ख़दीजा आरिफ़
बीबीसी उर्दू संवाददाता
कर्फ्यू, लॉकडाउन और समाजिक अड़चनों को पीछे छोड़ते हुए इरफ़ाना ज़रगर एक मिशन पर निकल चुकी है। बीते सात सालों से उनके शहर श्रीनगर की कई महिलाएं पीरियड्स के दौरान सैनिट्री पैड की ज़रूरत के लिए उन पर पूरी तरह निर्भर हैं।
इरफ़ाना व्यक्तिगत तौर ये समझती हैं कि ये महिलाओं के लिए कितना मुश्किल है। वे बताती हैं कि जब उनकी उम्र कम थी तो 'ख़ुद के लिए जा कर सैनिट्री पैड खरीदने के बारे में वो सोच भी नहीं सकती थीं।'
वह कहती हैं, ''मेरे पिता मेरे लिए ख़रीदा करते थे, जब मेरे पिता का निधन हुआ तो मेरे लिए ये सोचना भी मुश्किल था कि मैं अपने भाइयों से पैड्स खरीदने के लिए कहूं ''। इस तरह की कठिनाइयों को झेलकर इरफ़ाना ने तय किया कि वो अपने शहर कश्मीर के श्रीनगर की ऐसी महिलाओं की मदद करेंगी।
वे बीबीसी से कहती हैं कि मैं हमेशा सोचा करती थी मेरे पास पैसे और संसाधन हैं, मैं ज़रूरतमंद महिलाओं के लिए सैनिट्री पैड खरीदूंगी।''
शर्म और 'नापाक' मानने का चलन
दक्षिण एशिया के कई हिस्सों में मासिक चक्र के दौरान महिलाओं को अपवित्र माना जाता है। महिलाओं के लिए पीरियड्स होना शर्म की बात बना जी जाती है। कई बार तो उन्हें पीरियड्स के दौरान एक कमरे या घर में क़ैद कर दिया जाता है।
इरफ़ाना इस भेदभाव भरे बर्ताव से बाहर निकली। कश्मीर में भारत और पाकिस्तान की सीमाएं जुड़ती हैं। ऐसे में ये इलाका तनाव से भरा रहता है। ऐसे में महिलाओं के लिए आज़ाद होकर घूमना-फ़िरना आसान नहीं है। ऐसे परिवार जहां कोई मर्द नहीं है उनके लिए अपनी ज़रूरत की मूलभूत चीज़ें बाज़ार जाकर खरीदना और मुश्किल हो जाता है।
खासकर सैनेट्री पैड खरीदना मुश्किलों भरा काम है क्योंकि कई बार मर्द महिलाओं के लिए सैनिट्री पैड बाज़ार से खरीदने से इंकार कर देते हैं। इरफ़ाना बताती हैं कि कई बार जो महिलाएं आर्थिक रूप से सैनिट्री पैड खरीदने के लिए संपन्न हैं लेकिन फ़िर भी उनके लिए यह ख़रीदना मुश्किल होता है क्योंकि इससे जुड़ी शर्म और झिझक महिलाओं को इसे बाज़ार से खुद जाकर लाने से रोक देती हैं।
वे कहती हैं- ज़्यादातर महिलाएं और लड़कियां दुकान पर जाने और पैड खरीदने में बहुत शर्म महसूस करती हैं। अगर जाती भी हैं तो दुकानदार से कहती हैं, 'भाई, मुझे वह दो'। वे शर्मिंदा महसूस किए बिना पैड शब्द भी नहीं बोल सकतीं।'' वे न केवल सभी महिलाओं के लिए पैड उपलब्ध कराना चाहती हैं बल्कि पीरियड्स को लेकर फैले मिथकों को भी दूर करना चाहती हैं। वे कहती हैं कि पीरियड्स एक बॉयोलॉजिकल प्रक्रिया है जिस पर खुलकर बात करनी चाहिए।
एक कोशिश बदलाव की
जब इरफ़ाना ने ये शुरू किया तो उनके पास बहुत कम पैसे थे लेकिन उनके पिता ने उनकी जो मदद की उसे वे हमेशा याद करती हैं। उनके पिता के अलावा पूरा परिवार उनकी इस योजना को लेकर बहुत सकारात्मक नहीं था।
वे बताती हैं- शुरुआत में मेरे भाइयों को पसंद नहीं था जो मैं कर रही थी। वो मेरे पीरियड किट बांटने से तो सहज थे लेकिन मेरा सोशल मीडिया पर पीरियड्स को लेकर बात करना उन्हें पसंद नहीं था। ''
सामाजिक रूप से रूढ़िवादी पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखते हुए इरफाना को आश्चर्य नहीं हुआ जब उनके रिश्तेदारों ने सैनिटरी पैड के लिए उनकी योजना का विरोध किया।
महामारी और परेशानियां
जब इरफ़ाना ने पैड बांटने शुरू किए तो उस वक़्त तो वह एक छात्रा थी और उसके पास बहुत कम पैसे थे, फिर भी वह हर महीने चैरिटी के लिए 7 डॉलर (400-500) रुपए बचा लिया करती थीं। स्थानीय नगर निगम में नौकरी मिलने के बाद वह आर्थिक रूप से और मज़बूत और सक्षम हो गईं।
इरफ़ाना अब अपने इस प्रोजेक्ट पर कम से कम 10,000 भारतीय रुपए (140 डॉलर) प्रतिमाह खर्च करती हैं। वे अपने खाली समय का इस्तेमाल पैड बनाने के लिए भी करती है, और इसके लिए अपने दोस्तों और रिश्तेदारों की मदद भी लेती हैं।
लेकिन महामारी ने इरफ़ाना को जरूरतमंदों तक पहुंचाने के उनकी कोशिशों में बदलाव लाने के लिए मजबूर किया है। वे कहती हैं` महामारी शुरू हुई तो पूरा शहर लॉकडाउन के कारण बंद हो गया, सार्वजनिक शौचालय बंद कर दिए गए. मैं भी अपने घर में बंद थी।''
इरफ़ाना ने लोगों तक पहुंचने के लिए सोशलमीडिया की मदद ली. महिलाएं जो अब तक सार्वजनिक शौचालय से पैड्स लिया करती थीम उन्होंने सोशल मीडिया पर सीधे इरफ़ाना से संपर्क किया। इसके बाद अधिकारों से इजाज़त पाने के बाद वह सीधे इन लोगों तक किट पहुंचाने लगीं। इस किट में सैनिट्री पैड का पैकेट, एक अंडरपैंट और एक हैंड सैनिटाइज़र का डिब्बा दिया जाता है।
एक पैकेट पैड की कीमत 40 से 50 रुपए तक होती है जो कश्मीर में महिलाओं के लिए एक बड़ी रक़म है। ऐसे में इरफ़ाना के किट की ख़ूब मांग है।
वह बताती हैं- महामारी के कारण बहुत से लोग अपनी नौकरी खो चुके हैं। मुझे एक बार एक आदमी का फोन आया, जो सेल्समैन का काम करता था। उसकी मम्मी अंधी थी और उसकी सात बहनें थीं. उसके लिए पैड्स खरीदना लगभग असंभव-सा था। इसके लिए वह लिए भुगतान नहीं कर सकता था। ''
वेे एक फ़रिश्ता हैं
हसीना बानो उन महिलाओं में से एक हैं जो सैनिट्री पैड का खर्च नहीं उठा सकतीं। उनकी चार बेटियां हैं, उनके शौहर का इंतकाल हो चुका है ऐसे में वो अपनी ज़रूरत के लिए रिश्तेदारों पर पूरी तरह निर्भर हैं। हसीना बताती हैं कि '' मैं और मेरी बेटी पीरियड्स के दौरान पूराने कपड़े का इस्तेमाल करते थे लेकिन फिर इरफ़ाना हमारी जिंदगी में आईं। ''
''हम जिस इलाके में रह रहे हैं वहां लड़कियां अपने पीरियड्स के दिनों ऐसी परेशानियों से जूझती आई हैं क्योंकि वे पैड नहें खरीद सकतीं, इरफ़ाना हमारे लिए फरिश्ता बनकर आईँ. इससे पहले किसी ने हमें सैनेट्री पैड्स नहीं दिए क्योंकि किसी को लगा ही नहीं कि ये हमारे लिए ज़रूरी हैं। '' पैड का इस्तेमाल कर पाना खुद के एक बेहद अद्भुत एहसास है। हमारे लिए तो पैसे दे कर ये खरीदना सोच से भी परे है।''
'पैड वुमन'
2018 में आई अक्षय कुमार और निर्देशक आर बाल्की की बॉलीवुड फिल्म 'पैड मैन' के बाद इरफ़ाना को प्यार से कश्मीर की 'पैड वुमन' कहा जाता है। ये फ़िल्म अरुणाचलम मुरुगनाथम के जीव पर आधारित है जिन्होंने कम लागत वाले घर पर बनने वाले पैड का आविष्कार किया था।
इरफ़ाना हर महीने लगभग 350 पीरियड किट और सैनिटरी बॉक्स वितरित करती है और सामान्य समय में, वह अपनी किट को 16 सार्वजनिक शौचालयों में रखती थी जहां से ज़रूरतमंद इसे उठाकर ले जाते थे।
वे अधिक से अधिक महिलाओं और युवा लड़कियों तक पहुंचना चाहती है, जिनके पास अभी भी सैनिट्री पैड की सुविधा नहीं है। साथ ही वह अब कम लागत और घर पर बनने वाले रियूज़ेबल सैनिट्री पैड बनाने पर भी फ़ोकस कर रही हैं।
इरफ़ाना अपने भविष्य की योजनाओं को साझा करते हुए कहती हैं, '' मैं कश्मीर के उन सुदूर इलाकों में जाना चाहता हूं जहां महिलाएं आज भी पैड की बजाय कपड़े का इस्तेमाल करती हैं। कुछ महिलाओं के पास साफ़ कपड़े तक भी नहीं हैं और क्योंकि वे गंदे कपड़ों का उपयोग करने के लिए मजबूर हैं इसलिए वे अक्सर किसी लाइलाज बीमारी से ग्रस्त हो जाती हैं।''
इरफ़ाना को पता है कि उसका ये काम सागर में बूंद भर जितना है लेकिन फिर भी जब कश्मीर की महिलाओं से उन्हें प्यार का पैग़ाम मिलता है तो वह उनके लिए ऐसा करते रहने की हिम्मत देता है।
इरफ़ाना का मानना है कि आज अगर उनके पिता जिंदा होते जो उनपर नाज़ करते।