खुशहाल लाली/अरविंद छाबड़ा, बीबीसी पंजाबी
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी ज़ले के तिकुनिया गांव के पास 4 किसानों को गाड़ियों से कुचल कर मारने की घटना ने राज्य के सिख और पंजाबी समुदाय को सुर्ख़ियों में ला दिया है।
इस घटना में मारे गए किसान लवप्रीत सिंह, दिलजीत सिंह, नछत्तर सिंह और गुरविंदर सिंह, सभी का संबंध सिख समुदाय से था।
इस घटना के बाद केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा और उनके साथियों के ख़िलाफ गाड़ी से किसानों को कुचलने के आरोप में एफ़आईआर दर्ज हुई है, वहीं मंत्री अजय मिश्रा किसान आंदोलन में सिखों की भागीदारी को ख़ालिस्तानी संगठनों से जोड़ रहे हैं।
सोशल मीडिया पर यह भी चर्चा हो रही है कि क्या सिख ख़ालिस्तानी आंदोलन के उदय के दौरान यूपी में आकर बस गए थे। साथ ही यूपी में सिख समुदाय पर तरह-तरह के आरोप लगाए जा रहे हैं। इस रिपोर्ट के माध्यम से हमने यूपी के तराई क्षेत्र में सिखों की स्थिति और उनका प्रभाव जानने की कोशिश की है।
यूपी में सिखों का आगमन
महिंदर सिंह, लखीमपुर खीरी के नेपाल सीमा से सटे एक गांव पश्तौर में रहते हैं। 50 वर्षीय महिंदर सिंह ने बीबीसी पंजाबी को फ़ोन पर बताया कि उनका परिवार क़रीब 60 साल पहले पंजाब से यहां आया था।
उनकी पृष्ठभूमि पंजाब के नवांशहर ज़िले के माहला गेहलां गांव की है। महिंदर सिंह बताते हैं कि उनके पिता सोहन सिंह अपने परवार के साथ इस इलाके में आए थे।
उस समय उन्हें पता चला था कि यहां बंज़र ज़मीन बहुत सस्ते दामों पर मिल जाती थी। उन्होंने यहां आकर क़रीब 10 एकड़ ज़मीन ख़रीदी और यहीं बस गए।
महिंदर सिंह के मुताबिक़ उनके बड़े भाई यूपी रोडवेज़ में इंस्पेक्टर हैं और उनकी दो बहनें हैं जिनकी शादी यूपी में ही हुई है। वे कहते हैं कि उनके ज़्यादातर रिश्तेदार यहीं हैं, हालांकि कुछ पंजाब में भी हैं।
महिंदर सिंह की तरह पीलीभीत इलाके में रहने वाले सुरजीत सिंह ने बीबीसी पंजाबी को बताया कि उनके दादा बंता सिंह 1948 में यहां आए थे। सुरजीत सिंह के भी पंजाब के नवांशहर ज़िले के नौरा गांव से संबंध हैं।
सुरजीत सिंह कहते हैं, "मेरे पिता का नाम भजन सिंह था। वह बताते थे कि 1948 में देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान के कई सिख परिवारों को तराई क्षेत्र में ज़मीनें आवंटित की गई थीं।
पंजाब में हमारे पड़ोसी गांव बलाचौर के कुछ दोस्तों के साथ मिलकर बंता सिंह भी सस्ती ज़मीन लेने के लिए यूपी आए थे।" वर्तमान में वे पीलीभीत में बारापुरा डाकघर के अंतर्गत आते गांव डबका में रहते हैं।
सुरजीत सिंह ने आगे बताया, "तब यहां ज़मींदारी व्यवस्था थी, उनके पास सैकड़ों एकड़ ज़मीनें होती थीं जो बंज़र होती थीं, इसलिए तब 15-20 रुपये प्रति एकड़ के भाव से ज़मीन मिल जाती थी।" पूरे तराई क्षेत्र में इन ज़मीनों को पंजाब से आए पंजाबी किसानों ने अपने ख़ून-पसीने से आबाद किया है।
यूपी में 3 तरह की सिख आबादी
सुरजीत सिंह के मुताबिक यूपी में तीन तरह की सिख आबादी है। पहले लोग वे हैं जो 1947 में पाकिस्तान से निकलकर यहां आए और उन्हें इस जंगली व निर्जन क्षेत्र में बसाया गया।
महिंदर सिंह बताते हैं कि दूसरे लोग वे हैं जो पहले आए लोगों के संपर्क में थे और सस्ती ज़मीन के बारे में जानकर यहां आने का फ़ैसला किया।
वे बताते हैं, "जब हम यहां अपने समुदाय के लोगों से बात करते हैं तो हम देखते हैं कि 1960 और 1970 के दशक में पंजाब से यूपी आने वाले लोगों की संख्या बहुत ज़्यादा थी।"
जसबीर सिंह विर्क उत्तर प्रदेश में सिखों के संगठन भारतीय सिख संगठन के अध्यक्ष हैं। बीबीसी पत्रकार अरविंद छाबड़ा से फ़ोन पर बात करते हुए उन्होंने बताया कि सिख मुख्य रूप से पांच ज़िलों लखीमपुर, पीलीभीत, शाहजहांपुर, बिजनौर और रामपुर में बसे हुए हैं। उत्तराखंड का उधम सिंह नगर ज़िला राज्य की सिख आबादी का गढ़ माना जाता है।
इसके अलावा उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के कानपुर, वाराणसी, आगरा और कई अन्य शहरों में भी सिख आबादी है। इनमें से कई लोग वे हैं जिनका पंजाब से कोई संबंध नहीं है। ये लोग, सिख गुरु साहिबान की इस क्षेत्र की यात्राओं के दौरान उनके प्रभाव से सिख बने।
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कई शहरों में ऐतिहासिक गुरुद्वारों का होना इस बात की गवाही देता है कि इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में उन लोगों के वारिस बसे हैं जिन्होंने सिख गुरुओं से प्रेरित होकर सिख धर्म अपनाया था।
यूपी और उत्तराखंड में सिख आबादी
2011 की जनगणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश में सिखों की कुल जनसंख्या 6,43,500 थी जबकि उत्तराखंड में 2,36,340 थी।
ये उत्तर प्रदेश की कुल जनसंख्या का 0।32 प्रतिशत और उत्तराखंड की जनसंख्या का 2।34 प्रतिशत है। महिंदर सिंह का कहना है कि ज़्यादा आबादी गांवों में है और मुख्य रूप से कृषि कार्यों में लगी हुई है। पंजाब और हरियाणा की तरह, गेहूं और धान ही उनकी मुख्य फ़सलें हैं।
कृषि के बाद परिवहन (ट्रांसपोर्ट) को उनका सबसे बड़ा व्यवसाय कहा जा सकता है।
सिख समुदाय का गढ़ लखीमपुर खीरी
जसबीर सिंह विर्क बताते हैं, "लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र का ऐसा इलाका है जहां सिखों का बहुत प्रभाव है।"
लखीमपुर खीरी तराई क्षेत्र का नेपाल की सीमा से सटा हुआ ज़िला है। यह लखनऊ प्रशासन के अंतर्गत आता है और लखनऊ शहर से लगभग 130 किमी दूर है।
द इंडियन एक्सप्रेस अख़बार की एक रिपोर्ट के अनुसार, ज़िला घरेलू उत्पाद डेटा के अनुसार ज़िले का हिस्सा 12,414।40 करोड़ रुपये है, जो राज्य में कुल कृषि, वन और मछली पालन विकास का 3।38 प्रतिशत है।
यह आंकड़ा उत्तर प्रदेश डाइरेक्टरेट ऑफ़ इकॉनॉमिक्स एंड स्टैटिस्टिक्स की वर्ष 2019-20 की रिपोर्ट पर आधारित है।
जसबीर विर्क कहते हैं, "सिख अब तराई क्षेत्र में अपने काम में अच्छी तरह से स्थापित हो चुके हैं, चाहे वह व्यवसाय हो या कृषि।"
उन्होंने बताया कि राज्य में किसान आंदोलन का ज़्यादा असर नहीं हो रहा है। लखीमपुर पिछले समय में तब सुर्खियों में आया था जब चार ज़िलों में क़रीब 1,000 सिख किसानों के विस्थापन की ख़बरें सामने आई थीं।
आम आदमी पार्टी के भगवंत मान ने बयान जारी किया था कि, ''यूपी के तराई क्षेत्र में 70 साल से रह रहे हज़ारों सिख किसानों को योगी सरकार द्वारा बेदखल किया जा रहा है।''
"यह उसी तरह किया जा रहा है जैसे भाजपा सरकार ने गुजरात के कच्छ क्षेत्र से पंजाबी किसानों को बेदखल किया था।"
25 सितंबर, 2021 के समारोह में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा भी किसानों को धमकाते हुए नज़र आ रहे हैं कि 'अगर उनका विरोध किया, तो लखीमपुर खीरी से बाहर जाना पड़ेगा।'
राजनीतिक रूप से कितने प्रभावी
जसबीर सिंह विर्क कहते हैं कि 10 महीने के संघर्ष के बावजूद सरकार नहीं मान रही कि किसान आंदोलन का ज़्यादा असर हो रहा है।
लेकिन निश्चित रूप से किसान उन तीन कृषि क़ानूनों को लेकर दुखी हैं और अपनी क्षमता अनुसार संघर्ष भी कर रहे हैं।
विर्क कहते हैं, ''इस इलाके में दो-तीन सड़कें बंद हैं और ये वे किसान हैं जो अपना डीज़ल और पैसा जला रहे हैं, सरकार को अब इससे कोई फ़र्क़ पड़ता नहीं दिख रहा है, राज्य सरकार किसान आंदोलन से ज़्यादा प्रभावित नहीं लगती।"
उन्होंने कहा कि पंजाब की तरह यहां सिखों की आवाज़ मज़बूत नहीं है। वो कहते हैं,"हम बिखरे हुए हैं। इसके अलावा यहां 76 ज़िले हैं और यह एक बहुत बड़ा राज्य है जो पंजाब से कई गुना बड़ा है।"
"गुरुद्वारे और ग्राम स्तर के अध्यक्ष के पदों के अलावा, राजनीति में सिख बहुत महत्वपूर्ण नहीं हैं। राजनीति में समुदाय के आकार का महत्व होता है, लेकिन हमारे पास संख्या नहीं है।"