एक विरोधाभासी व्यक्तित्व

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- सुमित चक्रवर्ती (संपादक, मेनस्ट्रीम पत्रिका)
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अक्टूबर की उस सुबह को, जब नई दिल्ली में इंदिरा गाँधी को उनके अपने ही निवास पर गोलियों से भून डाला गया, अब पच्चीस साल पूरे हो चुके हैं। इतने सालों बाद उन्हें कैसे याद किया जाए ये सवाल आज खासा अहम हो जाता है क्योंकि हमारे सामने आज जो दैत्याकार समस्याएँ हैं वो उनके शासन के दौरान की चुनौतियों से कोई कम नहीं हैं।

इंदिरा गाँधी, स्वतंत्र भारत की तीसरी प्रधानमंत्री थीं और शायद सबसे शक्तिशाली भी। कुछ तो कहते हैं कि कई बार उन्होंने अपने पिता की चमक को भी पीछे छोड़ दिया था।

लेकिन जब बात आती थी जटिल मामलों के समझ की, चाहे वो घरेलू हों या अंतरराष्ट्रीय, विद्वता की और लोकतांत्रिक आचार-व्यवहार की तब वो नेहरू के सामने नहीं ठहर सकती थीं। लेकिन समस्याओं से जूझते हुए कामयाब होने की जो उनकी काबिलियत थी उसमें वो नेहरू से आगे थीं। जो भी कहें उनके व्यक्तित्व, उनके चरित्र और उनकी कार्यशैली में एक विरोधाभास दिखता था।

योगदान : भारत की एकता को मजबूत करने में नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल के योगदान के बाद उन्हीं का नाम आता है। वो अपनी कामयाबी के चरम पर पहुँचीं जब पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों और विशेष सलाहकारों की मदद से उन्होंने बांग्लादेश की मुक्ति को अंजाम दिया। और इस ऐतिहासिक कदम से उन्होंने दक्षिण एशिया में लोकतंत्र के मार्ग को प्रशस्त किया।

लेकिन फिर उन्होंने ही साढ़े तीन सालों के बाद एशियाई उप-महाद्वीप के सबसे बड़े राष्ट्र में लोकतंत्र का गला घोंट दिया आपातकाल की घोषणा करके, अपने विपक्षियों को कुचल के। बिना अपनी अंतरात्मा की आवाज सुने उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों को जेल में बंद कर दिया और मीडिया के मुँह पर ब्रिटिश ज़माने की तरह की नकेल कस दी।

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उसके पहले 1969 में भी उन्होंने कांग्रेस में बँटवारा करके संगठन को कमजोर कर दिया, धीरे-धीरे एक वंशवादी प्रथा की शुरुआत कर दी जिसमें उनके परिवार के सदस्यों को ही उच्च पदों पर आसीन कर दिया गया। (कुछ हद तक ये प्रथा आज भी कायम है, चमचागिरी की संस्कृति मूल्यों पर हावी है।)

राजनीति के प्रति उनका शक्की रवैया पंजाब से जुड़े उनके फैसलों में भी नजर आया। जिसका परिणाम ता उनकी जघन्य हत्या और 1984 के सिख विरोधी दंगों के रूप में भारतीय लोकतंत्र पर एक कभी न मिटनेवाला धब्बा।

जनता के साथ रिश्ता : लेकिन फिर भी उनके जीवन काल में कांग्रेस ने जनता के साथ अपने रिश्तों को जीवंत रखा (अपवाद केवल इमरजेंसी का था) और लोगों की स्थिति सुधारने के लिए कई कदम उठाए। ये अलग बात है कि समाज के बड़े तबके में गरीबी और पिछड़ापन बढ़ता ही गया।

यहाँ ये भी कहना होगा कि उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई जारी रखी। लेकिन साथ ही छोटे राजनीतिक फ़ायदों के लिए उन्होंने धार्मिक भावनाओं का भी इस्तेमाल किया जो उनके पिता ने कभी नहीं किया।

वो कई मायनों में काले और सफेद का मिश्रण थीं और इसलिए लोग या तो उन्हें बहुत पसंद करते थे या बेहद नापंसद करते थे। इंदिरा गाँधी एक ही साथ सबसे कामयाब, सबसे विवादास्पद और सबसे ज्यादा एकाधिकारवादी प्रधानमंत्री थीं। साथ ही फौरन फैसला करने वाले प्रधानमंत्रियों में भी वो सबसे आगे थीं। इस संदर्भ में पोखरन-1 का जिक्र जरूरी है क्योंकि 1974 का वो परमाणु परीक्षण उन्हीं की अगवाई में हुआ था।

सत्ता को किस पटुता से इस्तेमाल करने में भारत में उनका कोई सानी नहीं था। अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी उन्होंने अमिट छाप छोड़ी और 1983 में दिल्ली में हुए सातवें गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में ये साफ नजर आया।

फिदेल कैस्ट्रो का उन्हें हल्के से गले लगाना और फिर उन्हें गुटनिरपेक्ष आंदोलन के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपना एक ऐसा दृश्य था जो विश्व मंच पर तीसरी दुनिया के आगमन का प्रतीक था और इसके प्रभाव दूरगामी थे।

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गरीबी हटाओ : लेकिन क्या वो भारत के करोड़ों लोगों की स्थिति को सुधारने में कामयाब हुईं? इसका जवाब निश्चित तौर पर होगा 'नहीं'। लेकिन साथ ही ये सवाल भी होगा कि क्या ये उनके नेतृत्व को पूरी तरह से असफल दिखाता है? इसका जवाब भी होगा 'नहीं'।

1971 के संसदीय चुनाव में उन्होंने गरीबी हटाओ का ऐसा नारा दिया जिसने पूरे देश के मजदूर वर्ग में नई उर्जा का संचार कर दिया (ये अलग बात है कि उस नारे को हकीकत में बदलने के लिए अभी तक कुछ खास नहीं किया गया।)

उनकी सबसे बड़ी और स्थाई कामयाबी थी आम जनता में, समाज के सबसे पिछड़े वर्ग में, भविष्य के लिए उम्मीद जगाना। और शायद यही उनकी सबसे बड़ी विरासत है जो किसी भी दुष्प्रचार से नहीं मिटाया जा सकता।

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