अच्छे दिन खत्म हो गए

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ब्रजेश उपाध्याय (बीबीसी संवाददाता, दिल्ली)

दिल्ली के साइवाना एक्सपोर्टस में सिलाई मशीनों की घरघराहट अभी खामोश नहीं हुई है, लेकिन जो मशीनें चल रही हैं उनके मुकाबले धूल खा रही मशीनों की तादाद कहीं ज्यादा है।

दक्षिणी दिल्ली के ओखला इलाके से रेडीमेड कपड़ों का निर्यात करनेवाली इस कंपनी ने अमेरिकी वित्तीय बरगदों के धराशायी होने से पहले वाले साल में अपने वार्षिक कारोबार में 45 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की।

पिछले साल, ये कंपनी अपनी कमाई का 55 प्रतिशत गँवा बैठी। उसके 400 मशीनों में से केवल 80 काम पर हैं, बाकियों पर कपड़े का खोल चढ़ा हुआ है, उसके 650 कामगारों में से अब केवल 200 रह गए हैं, बाकियों की छुट्टी हो चुकी है।

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ज्यादातर कामगार अपने अपने गाँव लौट गए हैं, कुछ बचे खुचे हालात बदलने की उम्मीद में आसपास डेरा डाले हुए हैं।

कंपनी के डाइरेक्टर रजत सिक्का का कहना है कि जो अच्छे दिन थे वे लगता है खत्म हो गए। उनका कहना है कि एक वक्त था जब ओखला में रेडिमेड कपड़ों का निर्यात करने वाली छोटी-बड़ी मिलाकर 500 कंपनिया थीं।

कहते हैं कि अब मुश्किल से 15-20 बड़े खिलाड़ी रह गए हैं...जो छुटभैये थे उनका पत्ता साफ हो गया है। निर्यात क्षेत्र की दूसरी कंपनियों, खासकर हीरा कटाई, गहने, मोटर पार्ट्स के क्षेत्र में भी लगभग यही कहानी है।

सरकार का कहना है कि जुलाई में निर्यात 28 प्रतिशत के वार्षिक दर पर नीचे गिरा और ये लगातार दसवाँ महीना था जब निर्यात में गिरावट दर्ज की गई। आने वाले दिनों के लिए भी भारतीय रिजर्व बैंक की भविष्यवाणी कोई बहुत उम्मीद नहीं बंधाती.

इसमें कहा गया है कि बाजार की स्थिति में तेज बेहतरी के खास आसार नहीं नजर आ रहे।

निर्यातक इस संकट से उबरने के लिए कटौती और छँटनी तो कर ही रहे हैं, कुछ नए रास्ते भी तलाश रहे हैं।

नए बाजार- जब यूरोप में उनके खरीदार कम हो गए, तो रजत सिक्का ने अमेरिका अपना ब्रांड लॉंच कर दिया। उनका कहना है कि जो छोटेमोटे खिलाड़ी थे वे मैदान से हट गए थे और भले ही मंदी का माहौल हो लेकिन अमेरिकी बाजार में घुसने का ये अच्छा समय था।

सस्ती लीज का फायदा उठाकर उन्होंने न्यूयॉर्क, डैलस और लॉस ऐंजल्स में दफ़्तर भी खोल डाले और अमेरिका में मेसीज़ जैसी बड़ी दुकानों में अपने ब्रांड की पैठ बना ली है।

रजत सिक्का कहते हैं कि ये लोग (अमेरिकी) हमेशा से गिरकर उठने की ताकत रखते हैं, इसलिए जब दूसरे वहाँ का बाजार छोड़कर भाग रहे थे, मैने वहाँ प्रवेश करने की सोची।

आर सी केसर, निर्यातकों के संगठन ओखला गारमेंट टेक्सटाइल क्लस्टर के प्रमुख हैं। उनका कहना है कि कई निर्यातक अब चुस्त उत्पादन की नीति अपना रहे हैं।

उनका कहना है कि इसके तहत कम लागत पर ज्यादा उत्पादन और फालतू खर्चे में कटौती पर ध्यान दिया जाता है। संगठन ने इसके लिए एक विशेष कंसल्टेंट या सलाहकार की भी मदद ली है।

रजत सिक्का कहते हैं कि उनकी कंपनी में पहले सभी लोगों को मुफ्त चाय मिलती थी, अब गिनेचुने लोगों को ही ये सुविधा मिली हुई है।


मजदूर बेहाल- निर्यातक भले ही बाजार की नई वास्तविकताओं के अनुरूप अपने को ढाल लें, लेकिन कामगारों के लिए ऐसा करना आसान नहीं होगा।

भारतीय श्रम निदेशालय के सर्वेक्षण के अनुसार 2009 में अप्रैल से जून तक निर्यात क्षेत्र में 167,000 कामगारों की नौकरियाँ चली गईं।

सूरत में हीरा उद्दोग में काम करनेवाले 400,000 कामगारों में से पचास प्रतिशत लोगों की नौकरियाँ जा चुकी हैं।

ऑटो कॉंपोनेंट्स मैन्यूफ़ैक्चर्रस संघ के अनुसार 2008 सितंबर और दिसंबर के बीच 70,000 दिहाड़ी मजदूरों की नौकरी चली गई।

के सीता प्रभु भारत में संयुक्त राष्ट्र डेवलपमेंट प्रोग्राम की वरिष्ठ अधिकारी हैं। उनका कहना है कि काफी मजदूर ऐसे हैं जिन्हें पक्की नौकरी से हटकर दिहाड़ी नौकरी पर आना पड़ा और भारी तादाद उनकी भी है जो अपने गाँव लौट गए हैं।

के सीता प्रभु कहती हैं अर्थव्यवस्था में शायद सुधार नजर आने लगे लेकिन हमें इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि ऐसे मजदूरों को फिर से ढर्रे पर लाना बहुत मुश्किल होगा।

उनका कहना है कि नरेगा जैसे सरकारी कार्यक्रमों से मदद तो मिल रही है, लेकिन इनमें सब बराबर हैं और प्रशिक्षित कामगारों को भी खेती और मिट्टी से जुड़े कामों में ही लगना पड़ता है। उनका कहना है कि ऐसे प्रशिक्षित कामगारों को उनकी काबिलियत के अनुसार काम देना एक बड़ी चुनौती होगी।

सीता प्रभु कहती हैं कि इस संकट से कई मौजूदा चुनौतियाँ और गंभीर रूप धारण कर रही हैं। उनका कहना है कि ऐसी जानकारी आ रही है कि छँटनी होकर आए मजदूर बच्चों की शिक्षा और परिवार के स्वास्थ्य पर होनेवाले खर्चों में कटौती कर रहे हैं और इससे बच्चों और महिलाओं की कार्यक्षमता पर असर होगा।

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