अनंत प्रकाश (बीबीसी संवाददाता)
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सोमवार को जातिगत जनगणना के आलोचकों को जवाब देते हुए कहा है कि कुछ लोग इसे समाज बांटने वाला क़दम बता रहे है, जबकि ये समाज की एकजुटता बढ़ाएगा। ये पहला मौका नहीं है जब नीतीश कुमार ने खुलकर एक ऐसे मुद्दे पर बयान दिया है जिस पर बीजेपी विपक्ष की ओर से दबाव झेल रही है।
जातिगत जनगणना एक ऐसा मुद्दा है जिस पर बीजेपी खुलकर कुछ कहने की स्थिति में नहीं है।
बीजेपी की बिहार शाखा के नेताओं की मानें तो बीजेपी जातिगत जनगणना करवाने के पक्ष में है।
वहीं, केंद्रीय नेतृत्व ने इस मुद्दे पर अपना रुख़ स्पष्ट नहीं किया है। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने संसद में बताया है कि भारत सरकार 2021 में जातिगत जनगणना कराने की योजना नहीं बना रही है।
ऐसे में सवाल उठता है कि जब मंत्री ये स्पष्ट कर चुके हैं कि केंद्र सरकार इस दिशा में क़दम नहीं बढ़ा रही है तब नीतीश कुमार बार-बार राजद नेता तेजस्वी यादव के साथ क़दमताल मिलाते हुए इस मुद्दे पर बयान क्यों दे रहे हैं।
बीबीसी ने इसी सवाल का जवाब तलाशने के लिए बिहार की राजनीति को समझऩे वाले तीन वरिष्ठ पत्रकारों सुरूर अहमद, लव कुमार मिश्र और अमरनाथ तिवारी से बात की है।
इतने मुखर क्यों हैं नीतीश?
पिछले कुछ समय से नीतीश कुमार लगातार पेगासस से लेकर जातिगत जनगणना समेत कई मुद्दों पर केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं।
एनडीए घटक दल के नेता और बीजेपी के समर्थन से बिहार सीएम बनने के बावजूद नीतीश कुमार जातिगत जनगणना के मुद्दे पर बार-बार बीजेपी पर दबाव बना रहे हैं।
इससे एक सवाल पैदा होता है कि आख़िर नीतीश कुमार ऐसा क्यों कर रहे हैं। इस राजनीतिक चाल के पीछे उनकी क्या मंशा है और इससे बिहार और देश की की राजनीति में वह कौन सा नया दांव खेलना चाहते हैं।
शायद वह यह नहीं चाहते कि इस मुद्दे पर सारा राजनीतिक लाभ तेजस्वी उठा लें या वह इसके ज़रिए बीजेपी पर दबाव बनाना चाहते हैं।
एक लंबे समय से नीतीश कुमार की राजनीति पर नज़र रख रहे वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद मानते हैं कि नीतीश कुमार इस समय एक तीर से कई शिकार करने की कोशिश कर रहे हैं।
वे कहते हैं, 'ईमानदारी से कहा जाए तो नीतीश कुमार को 30-35 साल से जान रहे लोगों को भी ये समझ नहीं आ रहा है कि नीतीश कुमार इस समय क्या और क्यों कर रहे हैं।
लेकिन अगर ध्यान से देखा जाए तो ऐसा लगता है कि नीतीश कुमार अपने और अपनी पार्टी के भविष्य के लिए एक नए राजनीतिक आधार की रचना करने में जुटे हैं क्योंकि अब वो समय नहीं है जब नीतीश कुमार की मर्ज़ी के बिना जदयू में पत्ता भी नहीं हिलता था।
उन्हें अपने तमाम सहयोगियों की ओर से चुनौतियां मिल रही हैं। ऐसे में वे अपने पुराने सहयोगियों की ओर लौटते दिख रहे हैं, जिनमें उपेंद्र कुशवाहा और लालू यादव शामिल हैं और इन पुराने साथियों की बदौलत वह कोइरी, यादव और कुर्मी जातियों को एक साथ लाकर एक नया राजनीतिक आधार बनाना चाहते हैं।'
क्या 2024 पर है नीतीश की नज़र
इस बात में दोराय नहीं है कि पिछले कुछ महीनों में इन तीनों समुदायों से आने वाले नेताओं के बीच नज़दीकियां बढ़ती दिख रही हैं।
कभी नीतीश कुमार के मुखर आलोचक रहे उपेंद्र कुशवाहा ने इसी साल की शुरुआत में अपनी पार्टी को जदयू के साथ मिला लिया है। इसके बाद वह जदयू संसदीय दल के अध्यक्ष हो गए हैं, वहीं तेजस्वी यादव और लालू यादव की ओर से नीतीश कुमार पर हमले लगभग बंद से ही हो गए हैं।
ऐसे में ये सवाल उठता है कि इस नए राजनीतिक आधार की रचना करके नीतीश कुमार क्या हासिल करना चाहते हैं।
बिहार की राजनीति को समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार अमरनाथ तिवारी मानते हैं कि नीतीश कुमार की इस मुखरता में ये संकेत मिल रहे हैं कि उनकी नज़र साल 2024 में होने वाले आम चुनावों पर है।
वे कहते हैं, 'नीतीशजी ने पिछले कुछ समय में पेगासस से लेकर एनआरसी के मुद्दे पर केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश की है और ऐसा लगता है कि वह विपक्ष को बताना चाहते हैं कि साल 2024 के चुनाव में मोदी का सामना करने के लिए वह उपलब्ध हैं।
वह ये बताना चाहते हैं कि उनके रूप में विपक्ष के पास एक विकल्प मौजूद है। दूसरी वजह ये है कि वह बीजेपी को भी ये संदेश देना चाहते हैं कि बिहार में मोदी उनके बॉस नहीं हैं। बिहार में मोदी जो चाहेंगे वह नहीं होगा, बल्कि वह जो चाहेंगे वो होगा। इस तरह वह बीजेपी पर भी दबाव बनाए रखना चाहते हैं।'
मुश्किल में बीजेपी
नीतीश कुमार ने बार-बार इस मुद्दे पर खुलकर बयानबाज़ी करके पीएम मोदी को एक कठिन स्थिति में खड़ा कर दिया है।
वह पीएम मोदी के ख़िलाफ़ खुलकर कुछ नहीं बोल रहे हैं, लेकिन उन्होंने अपने इन बयानों से बीजेपी के लिए एक असहज स्थिति पैदा कर दी है।
बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व की ओर से अब तक इस मुद्दे पर खुलकर कोई टिप्पणी नहीं की गई है और न ही अपना रुख़ जाहिर किया गया है।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या नीतीश कुमार ने बीजेपी को अपने जाल में उलझा लिया है।
बिहार की राजनीति को गहराई से समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार लव कुमार मिश्र मानते हैं कि इस बार नीतीश कुमार ने बीजेपी को अपनी चाल में फंसा लिया है।
वे कहते हैं, 'ये सही है कि नीतीश कुमार ने इस बार बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को अपने जाल में फंसा लिया है। अमित शाह ने एनआरसी के मुद्दे पर क्रोनोलॉजी वाला बयान दिया था। लेकिन इस मामले में न अमित शाह बोल पा रहे हैं और न ही बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा कुछ कह पा रहे हैं। अब बीजेपी को इस असहज स्थिति से निकलने के लिए नीतीश कुमार के लेवल पर जाकर ही डील करना पड़ेगा।'
दिल्ली की ओर बढ़ते क़दम
इसके साथ ही मिश्र मानते हैं कि ये संभव है कि नीतीश कुमार कुर्मी, कोइरी और यादव के गठजोड़ से एक नया राजनीतिक आधार तलाशने की कोशिश कर रहे हों।
वह कहते हैं, 'नीतीशजी अपनी सोशल इंजीनियरिंग की स्किल से एक नई शुरुआत कर सकते हैं। इसके साथ ही इनका कुछ और भी मक़सद हो सकता है। दक्षिण भारत में पेरियार के से ही जाति एक राजनीतिक मुद्दा रही है और ऐसे में नीतीश कुमार डीएमके जैसी दक्षिण भारतीय पार्टियों का समर्थन ले सकते हैं और ओबीसी-ईबीसी के नेतृत्व के लिए राम विलास पासवान के जाने से जो जगह खाली हुई है, वो जगह ले सकते हैं।
एक चीज़ और ध्यान देने वाली है कि नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री पद की ओर अपने क़दम बढ़ा दिए हैं। उनकी पार्टी में जो प्रस्ताव पारित हुआ, उसे बेहद सफ़ाई और चतुराई के साथ लिखा गया था। उसमें ये बताया गया कि नीतीश कुमार योग्य तो हैं, लेकिन इच्छुक नहीं हैं और नीतीश कुमार के पुराने बयानों को देखें तो पता चलता है कि नीतीश कुमार वही काम करते हैं जिसकी वह इच्छा नहीं जताते हैं।'
लेकिन मिश्र ये भी मानते हैं कि नीतीश कुमार की इस मुखरता की वजह ओबीसी राजनीति का उभार भी है।
वह कहते हैं, 'नीतीशजी इस समय ओबीसी राजनीति को नज़रअंदाज नहीं कर सकते क्योंकि इस वक़्त यह अपने उभार पर है। बीजेपी भी इस बात को समझती है। बिहार में जो दो उप-मुख्यमंत्री बने हैं, वे भी ओबीसी हैं। ऐसे में सभी राजनेताओं के सामने एक लाचारी की स्थिति है। ये एक राजनीतिक मजबूरी है जिससे नीतीशजी क्या बिहार का कोई भी नेता छुटकारा नहीं पा सकता है।'