भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर का चुनावी इतिहास

Webdunia
सोमवार, 17 नवंबर 2008 (01:17 IST)
भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर में चुनावों की शुरुआत वर्ष 1951 में संविधान सभा के लिए हुए चुनाव से हुई। इस चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने सभी 75 सीटें जीतीं और शेख अब्दुल्ला ने राज्य की कमान संभाली। यहाँ तक कि चुनावों में 73 सीटों पर तो नेशनल कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवार बिना किसी विरोध के ही चुन लिए गए।

इसके बाद विधानसभा के लिए 1957, 1962, 1967, 1972, 1977, 1983, 1987, 1996 और 2002 में चुनाव हुए। इनमें से कई चुनावों के दौरान धाँधली होने के आरोप लगे और खासा विवाद पैदा हुआ।

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1957 एनसी की जीत, विपक्ष के आरो प : इसके बाद संविधान सभा विधानसभा में तब्दील हो गई और वर्ष 1957 में हुए चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस 'नया कश्मीर' के घोषणा-पत्र और नारे के साथ मैदान में उतरी। एनसी को 75 में से 68 सीटों पर जीत हासिल हुई। प्रजा परिषद को पाँच सीटें, एक सीट हरिजन मंडल को और एक सीट निर्दलीय को मिली।

विपक् ष ने 1957 के चुनावों में धाँधली के आरोप लगाए और ताजा चुनावों की माँग भी की और कुछ दलों ने तो चुनावों का बहिष्कार भी किया। महत्वपूर्ण है कि वर्ष 1953 में नेशनल कॉन्फ्रेंस के शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था। इसके बाद इंदिरा-शेख सहमति के बाद वे पूरी तरह से चुनावी मैदान में 1976-77 में ही लौटे।

1962 एनसी की जीत, 1967 और 1972 कांग्रेस को बहुम त : वर्ष 1962 में जम्मू-कश्मीर में तीसरी बार चुनाव हुए, जिनमें नेशनल कॉन्फ्रेंस को 75 में से 70 सीटें मिलीं, जबकि प्रजा परिषद को तीन और निर्दलीयों को दो सीटें मिलीं । वर्ष 1967 में कांग्रेस पार्टी को 61 सीटें मिलीं, जबकि जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस को आठ, भारतीय जनसंघ को तीन और स्वतंत्र उम्मीदवार तीन सीटों पर जीते।

पाँचवीं बार जम्मू-कश्मीर विधानसभा के लिए चुनाव 1972 में हुए और कांग्रेस को 58, भारतीय जनसंघ को तीन, जमाते इस्लामी को पाँच और निर्दलीय उम्मीदवारों को नौ सीटें मिली । इन चुनावों में लगातार आरोप लगते रहे कि विपक्षी दलों के उम्मीदवारों के नामांकन पर्चे छोटे-छोटे कारणों से रद्द कर दिए गए थे।

1977 शेख अब्दुल्ला का नेतृत्व, एनसी की जी त : वर्ष 1975 में इंदिरा-शेख सहमति के तहत शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा किया गया था। वर्ष 1977 में भारत में इंदिरा विरोधी जनता लहर चल रही थी। शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने फिर अपना लोहा मनवाया और उसे 76 में से 47 सीटें हासिल हुईं।

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इस चुनाव में खासा मतदान हुआ, जो लगभग 67 प्रतिशत था। इस भारी मतदान की वजह चुनावी मैदान में शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की वापसी बताया जाता है। उनकी पार्टी को 46 प्रतिशत वोट मिले। कांग्रेस को मात्र ग्यारह सीटें मिल पाईं. जनता पार्टी को 13, जमाते इस्लामी को एक और जनसंघ से बागी हुए निर्दलीय उम्मीदवारों को चार सीटें मिलीं।

शेख अब्दुल्ला ने सरकार बनाई और जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने प्रस्ताव पारित और जम्मू-कश्मीर के संविधान में संशोधन कर विधानसभा की अवधि पाँच से बढ़ाकर छह साल कर दी। वर्ष 1982 में शेख अब्दुल्ला के देहांत के बाद फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने।

1983 फारूक के नेतृत्व में एनसी की जीत : वर्ष 1983 में हुए चुनावों में शेख अब्दुल्ला के पुत्र फारूक अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस का नेतृत्व किया और पार्टी ने 46 सीटें जीतकर सरकार बनाई। कांग्रेस को 26 सीटें मिलीं, लेकिन एक ही साल बाद ग़ुलाम मोहम्मद शाह के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस का एक धड़ा फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली पार्टी से अलग हो गया और उसने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई, जो 1986 तक चली।

1987 एनसी-कांग्रेस गठबंधन की जीत : इसके बाद 1987 के चुनाव, राजीव-फारूक सहमति के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने गठबंधन बनाकर लड़े। नेशनल कॉन्फ्रेंस को 40, कांग्रेस को 26, भारतीय जनता पार्टी को दो और निर्दलीयों को आठ सीटें मिलीं।

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फारूक अब्दुल्ला फिर मुख्यमंत्री बने, लेकिन इन चुनावों में व्यापक धाँधली होने और नामांकन पर्चे रद्द किए जाने के आरोप लगे। कई पर्यवेक्षकों का मानना है कि इन चुनावों में हुई कथित अनियमितताएँ राज्य में चरमपंथ के पनपने का कारण बनीं। वर्ष 1990 में राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया।

1996 एनसी की जीत : वर्ष 1995 में भारत सरकार ने चुनाव आयोग से जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराए जाने की सिफारिश की थी, लेकिन आयोग ने इसे मानने से इनकार कर दिया। वर्ष 1996 में विधानसभा चुनाव हुए 87 सीटों के लिए।

नेशनल कॉन्फ्रेंस को 57 सीटें मिलीं, भाजपा को आठ, कांग्रेस को सात, जनता दल को पाँच, बहुजन समाज पार्टी को चार, पैंथर्स पार्टी को एक, जम्मू-कश्मीर आवामी लीग को एक और निर्दलीयों को दो।

2002 कांग्रेस, पीडीपी ने एनसी को हराया : वर्ष 2002 में हुए जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव कई मायनों एक नई पहल जैसे थे। चाहे चुनाव चरमपंथी हिंसा और बंदूक साए में हुए, लेकिन अधिकतर पर्यवेक्षकों का मानना था कि इन चुनावों में जोर-जबरदस्ती, धाँधली इत्यादि की भूमिका बहुत कम थी।

इन चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस विरोधी लहर स्पष्ट उभर कर सामने आई। उधर पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती ने हिंसा ग्रस्त राज्य में लोगों के घावों पर मरहम लगाने की बात की और गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व में कांग्रेस विकास और रोजगार देने की बात की, जिससे अनेक लोगों का रुझान इन पार्टियों की तरफ हुआ।

जहाँ नेशनल कॉन्फ्रेंस को पिछली बार की 57 से घटकर मात्र 28 सीटें मिलीं, वहीं कांग्रेस को 20 और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी को 16 सीटें मिलीं। उधर, पैंथर् स पार्टी को चार, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को दो, बसपा को एक और भाजपा को एक सीट मिली। अनेक निर्दलीय भी चुनाव में जीते। पीडीपी ने कांग्रेस के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनाई।
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