मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से बिहार में गठबंधन की राजनीति होती रही है और हर चुनाव में छोटी पार्टियों की अहम भूमिका रही है।
ये पार्टियां बहुत ज़्यादा सीटें जीतने और सरकार बनाने की स्थिति में तो नहीं होतीं लेकिन कई बार ये कड़ी चुनावी टक्करों में बड़ी पार्टियों की जीत और हार में निर्णायक ज़रूर बन जाती हैं।
पिछले कई चुनावों में ये देखा गया है कि इन छोटी क्षेत्रीय पार्टियों और निर्दलीय उम्मीदवारों का मिलाजुला वोट किस तरह वोटकटवा बन गया।
बिहार की राजनीति बिखरी हुई है, लेकिन कई क्षेत्रीय पार्टियां अकेले चुनाव लड़कर नुक़सान उठाने के बाद गठबंधन के रास्ते पर चल पड़ी हैं।
इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है लोक जनशक्ति पार्टी (LJP), जिसने फरवरी और अक्टूबर 2005 के विधानसभा चुनाव अकेले लड़े लेकिन बाद में गठबंधन करने का फैसला ले लिया।
एलजेपी ने 2010 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के साथ गठबंधन किया था। 2015 में पार्टी एनडीए के साथ आ गई और अब 2020 में अकेले चुनाव लड़ रही है।
ऐसे और भी दल हैं जैसे उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी, जीतन राम माझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा, मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी, जिन्होंने चुनाव दर चुनाव गठबंधन बदले हैं।
इन पार्टियों को लेकर ज़्यादा चर्चा नहीं होती क्योंकि ये बड़ी पार्टियों के गठबंधन में शामिल हो जाती हैं या आपस में ही गठबंधन बना लेती हैं।
दूसरे राज्यों की पार्टियां
बिहार में ऐसी भी कई पार्टियाँ हैं जिनका दूसरे राज्यों में तो बड़ा आधार है लेकिन यहाँ पर ख़ास कमाल नहीं दिखा पातीं लेकिन ये भी वोटकटवा ज़रूर बन जाती हैं।
उत्तर प्रदेश के दो बड़े क्षेत्रीय दल बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी बिहार में महत्वपूर्ण वोटकटवा मानी जाती हैं।
वहीं, लेफ़्ट पार्टियां सीपीआई, सीपीएम और सीपीआईएमएल भी कई विधानसभा क्षेत्रों में बड़ी पार्टियों का खेल बिगाड़ देती हैं। 1990 के मध्य और उसके कुछ समय बाद तक भी बिहार में वामपंथी पार्टियों की अहम मौजूदगी रही है।
एलजेपी ने काटे वोट
इस बार अकेले चुनाव लड़ रही एलजेपी ने 2005 के दोनों चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। पार्टी ने फरवरी 2005 में 12.6 प्रतिशत वोटों के साथ 29 सीटें और अक्टूबर 2005 में 11.1 प्रतिशत वोटों के साथ 10 सीटें जीती थीं।
एलजेपी बहुत ज़्यादा सीटें तो नहीं जीत पाई थी लेकिन पार्टी ने कई दूसरी विधानसभा सीटों में बड़ी संख्या में वोट हासिल करके बड़ी पार्टियों या गठबंधनों को नुक़सान पहुंचाया था।
29 सीटों के साथ एलजेपी का फरवरी 2005 का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा है लेकिन अन्य 33 सीटों पर एलजेपी का वोट शेयर जीत के अंतर के दोगुने से ज़्यादा रहा था।
इसी तरह अक्टूबर 2005 के चुनाव में इसने सिर्फ़ 10 सीटें जीती थीं लेकिन 68 विधानसभा सीटों पर बड़ी पार्टियों के वोटों को नुक़सान पहुंचाया था। इन 68 सीटों पर एलजेपी को जीत के अंतर के दोगुने से ज़्यादा वोट मिले थे।
मान लीजिए अगर इन सीटों पर एलजेपी ने चुनाव ना लड़ा होता और उनके हिस्से के आधे से थोड़े ज़्यादा वोट किसी एक गठबंधन को मिल जाते तो इन सीटों पर नतीजे कुछ अलग होते।
2010 के विधानसभा चुनाव में एलजेपी ने आरजेडी के साथ गठबंधन बनाया तो वोट कटवा की उसकी भूमिका बहुत सीमित हो गई। सिर्फ़ आठ विधानसभा क्षेत्रों में इसका वोट शेयर जीत के अंतर के दोगुने से ज़्यादा रहा।
बसपा और सपा ने बिगाड़ा खेल
बसपा और सपा ने भी कई सीटों पर खेल बिगाड़ा है। साल 2000 के विधानसभा चुनाव में 14 सीटों पर, फरवरी व अक्टूबर 2005 में 25 सीटों पर, 2010 के चुनाव में 20 सीटों पर और 2015 में नौ सीटों पर बसपा का वोट शेयर जीत के अंतर के दोगुने से भी ज़्यादा रहा था।
हालांकि, बिहार में समाजवादी पार्टी की बसपा के मुक़ाबले वोटकटवा की भूमिका कम रही है। साल 2000 के चुनाव में 13 सीटों पर, फरवरी 2005 में 12 सीटों पर, अक्टूबर 2005 में 17 सीटों पर, 2010 में तीन सीटों पर और 2015 के चुनाव में सात सीटों पर सपा का वोट शेयर जीत के अंतर के दोगुने से भी ज़्यादा रहा था।
वामपंथी दलों ने राजद को पहुंचाया चोट
वामपंथी दलों (सीपीआई, सीपीएम और सीपीएमएल) ने एकसाथ मिलकर कई बार राजद गठबंधन के वोट काटे थे। वामपंथी दलों ने साल 2000 के चुनावों में 39 सीटों पर, फरवरी 2005 में 13 सीटों पर, अक्टूबर 2005 में 18 सीटों पर, 2010 में 23 सीटों पर और 2015 में 14 सीटों पर राजद गठबंधन का खेल बिगाड़ा है।
अगर मान लें कि वामपंथी दलों ने अपने उम्मीदवार ना खड़े किए होते और उनको मिले वोटों के आधे से थोड़े ज्यादा वोट भी राजद के गठबंधन को चले जाते, तो उन्हें स्पष्ट जीत मिल सकती थी।
हाल के दशकों में बिहार में कई राजनीतिक दल बिना किसी बड़े गठबंधन का हिस्सा बने चुनाव में उतरे हैं। इनमें से कुछ दलों को स्थानीय समीकरणों के कारण पर्याप्त वोट भी मिलते रहे हैं।
कई विधानसभा क्षेत्रों में इन्होंने बड़े गठबंधनों का चुनावी समीकरण भी बिगाड़ा है। ये पार्टियां बड़े गठबंधनों के वोट काटती हैं, कभी-कभी चुनावी नतीजों पर प्रभाव डालती हैं, इसलिए इन्हेंवोट कटवा कहा जाता है।
इस साल ज़्यादा होंगे वोटकटवा
पहले के बिहार विधानसभा चुनावों की यही कहानी रही है लेकिन 2020 में और भी ज़्यादा वोटकटवा प्रभाव देखने को मिल सकते हैं। इस बार चार गठबंधन हैं और चिराग पासवान के नेतृत्व में लोजपा अकेले चुनाव लड़ रही है।
इस चुनाव में पिछले विधानसभा चुनावों के मुक़ाबले वोट ज़्यादा बिखर सकते हैं जिससे जीत का औसत अंतर कम हो सकता है।
अगर वोटकटवा की भूमिका अधिक हो तो जीत का अंतर कम हो जाता है या जीत का अंतर कम हो तो वोटकटवा की भूमिका बढ़ जाती है। ये बात दोनों तरह से कही जा सकती है।
फिलहाल चुनाव चल रहा है इसलिए रिपोर्ट्स और आंकड़ों के आधार पर ही अनुमान लगाया जा सकता है। 10 नवंबर को नतीजे आने के बाद ही तस्वीर साफ हो पाएगी।
(लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) में प्रोफेसर हैं। वह राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार भी हैं। इस लेख में उन्होंने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)