकता है।
सिंधिया की पकड़ कितनी मज़बूत?
ना तो सिंधिया के लिए बीजेपी कोई नई चीज़ है और ना ही बीजेपी के लिए सिंधिया। सिंधिया की दादी मां विजय राजे सिंधिया बीजेपी के संस्थापक सदस्यों में रहीं। दो- दो बुआएं, वसुंधरा राजे सिंधिया और यशोधरा राजे सिंधिया, अभी बीजेपी में ही हैं।
लेकिन इन सबके बाद भी सिंधिया की पहली पसंद कांग्रेस लीडरशिप से ही सम्मानजनक समझौता करने की होगी, जिसके तहत राज्य सरकार में उनकी बातों का वज़न और राज्य सभा की सीट शामिल है।
इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि मध्य प्रदेश कांग्रेस में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के रहते हुए भी ज्योतिरादित्य सिंधिया बिना किसी ज़िम्मेदारी के सबसे ज्यादा असर वाले नेता बने हुए हैं।
2018 में जब मध्य प्रदेश में कांग्रेस की वापसी हुई तो उसमें सिंधिया का ही सबसे अहम योगदान था। ज्योतिरादित्य सिंधिया के उस चुनाव में असर को समझना हो तो ऐसे समझिए कि भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी अभियान में सिंधिया विरोध को हवा दी थी, भारतीय जनता पार्टी का अभियान ही था- 'माफ़ करो महाराज, हमारा नेता शिवराज।'
पूरे राज्य में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सबसे ज्यादा चुनावी सभाओं को संबोधित किया। उन्होंने राज्य में क़रीब 110 चुनावी सभाओं को संबोधित किया, इसके अलावा 12 रोड शो भी किए। उनके मुक़ाबले में दूसरे नंबर पर रहे कमलनाथ ने राज्य में 68 चुनावी सभाओं को संबोधित किया था।
इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि राज्य के अलग-अलग हिस्सों से ज्योतिरादित्य सिंधिया को बुलाने की मांग थी और आम मतदाताओं में उनका असर भी देखने को मिला। ऐसी स्थिति में वह कांग्रेस के अंदर ही अपनी छवि और क़द दोनों को म़जबूती देने की कोशिश कर सकते हैं।
राघोगढ़ और सिंधिया घराने की कहानी
ज्योतिरादित्य सिंधिया के सियासी मुक़ामों में केंद्र में मंत्री बनना शायद बहुत अहम ना हो क्योंकि क़रीब नौ साल वे मनमोहन सरकार में मंत्री रह चुके हैं। उनकी नज़र राज्य के मुख्यमंत्री पद पर ही होगी, जिस पद तक उनके पिता माधव राव सिंधिया नहीं पहुंच पाए थे।
1993 में जब मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी तो कमान दिग्विजिय सिंह को मिली हालांकि ज्योतिरादित्व के पिता माधव राव सिंधिया राजीव गांधी के दोस्त माने जाते थे।
इससे पहले अर्जुन सिंह मौजूद थे। दो साल पहले (2018) राहुल गांधी ने भी कमलनाथ को तरजीह दी थी।
49 साल के ज्योतिरादित्य सिंधिया को यह मालूम है कि उनके पास अभी समय है लेकिन वे ये नहीं चाहेंगे कि पिता की तरह उन्हें भी मध्य प्रदेश की सत्ता हासिल करने का मौक़ा ही नहीं मिले। यही वजह है कि राजनीतिक रूप से अपने करियर के सबसे लो प्वाइंट पर पहुंचने के बाद भी ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने इलाक़े में लोगों से लगातार संपर्क कर रहे हैं।
अपने संसदीय प्रतिनिधि से हारने के बाद उनका अक्खड़पना भी सुधरा है। वे अब आम लोगों के बीच अपने कनेक्ट को बेहतर करने में जुटे हैं। उन्हें इसका अंदाज़ा भी है कि दिग्विजय सिंह और कमलनाथ उनका रास्ता लंबे समय तक नहीं रोक पाएंगे, अपने तेवरों से ज्योतिरादित्य सिंधिया इसे साबित भी करते रहते हैं।
हालांकि प्रदेश की राजनीति पर नज़र रखने वाले लोगों की मानें तो सिंधिया का कमलनाथ से ज्यादा दिग्विजय सिंह से मनमुटाव होगा। दरअसल, मध्य प्रदेश की राजनीति में राघोगढ़ और सिंधिया घराने के बीच आपसी होड़ की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है।
इस होड़ की कहानी 202 साल पुरानी है। जब 1816 में, सिंधिया घराने के दौलतराव सिंधिया ने राघोगढ़ के राजा जयसिंह को युद्ध में हरा दिया था, राघोगढ़ को तब ग्वालियर राज के अधीन होना पड़ा था।
इसका हिसाब दिग्विजय सिंह ने 1993 में माधव राव सिंधिया को मुख्यमंत्री पद की होड़ में परास्त करके बराबर कर दिया था।
दिलचस्प यह है कि मध्य प्रदेश की राजनीति में आई इस हलचल के पीछे भी ज्योतिरादित्य सिंधिया बनाम दिग्विजय सिंह का मामला सामने आ रहा है। दोनों की दावेदारी राज्य सभा सीट के लिए है। दिग्विजय सिंह राज्य सभा में अपनी वापसी चाहते हैं जबकि ज्योतिरादित्य सिंधिया भी राज्य सभी की सीट चाहते हैं।
मध्य प्रदेश से राज्य सभा की तीन सीटें हैं, इसमें एक-एक सीट बीजेपी और कांग्रेस के पास जाने की उम्मीद है। सिंधिया इसी राज्य सभा सीट से कांग्रेस हाई कमान और कमलाथ सरकार के सामने दबाव डाल रहे हैं।
वैसे सालों पहले दिए एक इंटरव्यू में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बताया था कि सिंधिया नाम से उन्हें कभी कोई मदद नहीं मिली और उनके पिता माधवराव ने उन्हें इस नाम के बिना भी बेहतर ज़िंदगी जीने का मंत्र बचपन से ही दिया था।
2018 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं बन पाने को भी आप यहीं से देख सकते हैं कि उन्हें सिंधिया होने का फ़ायदा नहीं मिला। लेकिन ख़ास बात ये है कि सिंधिया अपनी राजनीतक समझ और क़द दोनों का दायरा बड़ा करते जा रहे हैं।
कभी इनवेस्टमेंट बैंकर के तौर पर काम करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को मालूम है कि वे आज जो निवेश कर रहे हैं, उसका आने वाले दिनों में 'रिटर्न' भी बेहतर होगा। उन्हें ये भी मालूम है कि बाज़ार गिरने पर निवेशक ना तो निवेश करना बंद करता है और ना ही निवेश को बाहर निकाल लेता है।
ज़ाहिर है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपने समय और अपनी बारी का इंतज़ार बना हुआ है।