बीसीसीआई को क्यों बख्शा...

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- प्रदीप मैगजीन (वरिष्ठ खेल पत्रकार)
BBC

भारतीय मीडिया प्राइम टाइम पर लोकप्रिय टेलीविजन धारवाहिकों को टक्कर दे रहे इंडियन प्रीमियर लीग यानी आईपीएल के उन्माद में डूबा हुआ है, लेकिन वह उस महत्वपूर्ण कदम से लगभग बेखबर है जिसके तहत खेल महासंघों को पारदर्शी और जवाबदेह (खासकर वित्तीय मामलों में) बनाने की मुहिम छेड़ी गई है।

खेल मंत्री एमएस गिल को मुबारकबाद देनी चाहिए कि वे सभी खेल संघों को सूचना के अधिकार के दायरे में ले आए हैं। इसका मतलब ये हुआ कि खेल संघ ये बताने के लिए बाध्य होंगे कि सरकार से उन्हें मिली सहायता राशि कैसे और कहाँ खर्च हुई।

खेल संघों को ये भी जवाब देना होगा कि इस रकम का इस्तेमाल क्या उसी मकसद के लिए हुआ है, जिसके लिए होना चाहिए था, या फिर कहीं कोई धाँधली हुई है, जैसा अनेक लोग बार-बार आरोप लगाते रहे हैं।

लेकिन दुर्भाग्य से जो खेल संघ ऐसा राजस्व और मुनाफा कमाती है जिस पर बड़े-बड़े उद्योग घराने भी गर्व कर सकते हैं, वह इस कानून के दायरे से बाहर है! इसकी वजह ये मानी जाती है कि चूँकि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) एक निजी खेल संस्था है जो सरकार से एक भी पैसा नहीं लेती है और यही कारण है कि वह सरकारी नियंत्रण से बाहर है।

मेरी राय में ये तर्क गलत है। खेल प्रेमी और पेशे से वकील राहुल मेहरा ने 2004 में हाईकोर्ट में भारतीय क्रिकेट बोर्ड के खिलाफ जनहित याचिका दायर की थी।

' सार्वजनिक कार्यक्रम, जवाबदेही जरूरी'
हाईकोर्ट ने याचिका स्वीकार करते हुए अपने फैसले में स्पष्टतौर पर कहा था कि भले ही बीसीसीआई निजी खेल संस्था है, लेकिन क्योंकि ये सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित करती है, लिहाजा धारा 226 के तहत सरकारी जाँच के दायरे में आती है।

ये समझ से बाहर है कि बीसीसीआई खुद को इस पारदर्शिता के दायरे से बाहर क्यों रखना चाहती है। यदि बीसीसीआई कुछ छिपाना नहीं चाहती है तो बीसीसीआई को इस तर्क की आड़ में छिपना नहीं चाहिए कि वह एक निजी संस्था है और सरकार उससे सवाल नहीं कर सकती है।

इस सब के बीच बीसीसीआई ये भूल गई है कि उसे न केवल सरकार से टैक्स में छूट मिलती है, बल्कि रियायती दरों पर स्टेडियम और सुरक्षा जैसी सुविधाएँ भी मिलती हैं। यही नहीं, सबसे अहम यह है कि उसकी टीम- भारत की टीम कहलाती है...और ये सब सहूलियतें उस संस्था के नाम पर मिली हुई हैं जो सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित करती है....

नब्बे के दशक में जब भारत में उदारीकरण का दौर शुरू हुआ और निजी टेलीविज़न चैनलों के लिए भारतीय बाजारों के दरवाजे खुले थे, तब से बीसीसीआई दिन प्रतिदिन अमीर होती गई है।

इसमें भी शक़ नहीं कि बीसीसीआई के मालामाल होने का असर इस खेल पर निचले स्तर तक देखने को मिला और न केवल इसकी लोकप्रियता बढ़ी बल्कि निचले स्तर तक खिलाड़ियों को सुविधाएँ मिली हैं और खिलाड़ियों को भी इस आर्थिक उदारीकरण का खासा लाभ हुआ है।

आईपीएल के बाद तो बीसीसीआई की तिजोरी अरबों डॉलरों से भर गई है। ऐसे में क्रिकेट के संरक्षक के रूप में क्या बीसीसीआई की जिम्मेदारी नहीं बनती कि वो अपने प्रशंसकों के प्रति अनिवार्य रूप से जवाबदेह और अधिक पारदर्शी बने?

बीसीसीआई की मानें तो उसके सभी सदस्य और पदाधिकारी अवैतनिक हैं और उनकी सेवाओं के लिए उन्हें किसी तरह की तनख्वाह नहीं दी जाती है। निस्संदेह इस निस्वार्थ सेवा के लिए बीसीसीआई के पदाधिकारी भारतीय नागरिकों के सलाम के हकदार हैं।

ऐसे में हम ये मान सकते हैं कि क्रिकेट के प्रति बेशुमार लगाव के चलते वे अपनी निस्वार्थ सेवाएँ दे रहे हैं। अगर वाकई मामला ये है तो फिर ऐसा क्या है जो उन्हें अपनी इच्छा से सूचना के अधिकार के दायरे में आने से रोकता है?

बीसीसीआई को ये अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि उनके खजाने में जो भी रकम आ रही है उसकी सीधी वजह है इस खेल के करोड़ों प्रशंसकों का होना, जो इस खेल और खिलाड़ियों को अपनी ऊर्जा, समय और पैसा दे रहे हैं।

खेल प्रेमी बोर्ड का समर्थन इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि बीसीसीआई टीम इंडिया को बना रहा है, न कि 'ब्रैंड इंडिया' को सबसे ऊँचे दाम पर बेच रहा है। यही कारण है कि बोर्ड के खाते सरकारी जाँच के दायरे में आने चाहिए।

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