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कुंभ 2019: 'राम बिसाल की अम्मा' जैसे बिछड़े लोगों की कहानी

हमें फॉलो करें कुंभ 2019: 'राम बिसाल की अम्मा' जैसे बिछड़े लोगों की कहानी
, गुरुवार, 31 जनवरी 2019 (18:01 IST)
- गीता पांडेय (प्रयागराज से)
 
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में कुंभ मेला चल रहा है और दावा किया जा रहा है कि 49 दिनों के इस मेले में दुनिया का सबसे बड़ा जमावड़ा लगेगा। अनुमान है कि इस दौरान यहां 11 करोड़ से ज़्यादा श्रद्धालु आएंगे। और इतनी बड़ी भीड़ में लोग अपनों से बिछड़ भी जाते हैं।
 
 
मेला क्षेत्र में अपनों से बिछड़े लोगों के लिए खोया-पाया केंद्र बनाए गए हैं। बीबीसी ने पूरा एक दिन ऐसे केंद्रों पर बिताया और यह जानने की कोशिश की कि आख़िर ये केंद्र काम कैसे करते हैं। ऐसा ही एक केंद्र है 'भूले भटके शिविर', जिसका संचालन स्थानीय संस्था भारत सेवा दल कर रहा है।
 
 
इस शिविर के प्रमुख उमेश तिवारी कहते हैं, "अधिकतर लोग, जिन्हें हम पा रहे हैं वो बुज़ुर्ग होते हैं। इनमें से ज़्यादातर महिलाएं हैं, जो 60 साल से ऊपर की होती हैं।"
 
 
इस शिविर की स्थापना उमेश तिवारी के पिता राजा राम तिवारी ने 1946 में की थी और दावा है कि तब से अब तक उन्होंने 15 लाख परिवारों को अपने खोए सदस्यों से मिलाया है। शिविर के प्रवेश द्वार पर एक पुलिसकर्मी गुम हुए नए लोगों के नाम और दूसरी सूचनाएं एक रजिस्टर में दर्ज कर रहे हैं ताकि उनके परिवारों से संपर्क साधा जा सके।
 
 
वहीं शिविर के अंदर अपनों से बिछड़े दर्जनों लोग चिंतित मुद्रा में बैठे हैं और इंतज़ार कर रहे हैं कि कब उनके अपने आएंगे। इनमें से एक आंखों में आंसू लिए भर्राई आवाज़ में कहता है, "मेरे नाम की घोषणा एक बार और कर दें।"

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इंतज़ार
अपनों से बिछड़े लोगों में 35 साल की एक महिला भी है, जो अपनी आठ साल की बेटी के साथ शिविर में बैठी है। महिला की बेटी ने कंबल ओढ़ रखा है क्योंकि जब वह आई तो उसके तन पर कपड़े नहीं थे।
 
 
उन्होंने मुझे बताया, "मेरे पति और मेरा बेटा स्नान करने गए थे और मैं अपनी बेटी के साथ बाथरूम गई थी। जब हम लौटे, तो वो मुझे नहीं मिल पाए।" "हमने आसपास के लोगों से पूछताछ की और शिविर में 11 बजे आए। हम लोग घंटों से इंतज़ार कर रहे हैं और समझ नहीं आ रहा है कि क्या करें।"
 
 
उनका मोबाइल फ़ोन, बैग, सब कुछ उनके पति के पास था। मां और बेटी, दोनों को कोई भी मोबाइल नंबर याद नहीं है और उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि वो घर वापस कैसे लौटें।
 
 
शिविर के कार्यकर्ता मेले में लगाते हैं चक्कर
बच्ची को पहनाने के लिए सारे बड़े कपड़े थे और उनके बारे में कई बार माइक से घोषणा की गई लेकिन उनको लेने कोई नहीं पहुंचा। तिवारी उन्हें घर लौटने के लिए कुछ पैसे देने को तैयार थे पर अंधेरे के कारण वो घर लौटना नहीं चाहतीं। वो महिला कहती हैं, "जहां मैं रहती हूं, वहां से एक मील दूर आने-जाने की सुविधा नहीं है। मैं सुरक्षित घर कैसे लौट पाऊंगी।"
 
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तिवारी उन्हें शिविर में रात गुज़ारने की सलाह देते हैं। जैसे ही वो अंदर गईं, शिविर का एक कर्मी उनके पास आया और उनके पति के आने की जानकारी दी, इसके बाद वो दोनों उसके साथ घर लौट जाते हैं।
 
 
तिवारी कहते हैं, "कई बार भीड़ बहुत ज़्यादा होती है और इस दौरान लोग आसानी से एक-दूसरे से बिछड़ जाते हैं। हम लोगों ने सुबह से 560 ऐसे लोगों को पाया है और उनमें से 510 को सुरक्षित उनके परिवारों से मिलवाया है।"
 
 
जैसे ही दिन ढलने लगता है, शिविर में मौजूद लोगों की चिंताएं बढ़ने लगती है। वहां मौजूद एक बुज़ुर्ग अपनी पत्नी से सुबह बिछड़ गए थे। नम आंखों से वो कहते हैं, "वो कहां होगी? उसने कुछ खाया होगा या नहीं? उसके पास न मोबाइल है और न पैसे हैं।"
 
 
मेले में शिविर के 25 कार्यकर्ता चक्कर लगाते रहते हैं और वो बिछड़े लोगों को अपनों से मिलाने में मदद करते हैं। तिवारी कहते हैं, "मिलना-बिछड़ना भगवान की मर्ज़ी है। हम लोग सिर्फ़ मदद करते हैं और उन्हें मिलाने की कोशिश करते हैं।"
 
 
बिछड़े लोगों का भय
भूले भटके केंद्र से कुछ दूरी पर ही उत्तर प्रदेश पुलिस का खोया-पाया केंद्र है। जब मैं वहां गई तो वहां का माहौल भी कुछ वैसा ही था। वहां भी कुछ युवा रजिस्ट्रेशन काउंटर पर बिछड़े लोगों से सूचनाएं मांग रहे थे। ये सूचनाएं कंप्यूटर में दर्ज की जा रही थीं। कुछ युवा जो राज्य के बाहर से थे उन्हें लोगों की बोली से जूझना पड़ रहा था।
 
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एक काउंटर पर एक युवा वॉलंटियर एक समूह से बिछड़ी 60 वर्षीय महिला से उनका नाम पूछ रहा है तो उन्होंने जवाब दिया, "राम बिसाल की अम्मा।".... वॉलंटियर ने हैरान होते हुए कहा, "मुझे आपके बेटे का नाम नहीं चाहिए, मुझे आपका नाम चाहिए।" महिला ने कहा कि वह अपना असली नाम नहीं जानती हैं लेकिन वॉलंटियर के ज़ोर देने पर उन्होंने अनमने ढंग से कहा, 'सरस्वती देवी मौर्या।'
 
 
सरस्वती देवी ने कहा कि वह अपने गांव के पांच लोगों के साथ मेले में आई हैं। संगम पर वह अपने समूह के साथ बिछड़ गईं। वह ख़ुद से लोगों को खोजते हुए इस केंद्र पर आ पहुंचीं। हालांकि, वह इस समूह के दो पुरुषों का नाम लेने में सक्षम थीं लेकिन उनके पास कोई टेलिफ़ोन नंबर नहीं था।
 
 
यहां पर जो लोग अपने दोस्तों और परिजनों से मिलने का इंतज़ार कर रहे हैं। वे उम्रदराज़, कम पढ़े-लिखे हैं जिन्हें कोई भी टेलीफ़ोन नंबर याद नहीं है। अधिकतर को यह भी मालूम नहीं था कि वे कहां से आए हैं। बहुत से अपने गांवों के नाम जानते थे लेकिन अपने ज़िले के बारे में नहीं जानते थे।
 
 
सरस्वती देवी ख़ुशनसीब हैं। जब उनका मामला दर्ज किया जा रहा था तभी दूसरे काउंटर पर दो युवा एक गुम हो चुके व्यक्ति की रिपोर्ट लिखाने की कोशिश कर रहे थे। तभी सरस्वती ने उन्हें पहचान लिया, वे उन्हीं के समहू के लोग थे। उनके चेहरे पर संतुष्टि साफ़ देखी जा सकती थी, वे लोग मिलते ही बातें करने लगे।
 
 
प्रवेश यादव कहते हैं, "हम बहुत भयभीत थे कि उनके साथ क्या हुआ होगा। वह गांव में हमारी पड़ोसी हैं। हम कैसे वापस जाते और अपना मुंह दिखाते।"
 
 
कुछ ही मिनटों बाद इस समूह की दूसरी महिला श्यामकली आती हैं। दोनों महिला एक-दूसरे को देखकर चिंता मुक्त होती हैं लेकिन नाराज़ भी हैं। श्यामकली सोचती हैं कि सरस्वती देवी नदी में अकेले जाने को लेकर अति-आत्मविश्वासी और साहसी बन रही थीं जबकि वह कहती हैं कि बाक़ी लोगों ने उनको लेकर लापरवाही दिखाई। हालांकि, जल्द ही वे गले मिलने लगती हैं।
 
 
इसी बीच लोग आते रहते हैं और वॉलंटियर व्यस्त रहते हैं। हालांकि, बहुत से लोग जो बिछड़ते हैं, वे मिल जाते हैं लेकिन फिर भी कुछ कहानियों का अंत अच्छा नहीं होता।
 
 
नोखा देवी को खोया-पाया केंद्र पर आए कई घंटे बीत चुके हैं लेकिन वॉलंटियर्स उनसे कुछ भी जानकारियां नहीं ले पाए हैं। वह परेशान दिख रही हैं और सवालों के जवाब देने में असमर्थ हैं। एक वॉलंटियर कहता है, "अगले 12 घंटों में अगर कोई इनके लिए नहीं आया तो हम इन्हें पुलिस के हवाले कर देगें और वो इन्हें निराश्रित लोगों के लिए बने आश्रय स्थल में ले जाएगी।"
 
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'हम उनके परिवार से क्या कहेंगे?'
जब मैं वहां घूम-घूमकर लोगों की कहानियां सुन रही थीं तब दो बूढ़ी महिलाएं एक काग़ज़ के टुकड़े के साथ मेरे पास आईं। इस पर दो लोगों के नाम और मोबाइल नंबर हिंदी में लिखे थे।
 
 
उनमें से एक ने कहा, "क्या आप इन्हें कॉल करके यह पता कर सकती हैं कि वह हमारे कैंप में तो नहीं हैं।" उन्होंने गुजराती में मुझे अपना नाम प्रभा बेन पटेल बताया। वह अहमदाबाद से हैं और अपनी दो दोस्तों के साथ यहां आई हैं।
 
 
वह कहती हैं, "हमने पवित्र जल में स्नान किया और पास के मंदिर में गए थे जहां हमारी दोस्त गुम हो गई।" वह बेहद परेशान होते हुए मुझसे कहती हैं, "हम उनके परिजनों से क्या कहेंगे अगर वह हमें नहीं मिल पाईं?"
 
 
मैंने उसमें से एक नंबर पर कॉल किया और प्रभा बेन को फ़ोन दे दिया। उन्होंने उस स्थिति के बारे में बताया। कुछ देर के बाद मेरा फ़ोन फिर बजा तो दूसरी ओर एक महिला बेहद उत्साह से बात कर रही थी तो मैंने प्रभा बेन को फ़ोन दे दिया। आख़िरकार वह चिंता मुक्त हुईं और हंसने लगीं। उनकी दोस्त ठीक है और कैम्प में जा चुकी है।

 
ज़रूरत के सामान
भूले भटके केंद्र से कुछ ही दूरी पर एक दूसरा कैंप चल रहा है। यहां वो महिलाएं और बच्चे रहते हैं जो मेले में अपनों से बिछड़ गए हैं। हेमवती नंदन बहुगुणा स्मृति समिति कैंप में महिलाओं और बच्चों को रहने के इंतज़ाम किए गए हैं। यह कैंप 1956 से चल रहा है।
 
 
इसके प्रबंधक संत प्रसाद पांडेय ने मुझे बताया कि उन्होंने सुबह से क़रीब 950 लोगों को उनके परिवारों से मिलाया है और 15 अभी भी अपने परिवारों का इंतज़ार कर रहे हैं। वो कहते हैं, "हमलोग कैंप में रहने वाली महिलाओं को खाना, कपड़े और दूसरी ज़रूरत के सामान उपलब्ध कराते हैं और जो घर ख़ुद लौट सकते हैं, उनके लिए टिकट की भी व्यवस्था की जाती है।"
 
 
संत प्रसाद पांडेय बताते हैं कि मेला क्षेत्र में उनके 100 कार्यकर्ता घूम रहे हैं और वो ख़ास तौर पर बच्चों पर ध्यान रखते हैं जो किसी वजह से अपने मां-बाप या परिवार से बिछड़ जाते हैं।
 
 
कैंप में संध्या विश्वकर्मा नाम की महिला अपनी पांच साल की बेटी का इंतज़ार कर रही हैं। वो रोते हुए कहती हैं, "एक घंटे से ज़्यादा हो गए हैं उसे खोए हुए। हम लोगों ने उसे सभी जगह ढूंढा पर नहीं मिली। यहां घोषणा कराने आई हूं।"
 
 
संत प्रसाद पांडेय, संध्या को समझाते हैं कि वो पुलिस से संपर्क में हैं और दो अन्य ऐसे केंद्रों से इस बारे में पता लगा रहे हैं। कुछ देर बात संध्या की बताई सूचना के आधार पर पुलिस कैंप में एक बच्ची लाई जाती है। जब संध्या और उसकी बहन वहां पहुंचती हैं, वो अपनी बेटी को पुलिस के पास पाती हैं।
 
 
पुलिस बच्ची को संध्या को पहचानने को कहती है। बच्ची कहती है, "हां... यही मेरी मम्मी हैं।"
 
 
इसके बाद कुछ दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर कराए जाते हैं और यह सुनिश्चित किया जाता है कि संध्या कहीं कोई बाल तस्कर तो नहीं है इसके बाद बच्ची को मां को सौंप दिया जाता है। संध्या कहती हैं, "पुलिस ने बताया था कि यहां से कई मील दूर एक बुज़ुर्ग आदमी को मेरी बेटी मिली थी और उसने उसे पुलिस को सौंपा था।"
 
 
अब तक रो रही संध्या के चेहरे पर मुस्कान है और वह तस्वीर भी खिंचा रही हैं।
 

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