शिया-सुन्नी टकराव है सऊदी और ईरानी दुश्मनी

Webdunia
शुक्रवार, 9 जून 2017 (11:38 IST)
बुधवार को ईरान में संसद और अयातुल्लाह ख़ुमैनी की मज़ार पर हमला किया गया जिसमें 12 लोगों की जान गई, तीनों हमलावर मार दिए गए। इस हमले की ज़िम्मेदारी सुन्नी चरमपंथी संगठन आईएस ने ली।
 
इस हमले को सिर्फ़ एक घटना के तौर पर नहीं बल्कि मध्य पूर्व में एक बड़े क्षेत्रीय टकराव की शुरुआत के रूप में देखा जा रहा है। इस क्षेत्र में नस्ली, धार्मिक, सांस्कृतिक और कूटनीतिक दरारें काफ़ी गहरी हैं और उन्हें समझना ज़रूरी है।
 
मध्य पूर्व में दो बड़ी ताक़तें हैं, ईरान और सऊदी अरब, इन दोनों के आपसी रिश्ते काफ़ी कटु हैं, और दोनों ही पूरे क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार करने में जुटे हैं इसलिए बार-बार टकराव की स्थितियाँ पैदा होती हैं। सऊदी अरब कट्टरपंथी सुन्नी वहाबी इस्लाम का गढ़ है जबकि ईरान शिया बहुल देश है, दोनों ही देशों की राजनीति और कूटनीति में धर्म ही केंद्र में है।
 
जानकार मानते हैं कि पूरी दुनिया में सऊदी अरब ख़ुद को सुन्नी इस्लाम का झंडाबरदार मानता है, तो ईरान ख़ुद को शिया मुसलमानों के प्रेरणास्रोत, रक्षक और मददगार के तौर पर देखता है।
 
मध्य पूर्व में ईरान, इराक़ और बहरीन जैसे कुछ देश हैं जहाँ शिया आबादी सुन्नियों से अधिक है। बाक़ी मध्य-पूर्व के देशों में सुन्नी मत को मानने वाले बहुसंख्यक हैं, सऊदी अरब ख़ुद को इन देशों का अगुआ मानता है। इस धार्मिक आधार पर कि मक्का-मदीना उनके यहाँ है और इस आधार पर भी क्योंकि उसके पास पूरी दुनिया का सबसे बड़ा तेल भंडार है और वह अमेरिका का दोस्त है।
 
दूसरी ओर, 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद से अमेरिका के साथ ईरान के संबंध दुश्मनी वाले ही रहे हैं। ईरान और सऊदी अरब के बीच दुश्मनी का आलम ये है कि विकिलीक्स से पता चला कि सऊदी शाह अमेरिका पर दबाव बना रहे थे कि वो इसराइल से ईरान पर हमले करवाए।
 
जहाँ सऊदी अरब पर आरोप लगते हैं कि वह वहाबी चरमपंथ को बढ़ावा देता है, उनकी फंडिंग करता है, वहीं लेबनान में सक्रिय शिया हथियारबंद संगठन हेज़बुल्लाह को ईरान का समर्थन हासिल है। ये बात भी आम जानकारी में है कि सीरिया और इराक़ में लड़ रहे हथियारबंद गुटों के तार शिया-सुन्नी के हिसाब से ईरान और सऊदी अरब से जुड़े हैं।
 
मध्य-पूर्व में तीन बड़ी और प्रभावी नस्लें हैं- अरबी, फ़ारसी और तुर्क और इनमें आपस में सदियों से तनातनी चलती रहती है। ये भी समझने की बात है कि एक ही क्षेत्र में रहने के बावजूद सांस्कृतिक तौर पर अरब और ईरानी काफ़ी अलग रहे हैं। ईरान और इराक़ के बीच अस्सी के दशक में चली लंबी लड़ाई भी सुन्नी-शिया टकराव के तौर पर देखा जा सकता है।
 
शिया बहुल इराक़ पर सुन्नी सद्दाम हुसैन का शासन था और वे इराक़ की शिया आबादी में ईरान के बढ़ते प्रभाव से काफ़ी परेशान थे जो लड़ाई की मुख्य वजह बना। बहरीन और इराक़ ऐसे शिया बहुल देश हैं जहाँ अल्पसंख्यक होते हुए भी सुन्नियों का शासन लंबे समय तक रहा है।
 
ईरान और सऊदी अरब के बीच अविश्वास में एक बड़ा फैक्टर अमेरिका है, सऊदी अरब अमेरिकी हथियारों के सबसे बड़े ख़रीदारों में है, सुरक्षा सहित अपनी कई ज़रूरतों के लिए अमेरिका पर निर्भर है जबकि ईरान और अमेरिका के बीच राजनयिक संबंध नहीं हैं।  दूसरी ओर ईरान बहुत सारे मामलों में आत्मनिर्भर रहा है और उसने तमाम प्रतिबंधों और दबावों के बीच स्वतंत्र रूप से अपना परमाणु कार्यक्रम चलाए रखा था।
 
अफ़ग़ानिस्तान एक ऐसी जगह है जहाँ अपना प्रभाव बढ़ाने में ईरान और सऊदी अरब दोनों लगे रहे हैं, ख़ास तौर पर पश्चिमी अफ़ग़ानिस्तान में ईरान अधिक सक्रिय है क्योंकि वो हिस्सा ईरान से जुड़ा हुआ है। सऊदी अरब और ईरान के बीच अगर टकराव बढ़ता है तो ज़ाहिर है कि इसके कई दूरगामी परिणाम होंगे।
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