'असली' अण्णा ने कहा मांगे अव्यावहारिक

- विनीत खरे (दिल्ली)

Webdunia
सोमवार, 4 जुलाई 2011 (18:12 IST)
BBC
लोकपाल को लेकर सरकार के खिलाफ आंदोलन की कमान अण्णा हजारे को सौंपने वाले 93-वर्षीय गांधीवादी और स्वतंत्रता सेनानी शंभूदत्त शर्मा टीम हजारे के तौर-तरीकों से नाखुश हैं।

ये शंभूदत्त शर्मा ही थे जो 30 जनवरी 2011 से लोकपाल के समर्थन में आमरण अनशन पर बैठने वाले थे जब टीम अन्ना ने उन्हें ऐसा नहीं करने के लिए मना लिया।

शंभूदत्त कहते हैं, ‘कामयाबी तो अलग रही, लड़ाई झगड़ा शुरू हो गया है।’ शंभूदत्त की माने तो टीम अण्णा की कई मांगे अव्यावहारिक हैं, और उनके बात करने का लहजा गलत।

वो कहते हैं, 'अरविंद केजरीवाल ने कहा कि सरकार झूठी है। आप जिनसे बातचीत कर रहे हैं, अगर आप उनकी खुलेआम निंदा करेंगे तो समझौता कैसे होगा। अण्णा ने कहा कि वो सरकार को सबक सिखाएंगे, क्या ये गांधी की भाषा है? जो अण्णा कहते हैं, उसे सत्याग्रह नहीं कहते।'

शंभूदत्त शर्मा कहते हैं कि वो अण्णा को पत्र लिख रहे हैं कि वो 16 अगस्त को ऐसे वक्त अनशन नहीं करें जब मानसून सत्र चल रहा हो, खासकर तब जब अण्णा कह चुके हैं कि वो संसद की बात मानेंगे।

‘संसद को बिल पास करने दीजिए मानसून सत्र में। उसके बाद वो आंदोलन या अनशन करें।’

शुरुआत : ये शंभूदत्त शर्मा ही थे जिन्होंने 1997-98 में भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय गठबंधन सरकार पर लोकपाल को संसद में पेश करने का दबाव डाला था। लोकपाल संसद में पेश तो हुआ, लेकिन शंभूदत्त शर्मा कहते हैं उसके बाद भाजपा जैसे सो गई है।

उनका कहना था, 'मैने अटल जी से कहा कि आपने खूबसूरत हिंदी में लाल किले में बातें तो खूब की, बिल भी संसद में पेश किया, लेकिन उसके बाद कुछ नहीं हुआ। उन्होंने विश्वास दिलाया। जब मैंने उनसे समय सीमा बताने को कहा, तो उन्होंने ऐसा नहीं किया। ये सब राजनीतिज्ञों के तरीके होते हैं।'

शंभूदत्त शर्मा मानते हैं कि अन्ना हजारे बेहद जिद्दी हैं, हालांकि वो ये भी कहते हैं कि उनके दिल में अण्णा के लिए बेहद इज्जत है और ‘दो गांधीवादियों के बीच फर्क हो सकता है।’ दशकों से लाला लाजपत राय की शुरू की गई सर्वेंट्स ऑफ पीपल सोसाइटी से जुड़े हैं शंभूदत्त शर्मा सरकार से बातचीत पर जोर देते हैं।

शंभूदत्त शर्मा की बातें सुनकर सरकार में बैठे लोग बहुत खुश होंगे, लेकिन वो कहते हैं कि वो सरकार के पक्ष में बात नहीं कर रहे हैं और उन्होंने सरकार के खिलाफ दसियों बार सत्याग्रह किया है और अगर सरकार गलतियां नहीं करती तो ये नौबत ही नहीं आती।

शंभूदत्त शर्मा की नाराजगी बाबा रामदेव के सत्याग्रह से भी है। वो कहते हैं कि पुलिस के आने पर रामदेव को खुद को पुलिस को प्रस्तुत करना चाहिए था, ना कि महिलाओं के कपड़े पहनकर भागना चाहिए था।

वो कहते हैं, 'दो-दो लाख रुपए के पंडाल डालते हो, क्या ये गांधी का तरीका है, क्या सत्याग्रह इसे कहते हैं। जान का खतरा लो, सत्याग्रह करने निकले हो। ऐसा गांधी ने किया कभी, ऐसा क्या किसी सत्याग्रह में हुआ कभी।'

करियर : जालंधर, होशियारपुर इलाके में पैदा हुए शंभूदत्त शर्मा ने अपना करियर भारतीय सेना के ऑर्डिनेंस कोर से शुरू किया जहां वो सिविलियन गजेटेड अफसर यानि सीजीओ थे।

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्होंने इस्तीफा दिया। बाद में उन्हें गिरफ्तार कर कानपुर जेल में भेज दिया गया। इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन में वो जयप्रकाश नारायण के साथ रहे और जेल भी गए। 1944 में उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई। उस मुलाकात ने उनकी ‘जिंदगी बदल दी’।

दिल्ली के अशोक विहार में अपनी बेटी के संग रह रहे, स्वभाव से बेहद नम्र शंभूदत्त कहते हैं कि सत्याग्रही होना उनका छोटा सा दावा है।

उन्होंने हमेशा कांग्रेस को वोट दिया, लेकिन वो भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस में राजनीतिक इच्छाशक्ति को जिम्मेदार ठहराते हैं। वो कहते हैं कि उन्होंने अपने ख्वाब में भी इस तरह के भ्रष्टाचार के बारे में नहीं सोचा था।

लोकपाल का दायरा : गांधीवादी नेता कहते हैं कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाना ठीक नहीं है क्योंकि अगर प्रधानमंत्री पर कथित भ्रष्टाचार के छींटे पड़ते हैं तो उससे सरकार की स्थिरता को खतरा होगा और उनकी अंतरराष्ट्रीय छवि धूमिल होगी। वो कहते हैं कि पद को छोड़ने के बाद उनके खिलाफ जांच हो सकती है।

शंभूदत्त सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों को भी लोकपाल के दायरे में लाने के खिलाफ हैं।

' अगर कोई व्यक्ति केस हार जाता है, तो लोग न्यायाधीश के खिलाफ ही भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं। क्या मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ जांच की शुरुआत करना ठीक होगा। लोकपाल को ही सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के पास दसियों बार जाना पड़ेगा।'

93- वर्षीय गांधीवादी नेता कहते हैं कि ये कहना कि 11-व्यक्तियों वाला लोकपाल चौकीदार से लेकर प्रधानमंत्री तक सभी के खिलाफ आरोपों की जांच कर लेगा सही नहीं है।

वो कहते हैं पिछले आठ बार जब भी लोकपाल बिल संसद में पेश हुआ है, उसका दायरा मंत्रियों और सांसदों तक ही सीमित था। उनकी माने तो लोकपाल पिल को पारित करना पहला लक्ष्य होना चाहिए। उसके बाद करीब दो साल देखना चाहिए कि ये कितना उपयोगी रहा है। उसके बाद अगर जरूरत पड़े तो उसमें बदलाव पर चर्चा होनी चाहिए।

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